मिली का स्वाभिमान
मिली का स्वाभिमान
रामपुर गाँव में कड़ाके की ठण्ड पड़ रही है। एक गंदे से काले कम्बल में लिपटी, ठण्ड से ठिठुरती, बिना चप्पलों के पैर पर एक आशा को मन में लिए ‘मिली’ जीवनयापन करने की कोशिश कर रही है। उसे गरीबी की परवाह नहीं थी क्योकि उसका मन स्वाभिमान से भरा है और वह आशावादी है। इन्हीं सब विशेषताओं से पूर्ण होते हुए भी उस पर एक कलंक लगा हुआ था और वह था गरीबी और नीची जाति का।
वह इस गरीबी और जाति के कलंक से अनजान थी पर फिर भी मिली अपने मन में कई प्रश्न समेटे हुए थी ,उत्तर ढूँढ़ना चाहती है पर प्रश्नों के उतर नहीं ढूँढ पा रही है। मिली का मन परेशान और हैरान। वह चाहती थी कि उसे भी उसके प्रश्नों के उत्तर मिलें ताकि वह भी इस गरीबी और जाति के कलंक को अपने जीवन से निकलकर अन्य की तरह जीवन जी सकें, पर असहाय, बेबस वह चाहती थी कि अपने परिवार के लिए कुछ करें, पर मन में हिम्मत होते हुए भी कुछ नहीं कर पा रही थी। वह बेचारी सिर्फ मन-मसोस कर रह जाती।
पड़ोस में रहने वाले बच्चे भी चाहते थे कि वे छुटकी के साथ खेले क्योकि वह मिलनसार और सबसे मीठा बोलने वाली है। पर बच्चे भी बड़ों की मानसिकता का शिकार थे। उनका छोटा- सा बचपन क्या जाने इस गरीबी और जाति के भेदभाव को। बच्चे भी चाहते थे कि वह इन पुरानी व घिसी-पिटी परम्पराओं से आजाद हो और एक खुशहाल जीवन जीए, पर चाहकर भी बच्चे या कुछ लोग कुछ नहीं कर पा रहे थे। सभी अपना-अपना मन-मसोस के रह जाते और माँ-ही-मन कोसते। वो कहावत है न - अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता है ? समाज के कुछ लोग क्या इस पूरे देश को बदल सकते है ? शायद नहीं ..... और यही सोच बच्चो को भी कुछ न करने पर मजबूर कर देती थी।
एक सुबह मिली प्रश्नों की इसी कशमकश में खेतों पर काम के लिए जा रही थी। तभी उसने गाँव के जमींदार को गाड़ी में देखा, जिसने उसे देखते ही अपना मुँह बिचका लिया। मिली को ये देख अच्छा नहीं लगा। लेकिन फिर भी जमींदार को प्रणाम कह वह अपने रास्ते पर चल पड़ी। अभी कुछ दूर ही मिली पहुँची थी, तभी उसे किसी के चिल्लाने की आवाज सुनाई दी। मिली ने कान लगाया तो उसे आवाज जानी-पहचानी लगी। अरे ! ये क्या ? ये तो गाँव के जमींदार की आवाज थी, जिसे उसने अभी कुछ देर पहले ही देखा था।
मिली भागते -भागते पीछे की तरफ दौड़ी तो जमींदार की गाड़ी उलटी पड़ी हुई थी और जमींदार एक तरफ लहुलुहान, खून से लथपथ, बेहोश पड़े थे। मिली यह सब देखकर घबरा गई पर दूसरे ही क्षण उसके चेहरे पर ख़ुशी की चमक थी। वह खुश होने लगी कि जमींदार को उसकी करनी का अंजाम मिल गया। तभी उसकी नज़र जमींदार के पास पड़े उसके बटुए पर पड़ी,जो रुपयों से भरी थी। एक पल तो मिली के मन में बेइमानी आने लगी। उसने सोचा कि यहाँ कोई नहीं है और वह बटुए को लेकर वहाँ से भाग जाये। मिली ने जैसे ही बटुए को हाथ में लिया ही था कि एकाएक उसकी अंतरात्मा बोल पड़ी।
मिली ये तुम क्या करने जा रही हो ? ये सही नहीं है ? मिली का स्वाभिमान जिस पर उसे गर्व था , उसने मिली को ऐसा करने से रोक दिया। सहसा मिली दौड़ कर जमींदार के पास आ गई और उन्हें उठाकर वैद्य जी के पास लेकर चल पड़ी। रास्ते में मिली को लोग देख रहे थे पर आज सभी लोग चुप थे....किसी के मुख से वचन नहीं फूट रहे थे। मिली को कोसने वाले लोग भी उसके पास मदद के लिए आ गए।
वैद्य जी के पास पहुँचाकर तुरंत ही उनका इलाज शुरू कर दिया गया और कुछ ही देर में जमींदार को होश भी आ गया। सारी सच्चाई जानकर क्रूर जमींदार भी आज फूट-फूट कर रो रहा था और अपनी करनी पर पछ्ता रहा था।
गाँव के सभी लोग अपने व्यवहार पर शर्मिंदा थे और सबकी आँखों में पश्चाताप के आँसू थे। मिली को आज अब अपना दर्द कुछ नहीं लग रहा था .... वह खुश थी। उसके स्वाभिमान और सरल व्यवहार ने लोगों के हृदय में परिवर्तन ला दिया था और उसका जीवन प्रकाशमय कर दिया था।