Uttam

Romance

4.7  

Uttam

Romance

मेचुअल फ्रेंडस

मेचुअल फ्रेंडस

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उम्र कब हाथ से निकल गयी मालूम ही नहीं पड़ा। अपने भतीजे की शादी में भाई के घर जाना हुआ, वहां सब लगभग सभी थे, सभी जोड़े में थे। चिलचिलाती सर्दियों में मैं भी सुबह-सुबह पंहुचा, अपनी गाड़ी लेके। मौसी मुझे देख कर मुस्कुराई और मुझे गले से लगा लिया। उनकी आंख मैं भी आंसू थे, क्यों की वो मुझे अकेले देख के खुश नहीं थीं। 

गले लगते हुए मेरे कान मैं फुसफुसा कर बोलीं, मुझे भी बहु तो लादे, तूने वादा किया था की तू मुझे एक दिन बहु के हाथ की कॉफ़ी ज़रूर पिलायेगा ? 

मैंने भी हँसते हुए उनके कान मैं कहा, "चलो आप मेरे हाथ की कॉफ़ी पी के देखो, शर्त लगी जो आपको किसी और के हाथ की कॉफ़ी पसंद आयी।" मौसी बोली मुझे डांटते हुए "सुधरेगा नहीं, मान जा"। मैं फिर मुस्कुराया और मैं उन्हें कुछ न कहते हुए, सिर्फ उनके गालों को प्यार से छुआ और कहा अभी आता हूँ थोड़ी देर में मौसी । 

मनचला था निकल गया सबसे मिलने। छत बड़ी पसंद थी मुझे। ये वही छत जहाँ बचपन मैं छुपन छुपाई खेली थी, पतंग उड़ाई थी, जहाँ रात मैं सोया करते थे और सुबह सुबह मामा जी बड़े प्यार से उठाया करते थे। उस छत को महसूस करने मैं चला। दो मिनट आंखे बंद की और नाना जी और नानी जी को याद किया। मानो तो जैसे बचपन फिर जवान हो गया हो। 

तभी नीचे से आवाज़ आयी, निशांत तू गाड़ी लाया है ना जरा इन लड़कियों को ब्यूटी पार्लर तक छोड़दे, मैंने मन हे मन में कहा, लो जी आगया काम, आगयी शामत ! आदमी जितना भी बड़ा हो जाए घर वालों के लिए रहेगा ड्राइवर ही ,बताना चाहूंगा की शादियों मैं बड़ा काम किया है मैंने, जवानी मैं तो उस बेगाने अब्दुल्ला थोड़ा भी काम नहीं था में। 

खैर ब्यूटी पार्लर से वापिस आ ही रहा था की बड़े भाई का फ़ोन आया, कहा कि "तुझे प्रज्ञा का नंबर मैसेज किया है, उसको लेते हुए आना, उससे बात कर लेना"। ये वही नंबर था जो कुछ सालो पहले मेरे फ़ोन से ऐसे गायब हुआ जैसे कभी था ही नहीं। अपने आप को मानते मानते मनो एक अरसा हो गया था पर ये अड़ियल दिल किसी और के बहकावे मैं आ ही नहीं पाया फिर से। पुराना इश्क मनो फिर से ललकार रहा हो, हालाँकि संवेदन लगभग शुन्य हो गए थे फिर भी एक मनचला दिल खुश था क्यों की वो खुश रहना चाहता था। 

मैंने फ़ोन लगाया, हेलो प्रज्ञा ? मैं निशांत बोल रहा हूँ। कुछ सेकेंडो बाद वहां से आवाज़ आयी, हाँ बोलो। मैंने कहा भैया ने तुम्हे पिक करने को कहा है, तुम्हारे घर का रास्ता मालूम नहीं, बता दोगी कैसे आना है ? 

