मैं तुझ में - तू मुझ में
मैं तुझ में - तू मुझ में
और रूपक……
रोती रही, चिल्लाती रही। सिसकियों में कब रात हुई कब दिन हुआ रूपक को कुछ आभास ना था। आँसुओं की नमी में ओझल दिन थे और बोझल रातें थी। चिर परिचित लोगों का ताँता लगा ही रहता था घर में । अभी कुछ संभल ही पाती रूपक के अचानक आदित्य की कम्पनी से एक चेक आया जिसके साथ एक पत्र था। उस पत्र में आदित्य का कम्पनी के प्रति अतुलनीय योगदान देने हेतु सराहना थी। दिल में निर्दयी क़िस्मत का सारा बोझ जैसे उस एक पत्र में समा गया हो और पत्र समेत रूपक वही ढेर हो गयी पर अंत में जीत ज़िम्मेदारियों के बोझ की ही हुई।
घर- खर्च , बच्चों की पढ़ाई , माँ- पिता के बुजुर्ग होने का एहसास इन सभी ज़िम्मेदारियों ने रूपक के कंधों पर अपना डेरा जमा लिया था। “माँ-पिता की गोद से उतरी तो आदित्य के आशियाने में पली। अब आशियाना ही सूना हो चला तो कहाँ जाए?” ऐसा आईने के सामने खड़े रहकर रोज़ अपने आप से पूछा करती थी।
दिन गुज़रे, रूपक ने नौकरी करने का फ़ैसला किया। ना तो कोई अनुभव था और ना ही पोस्ट ग्रैजूएट पूरी हो पायी थी भी कम वेतन से ही शुरू करनी पड़ी। गुजरते वक्त ने वो चीजें भी सिखा दी जिसकी उसने कभी कल्पना ही नहीं की थी।
घर आती है लौटकर जब भी काम से तो आज भी आदित्य की दीवार पर लगी तस्वीर से पूछती है- क्यों छोड़ गए ऐसे हालातों में जहाँ तुम्हें याद करने से ज़्यादा तुम्हारी कमी खलती है। किताबें खुली रहने देते मेरी अगर तो आगे की पढ़ाई मेरे वेतन में इज़ाफ़ा दे जाती।
ख़लिश तो ख़लिश है, इसे कौन पूरा कर पाया है। इंसान मजबूत होकर भी, दर्दों का साया है। चलता रहता है दुनिया के साथ फ़र्ज़ अदा करके। खुश रहने की क़ीमत चुकाता है दर्द भर के।
जैसे-तैसे मेहनत करके रूपक के आज दोनों बच्चे बड़े हो चुके है। कंधे तक पहुँच जाए जब बच्चे तो समझो उमर का तीसरा पड़ाव पूरा हो गया।
रूपक माँ के साथ पिता होने का फ़र्ज़ बखूबी निभाती है। बात अपनों पर हो तो ग़ैरों से लड़ जाती है। आँच न आये परिवार पर कई दर्द सह जाती है। कभी आसमां तो कभी फ़र्श बन जाती है।
और बने भी क्यूं ना, आख़िर औरत में भी कहीं ना कहीं एक आदमी छिपा होता है।
