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shraddha shrivastava

Abstract

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shraddha shrivastava

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महिला दिवस पे मेरी रचना

महिला दिवस पे मेरी रचना

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महिला दिवस पे मेरी रचना सभी महिलाओं को समर्पित-

एक दिन में कहाँ सिमटती वो,एक जन्म भी तो उसके लिये कम है,वो नारी है जो सब पे भारी है,

वो सूरज की तरह ही हर रोज़ निकलती है,एक दिन सिर्फ कहाँ निकलती वो!!

उसके लिये एक दिन बनाया सम्मान का दिवस मनाया फूलों का हार तक पहनाया, मग़र दूसरे दिन फिर किसने उसे सीने से लगया,इज़्ज़त लुटती उसकी जब,आग की लपटों में जलती जब, तब सामने कोई क्यो नहीं आया!!

एक दिन में कहाँ सिमटती वो,एक जन्म भी तो उसके लिये कम है

अंधकार से रोशनी की और जब आती अपने हिस्से का उजाला ज्यादातर वो खुद ही कर जाती,

तेल भी खुद ही लाती बाती भी वो खुद ही बनती,

और फिर अपने हित की आग भी खुद ही जलती!!

एक दिन में कहाँ सिमटती वो,एक जन्म भी तो उसके लिये कम है

कितनी राते रो कर गुजरती तब जाके कही वो, अपना अस्तित्व समझ पाती,इसलिए तो नारी ने अब

अपनी पहचान बनाना शुरू करी अपने हक के लिये लड़ सके ऐसी एक दीवार बनाना शुरू करी!!

एक दिन में कहाँ सिमटती वो,एक जन्म भी तो उसके लिये कम है

आओ हम कोशिश करे कि हर नारी की एक, पहचान बने, किसी की बहु किसी की पत्नी किसी की माँ और किसी के बेटी के अलावा भी उसकी एक शान बने,वो एक दिन नहीं हर रोज़ निकले एक नए आयाम के साथ एक नई पहचान के साथ बार बार निकले!!

एक दिन में कहाँ सिमटती वो,एक जन्म भी तो उसके लिये कम है

एक दिन बस ना हो उसके लिये हर रोज़ उसे सम्मान मिले,उसके भी अपने सपने है उसको भी तो ऊँची उड़ान मिले,एक रसोई से बस ना वो पहचानी जाये,वो भी तो नाम रोशन कर सके ऐसा उसे भी आधार मिले!!

एक दिन में कहाँ सिमटती वो,एक जन्म भी तो उसके लिये कम है

एक नई दुनिया बासनी है एक नई लौ जलनी है,कल नहीं कर पाई कुछ तो क्या हुआ,

आज उसे उठ खड़े होने का अधिकार मिले!!

एक दिन में कहाँ सिमटती वो…....…...


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