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Parul Manchanda

Thriller

4  

Parul Manchanda

Thriller

स्वर्ग के द्वार तक

स्वर्ग के द्वार तक

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हमेशा की तरह मृत्यंजय अपने दोनों हाथों की हथेलियों में लकीरें निहार रहा था। पढ़ने की कोशिश करते हुए ढूँढ रहा था उनमे अपना नसीब और पूछ रहा था ईश्वर से क्या कोई लकीर है जो स्वर्ग के धाम तक जाती मालूम हो! कोई नक़्क़ाशी जो आड़ी तिरछी लकीरों में उबर आये और बोल सके के नियती इस राह पर जाएगी ताकि वह सहज भाव से एक निश्चित मार्ग नियुक्त कर सके पर विधाता ने ये खेल अपनी मौज में आकर रचा है। यदि मार्ग निश्चित होते तो इंसान अहंकार और दंभ कि मूरत बन जाता। खेल का नियम ही यही है कि इंसान समय के हाथों की कठपुतली बना रहे। विधाता नचाते रहे और कभी धन्ना, कभी मीरा, कभी बुल्लेशाह तो कभी ख़ुसरो बनकर हम प्राणी मात्र नाचते रहे।


“चलते पानी में तस्वीर देखना कहाँ आसान होता है

वही होता है जहाँ में जो मंजूर.ए.ख़ुदा होता है।”


ईश्वर का अस्तित्व निश्चय ही बड़ा अचरज पूर्ण है।

जो उनके द्वार तक तो ले जाता है किंतु अंदर केवल वही प्रवेश कर सकता है जो सरल हो, ईमानदार, नेकदिल और ईश्वरीय भक्ति का उपासक हो। 

मृत्युंजय अपनी मृत्यु पर विजय पाने की कामना लिए अपनी साधना को परिपूर्ण करना चाहता था। उसका जीवन यापन इसी कामना के इर्द गिर्द घूमता रहता था।


जीवन में कई पहेलियों को बुझाते बुझाते उसने अपना एक परिपक्व अस्तित्व तय कर लिया था। उसके गुरु बृहस्पत उसके निर्वाह में उसका पूरा साथ देते थे। अल्पायु में ही प्राणयसूत्र बंधकर सुंदर सहभागिनी का साथ मिला। गुरु बृहस्पत की शरण में जाने के बाद उसे शिक्षा का कोई महत्व नज़र नहीं आता था अतः शिक्षा को त्याग कर साधना में लग गया। यद्यपि वह गृहस्थ था तदापि ईश्वरीय गुण की तरंगें निरंतर उसका हाथ थामे उसकी दिशा निर्धारित करती रहती थी।


साधना कठिन है, व्यक्ति ये राह चुनता तो स्वयं है परंतु मार्ग में आती प्रत्येक चुनौती उसे खर्च करती रहती है और दे जाती है सफ़ेद बाल, मुख पर आती झुर्रियाँ, शरीर में आती कमज़ोरी। फिर भी साधक उठ खड़ा होता है क्योकि उसे ज्ञात है ईश्वर साथ है, गुरु साथ है। हज़ार कमियों, कमज़ोरियो और विचलित मन लिए वह ढूँढ लेता है स्थिरता, ठहराव और संयम।


साधना करने का निर्णय मृत्युंजय ने स्वयं लिया था पर ठगिनी माया तो माया ठहरी भला भक्त की परीक्षा ना हो ऐसा कैसे हो सकता है। दस गुण छोड़ माया वार भी केवल उस एक कमजोरी पर करती है जहाँ साधक अभिमन्यु की भाँति चक्रव्यूह में फ़स तो जाता है किंतु निकल नहीं पाता।


मृत्युंजय को गहरा सदमा लगा जब उसकी कड़ी मेहनत और प्यार से पाली गाय ने ही उसे सींग मारकर धराशायी कर दिया। दुख इतना तन का ना था जितना मन को मिला। उसके सभी सगे संबंधियों ने उसका खूब परिहास किया।ये वही संबंधी थे जो गाय के आने पर मृत्युंजय की प्रशंसा करते ना थकते थे। इतना होने पर भी गाय पालन की कामना उसके हृदय से ना टली। तन पर लगे घाव देख उसके पिता वैद्य ने कहा कि साधना, गृहस्थ जीवन अपने स्थान पर है और शिक्षा का महत्व अपने स्थान पर, यदि गौ पालन सीखना है और जीवन निर्वाह सरल करना है तो पहले शिक्षा गृहण करनी चाहिए। अंधा और क्या ही माँगता। शिक्षा दो आँखों के समान है जो तन मन में ऊर्जा संचालन करने का कार्य करती है। 

