हाथ किसका था?
हाथ किसका था?
ये कहानी है 1960 की जब यात्रा वाहन के नाम पर दादा जी के पास सिर्फ़ एक साइकिल हुआ करती थी!
अपने खेतों में दिन-भर की मेहनत के बाद रात को चारपाई सरका कर गहरी नींद में सो जाना और तड़के सुबह बिना अलार्म के ही उठ जाना हमारे बड़ो की ख़ासियत हुआ करती थी।
पाँच बच्चे और धर्म पत्नी को हर प्रकार की सुख-सुविधा उपलब्ध करवाना दादा जी अपना कर्तव्य समझते थे।
मौसम आया, उस वर्ष अच्छी खेती हुई तो जश्न मनाने के लिए दादा जी मटन ले आये। बच्चे बहुत खुश थे और उन्हें देख दादा-दादी जी भी बेहद प्रसन्न हुए। घर में ख़ुशी का माहौल था पर दादा जी की तसल्ली सबकी तरक़्क़ी, सबकी ख़ुशी और सबकी सोहलियत मे बसती थी।
अचानक, याद आया के सब इतना आनंद मना रहे है भोजन खाकर तो क्यों ना थोड़ा माँस अपनी बहन के यहाँ भी दे आए जो कुछ ही दूरी पर उसी गाँव में रहती थी। दादाजी ने धीरे से अपनी पत्नी के कान में पूछा के कुछ बचा है या ख़त्म हो गया ? दादी जी बोली बहुत है अभी तो… बाल-बच्चे सुबह भी खा सकते है। दादा जी ने कहा एक डोल में भरकर मुझे डाल दो। मैं बहिन के यहाँ दे आता हूँ। दादी जी ने फट तैयार करके दे दिया और कहा जल्दी आना रात बहुत हो चुकी है।
गर्मी के दिन और 10 बजे का वक्त था। गाँव में रातें अक्सर जल्दी हो जाया करती है। दादाजी ने अपनी साइकिल निकाली, डोल आगे के हैंडल में लटकाया और पैडल मारते हुए चल पड़े अपनी बहिन के मुँह का स्वाद बनाने के लिए….
जैसे जैसे आगे बड़े सुनसान सड़क, चारो तरफ़ अंधेरा और दोनों तरफ़ जंगल। बीच में जाता हुआ ऊबड़-खाबड़ सा एक कच्चा रास्ता।
दादा जी दिलेर थे। किसी भी अंधविश्वास में यक़ीन नहीं रखते थे। अगर करते तो उस रास्ते पर अकेले जाने की हिम्मत कभी ना करते। पूरे गाँव में वो मार्ग चर्चा का विषय था। वहाँ रात के समय कुछ ऐसी गतिविधियां होती थी जो भूत-प्रेतों की तरफ़ इशारा करती है।
बरहाल दादा जी अपने बहिन-प्रेम निभाने और समय से पहुँचने की कोशिश में ज़ोर-ज़ोर से पैडल चलाने लगे।
अचानक उनको लगा के जैसे किसीने उनको उनके नाम से पुकारा, पीछे मुड़कर देखा तो कोई नहीं था। कुछ और आगे जाने पर ऐसा महसूस हुआ के साइकिल को कोई पीछे धकेल रहा है, पीछे मुड़कर देखा तो कोई भी नहीं था। पैडल आगे की तरफ़ मारने की जितनी कोशिश करते थे उतने ही बल से साइकिल पीछे की तरफ़ जाती जा रही थी।
अब दिमाग़ ठनक गया। राम नाम को याद करते हुए अब वो बस अपनी मंज़िल तक जाना चाहते थे। अभी आगे बढ़ने ही लगे थे के फिर से एहसास हुआ के आगे का हैंडल किसी ने पकड़ रखा है जिसके कारण साइकिल एक तरफ़ा झुकती जा रही है।
चारों तरफ़ अंधेरा, पूरा शरीर पसीने में भीगा हुआ, गला सूख गया और मुँह से एक शब्द भी नहीं निकल रहा था।
झुकती साइकिल को बचाते बचाते ये चिंता भी थी के डोल मे रखी मांस की सब्ज़ी ना गिर। जाए। हड़बड़ाहट में साइकिल गिर गई और डोल दादाजी के हाथ में रह गया। अब तो बस आव देखा ना तांव दादा जी सरपट अपने घर की तरफ़ वापिस हो लिये। अभी साइकिल छोड़कर अपने घर की तरफ़ भागने ही लगे थे कि उनको लगा उनका डोल भी अब कोई छीन रहा है। आँखों पर बहुत ज़ोर डाला पर कोई दिखाई नहीं दिया। डोल भी छोड़ दिया।
जितनी गति से वह भाग सकते थे उस दिन वो भागे। उनको उनके नाम से लगातार कोई बुला रहा था पर इस बार वे पीछे नहीं मुड़े। फिर लगा के जैसे किसी ने उनकी पीठ पर हाथ रखकर उनको रोकना चाहा पर वो नहीं रुके और रुकते भी कैसे?