पहले फ़ोन हेलमेट के नीचे फसा के रास्ता पूछते पूछते आता था उसके घर, जब वो अकेली हुआ करती थी, और आज इतने सालो बाद कार के डैश-बोर्ड पे फ़ोन रख कर बस वही कहानी अपने आप को दोहरा रही थी।

इस बार बताने का अंदाज़ मैं थोड़ी थोड़ी हिचकिचाहट थी I ये बात अलग है की हर बार की तरह वो बात नहीं रही फ़ोन की बैलेन्स जी जगह पोस्टपेड कनेक्शन ने ले ली है और नोकिया के पुराने फ़ोन की जगह आइ फ़ोन 7 प्लस ने ले ली है , हालाँकि मज़ा भी पूरा आ रहा था। ऐसा काफी दिनों बाद हो रहा था कि मैं जिंदगी को कोस नहीं रहा था, और कोसता भी किस लिए, जब वो आखिरी बार गले लगी थी तो रोई थी, कह रही थी कि "निशांत मैं डरती हूँ, कायर हूँ मैं"। मुझे नहीं पता था कि मुझे क्या करना चाहिए था उस समय, मैं सिर्फ उसको गले लगा कर उसकी पीठ सहला रहा था और उसे कह रहा था की सब ठीक हो जायेगा।

बचपन का प्रेम इन नौकरी और प्रतिस्पर्धा के चक्कर में कहाँ गुम हो गया पता ही नहीं चला ।

पहले कॉलेज फिर mba और फिर नौकरी इन झमेलों में ऐसा नहीं था की याद नहीं किया उसे । हाँ ये भी सच है की याद करने से ज़्यादा भूलने की कोशिश की थी मैंने ।  

खैर जैसे तैसे पंहुचा उसके घर, तो कार खड़ी करने की जगह नहीं मिल रही थी, पहले जब आता था तो बाइक बड़े ध्यान से खड़ी करनी परती थी और ये भी ध्यान रखना पड़ता था की कहीं बीच मैं भाग के जाना पड़े तो आसानी से निकलना हो पाए। शायद मेरे मन मैं चोर वैसा ही था जैसे पहले हुआ करता था, वरना कम चलती गली में खड़ी चाहे जहाँ भी कड़ी करो किसी को क्या फरक पड़ता है।

वो आयी बहार निकल के, बिलकुल वैसे बनके जिससे मुझे बिलकुल ऐसा न लगे की वो मेरे लिए सज सवर के आयी हो। हालांकि मुझे दाढ़ी बनके का बिलकुल शौक नहीं था, और गौर की बात ये है की उसे मेरी हल्की दाढ़ी बहोत पसंद थी, और मुझे भी अपनी दाढ़ी इसलिए पसंद थी क्यों की वो उसे पसंद थी। मगर आज तो वक़्त ही नहीं मिला था । मुहल्ले के मनोज के सलून में जाना कब का बंद कर दिया था क्यूँ की आजकल हेयर स्टाइलिस्ट लोग मेरे बालों का ख़याल रखने लगे थे।

ख़ैर उसने पहले कार का पिछले दरवाज़ा खोला, पर वहां सामान होने के कारण थक हार के आगे बैठना ही पड़ा। वो जाताना चाहती थी की वो वह सबकुछ नहीं करना चाहती जो मुझे पसंद आये, मैं उम्र मैं बड़ा था मुझे अपने आप को नियंत्रित करना आता था l मैंने पूछा चलें ? उसने गर्दन हिला के जवाब दे दिया। 

आधे घंटे शांति रही, और फिर मां का फ़ोन आया । माँ हर रोज़ दिन मैं दो बार फ़ोन करती है, मैं चौतीस का हूँ तब भी। उनके लगता था की मैं कहीं खो न जायूँ, मां जो ठहरीं। माँ ने पहले भी चेताया था की कुछ ऐसा न करना जिससे परेशां होना पड़े, पर मैंने सुनी नहीं थी। पर आज नजाने तारे अच्छे थे या खुदा मेहरबान था, माँ ने मुझे से कहा कि, " प्रज्ञा दिखे तो मुस्कुराना मत भूलना और उसके माँ-बाप मिले तो झुक के उनके पाँव छू लेलेना। हम उन्हें अभी भी उतना ही प्यार और सम्मान करते हैं जितना पहले करते थे। माँ को ये नहीं पता था की फ़ोन का कनेक्शन ब्लूटूथ मोड पे है। फ़ोन बंद हुआ और प्रज्ञा सोच मैं पड़ गयी। 

ग्यारह साल बाद वो अब दिखने लगी है म्यूचल फ्रेंड्स लिस्ट में।


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