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मेरे पापा जैसे

मेरे पापा जैसे

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उसने एक बार फिर नजर उठा कर अपनी मेज पर रखी फाइलों के पहाड़ को देखा और खुद को तसल्ली देते हुये बोली,

"अगर बुलेट ट्रेन की तरह काम किया तो आज के आज काम खत्म कर ही लूँगी।"

तभी खिड़की से एक चंचल पुरवाई ने आकर उसकी जुल्फों से शरारत कर दी ।इस शैतानी के कारण जब उसने नजर उठा कर खिड़की से बाहर देखा तो हैरान होते हुये बोली,

"ओह ! अभी तो कितनी जानलेवा गरमी हो रही थी और अब मेघा ने आकर सब कुछ कितना खुशगवार कर दिया, बचपन में ऐसा मौसम होते ही बस छत ही मेरा ठिकाना होती थी। बारिश में भीगना और कागज की नाव बनाना, काश मैं आज भी बारिश में भीग पाती, पर यह इतना काम जब तक खत्म होगा कहीं बारिश रुक ना जाये।"

फिर उसने जितनी तेजी से हो सकता था, अपना काम खत्म किया और ऑफिस टाइम पूरा होते ही अपनी स्कूटी की तरफ दौड़ लगा दी, पर बाहर आकर निराशा ही हाथ लगी। बारिश रूक चुकी थी और धूप की नन्ही किरणें अठखेलियाँ कर रही थीं।

"उफ्फ्फ शायद बारिश आज भी मेरी किस्मत में नहीं।"

कहते हुये उसने अपनी स्कूटी स्टैण्ड से हटाई। तभी हवा का एक झोंका आया और उस पर बूँदों की फुहार कर गया। उसने नजर उठा कर ऊपर देखा।

एक बड़ा सा वट वृक्ष मुस्कुरा रहा था और बारिश रूकने के बाद भी उस पर बारिश कर रहा था।

उसने प्यार से विशाल वट वृक्ष को देखा और गुनगुनाते हुये बोली,

"आप भी बिल्कुल मेरे पापा जैसे ही निकले वो भी मेरी हर फरमाइश पूरी कर ही देते हैं, चाहे जैसी भी करे.....।"


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