भागते-भागते उनके ज़हन में वो सब बाते घूमने लगी जो इस मार्ग के बारे में उन्हें बताई गयी थी पर उन्होंने ये सोचकर नज़र-अन्दाज़ कर दी थी के भूत-प्रेत जैसा कुछ नहीं होता।
राम नाम की माला जपते हुए वो जैसे-तैसे घर को पहुँचे। हाफ़ते हाफ़ते घर के अंदर आए और गहरी साँस ली।
वो यक़ीन ही नहीं कर पा रहे थे के आज उनके साथ कुछ ऐसा हुआ भी था। अपने आप को उन्होंने बहुत तसल्ली देने की कोशिश की, के ये भ्रम था पर नहीं था…
एक लौटा पानी पिया और सबको सोता देख ख़ुद भी चारपाई सरका कर लेट गए। उस रात राम जी की कृपा खूब बरसी उनके ऊपर। ऐसा मानकर वो सोने की कोशिश में लगे थे पर कुछ सवाल उनको सोने ही नहीं दे रहे थे!
शायद, भूतों को माँस बहुत पसंद है ऐसा मानकर वो सो गये।
सुबह कुछ देरी से उठे तो दादी ने पूछा कि साइकिल बहिन जी के यहाँ छोड़ आए क्या? दादाजी ने कोई जवाब नहीं दिया! बच्चो ने पूछा के बुआ ने हमारे लिए कुछ भेजा क्या ?
दादाजी चुप रहे और बच्चो को दूर कर दिया । दादी ने कहा पानी भर दिया है आपके लिये, आप नहा-धो लीजिए। जैसे ही दादा जी ने अपना कुर्ता उतारा तो दादी हैरान हो गई और ज़ोर से चिल्लायी के ये ‘हाथ किसका है?’
नीले रंग में वो हाथ का निशान दादाजी की पीठ पर मानो ऐसे छपा जैसे उन दिनों मेले में लोग tattoo बनवाया करते थे।
दादी जी की इतनी कोशिशों के बावजूद वो निशान नहीं गया। जो बात जो दादाजी किसी को नहीं बताना चाहते थे उनके पीठ पर बने निशान ने बयान कर दी। वो नीला निशान कैसे आया ये कहानी आज भी सवाल ही है क्योकि दादाजी विश्वास ही नहीं करते थे भूत-प्रेत में!
बच्चे जब भी ज़िद करते ये बात जानने की तो दादाजी ये सारी कहानी बच्चो को लफ़्ज़.दर.लफ़्ज़ सुनाते थे। बस शिक्षा बदल देते थे।
शिक्षा कुछ भी कही जाती… अंधविश्वास को बढ़ावा ही देती इसलिए उन्होंने शिक्षा दी के माँस- मच्छी अथवा माँसाहारी भोजन को आहार के रूप में स्वीकार नहीं करना है क्योंकि ये राक्षसों का भोजन है और हम इंसान है।
दादा जी को भाव रहा होगा के उस दिन अगर माँस की जगह शाकाहारी भोजन होता तो ऐसा नहीं होता।
राम जी ही जाने ये कहानी कितनी सच है या कितनी झूठ पर बताने वाले बताते है के दादाजी के आख़िरी समय में भी वो निशान उनकी पीठ पर था।