मेरी कागजी दुनिया
मेरी कागजी दुनिया
जब देखो तब अपने कागजों में घुस जाते हो, फैला कर रख दिया सारे कमरे को, कब साफ करोगे, कब बाजार से सामान खरीदकर लाओगे और कब मैं तुम सबके लिए खाना तैयार कर पाऊंगी। तुम्हारा रोज रोज के इस काम से तंग आ चुकी हूं। कहकर मेरी धर्मपत्नी गुस्से में कमरे से बाहर निकल गई।
मैं अपने बचपन के शैक्षणिक प्रमाण पत्रों के साथ साथ नौकरी, बीमा, घर के कागजात, बिजली –पानी के बिलों, अपने अन्य साथियों की वो कागजी धरोहर को जिसे अति विश्वास के साथ मेरे सुपुर्द किया है को भलीभांति समेटते हुए बाजार जाने को तैयार हो गया।
उसे नही पता कि इन कागजों को हर महीने अलग अलग दिनों में देखने से वो याद रहते हैं, सुरक्षित रखा है कि नही सुनिश्चित रहता है, साथ ही एक लाइब्रेरियन की तरह कौन सी चीज कहां है कैसी है, किस कागजात की कब जरूरत होती है, किसको नवीनीकरण कराना चाहिए, और भी ना जाने क्या क्या अपडेट रहता है।
पर जब ऐन मौके पर किसी कागजात की जरूरत हो तो लोगो को मिलता ही नहीं, बस इस मामले में ही पूरे घर पर मेरी तारीफ होती है कि जो सामान या कागज मेरे हाथों से रखा गया होगा वो मैं आंख बंद करके भी निकाल सकता हूं।
या मैं कहीं बाहर हूं और कोई घर पर से मुझे पूछेगा तो मैं स्पष्टता से मार्गदर्शन देते हुए उस परिजन के माध्यम से वो समान या कागजात निकलवाने में सक्षम हूं।
जब ऐसा होता तो मेरा एक लंबा सा भाषण अपने परिजनो को सुनाने और अपनी इस आदत के फायदे बताने में कोई कसर ना छोड़ता।
खैर जैसे जैसे दिन बीते याददाश्त भी कमजोर पड़ रही थी तो दूसरी तरफ कागजातों या प्रमाणपत्रों की संख्या भी अधिक हो गई क्योंकि दो बच्चों के कागजात, प्रमाण पत्र भी जो सहेजे हुए थे।
मेरी ये आदत दूसरों को अकर्मण्य भी बना बैठी, मेरी सतर्कता घरवालों को कामचोर बना गई। अब तो मेरे पुस्तकालय में सफाई भी नही हो पाती, जब मुझे समय होता तो कर लेता, फिर खो जाता उन्ही कागजातों में पर समेटने का क्रम अब भूलने लगा हूं।
अब कागज़ों की खुशबू भी मुझे नहीं ललचाती, दिखाई भी कम देता है और उन्ही कागजों के बीच बैठकर सो जाता हूं। पर अब नही देती कोई उलाहना मेरी पत्नी मुझे क्योंकि उसे भी आदत सी हो गई मेरे कागजों में उलझे हुए समय बिताने की।