अभी विद्यापीठ शिक्षा प्रणाली जाने की सोच ही रहा था के अचानक गाँव में घोषणा हुई कि विद्याचार्य शिक्षा वितरण हेतु अपना डेरा वही के गाँव में जमाएँगे। विद्याचार्य अपने वक़्त के निपुण, निर्भीक और साहसी आचार्य थे। दूर-दूर से शिक्षक उनकी शिक्षा प्रणाली का लाभ उठाने उनकी शरण में आते थे। 


विद्याचार्य मृत्युंजय के गाँव में पधारे। विद्याचार्य और उनके शिष्य यदा कदा अपनी विद्या का प्रसार करते हुए, मंत्रोच्चरण करते हुए गाँव में आकर्षण का केंद्र बन गए।

उनके शिष्यों को कब, कहाँ, कैसी और कितनी आवश्यकता है। इसका आभास उन्हें हृदय की तह तक होता था। जैसा शिष्य वैसा स्वभाव होता था आचार्य का।


गाँव में एक ख़ाली भूमि देखकर डेरा लगाया गया। दूर दूर से लोग ज्ञान अर्जन करने हेतु आने लगे। कुछ ज्ञान की आशा में, तो कुछ सेवा के लिए सभी ने अपना भरपूर समर्थन दिया।

इसी के साथ घोषणा की गई कि अमावस के अगले दिन जो भी शिष्य शिक्षा प्राप्त करना चाहते है उनके लिए विद्याचार्य शिक्षा प्रणाली के द्वार खुले हैं। 

फिर क्या था! अंधे को जैसे लाठी मिल गई। वर्षों पहले त्याग दी गई शिक्षा जिसका मृत्युंजय प्रतीक्षा कर रहा था उसके स्वप्न जैसे मोहिनी की भाँति उसके समक्ष नृत्य करने लगे।


मृत्यंजय को अपनी सहभागिनी को मनाने का ज़्यादा प्रयास ना करना पड़ा। उसकी जीवनसाथी जानती थी के उसके स्वामी के लिए शिक्षा गृहण करना कितना अनिवार्य है सो हर्ष सहित मृत्युंजय को विदा कर दिया।


शिक्षा का पहला दिवस, मृत्युंजय की स्वामिनी डेरे लगे स्थान तक विदा करने आयी। मिष्टी दोई ( मीठी दही) खिलाते हुए बोली, मेरे स्वामी अपने लक्ष्य में सहाई हो। मीठी दुआए और अंतर्मन में कुछ आकुलता लिये सहभागी को जाने दिया।

अतीत में जो हुआ( गाय द्वारा घायल) आगे ना हो ऐसा शुभाशीष देते हुए स्वामिनी अपने द्वार को लौट गई।

“पति-पत्नी के रिश्ते का सौंदर्य ही यही है, अपने जीवनाथी के मन की कभी मान भी ली जाये और कभी मनवा ली जाये।”


मृत्युंजय, शिक्षा प्रणाली के आँगन में पहुँचा तो पूर्णतया वही पाया जैसा सुन रखा था। देवी-देवताओं के चित्र, आसनों को सीखने के नए उपकरण, कुछ सीखने की इच्छा से तो कुछ दबाव में भर्ती हुए शिष्य। 

एक कोने में शिक्षा प्रणाली के बदलते नियमों पर विचार करते शिष्यों का समूह एकत्रित था और दूसरे कोने में कुछ वृद्ध सेवा के लिए अपना योगदान देने आये हुए थे।


मृत्युंजय को अंदर आते ही विद्याचार्य के दर्शन मिले। हतप्रध मृत्युंजय ने विद्याचार्य को दण्डवत प्रणाम किया। आँखों में चमक और मुख की आभा ऐसी थी मानो मृत्युंजय से अधिक प्रतीक्षा विद्याचार्य को हो और हो भी क्यों ना ! जितनी इच्छा शिष्य को रहती है गुरु धारण करने की, गुरु को शिष्य अपनाने की इच्छा उससे कहीं अधिक होती है।


आशीर्वाद देती आँखें, रुकते चलते कदम मृत्युंजय का स्वागत तो क्या ही करते। आते साथ विद्याचार्य ने अपना रुख़ शिष्यों की ओर कर लिया और उनकी समस्या का समाधान देने लगे। 

शांत मन और सहज भाव से मृत्युंजय ने शिक्षा गृहण करने के लिए अपना आसन लगा लिया। 

सुखद अनुभव, शांत चित, मुख पर अपने आदरणीय आचार्य से शिक्षा प्राप्त करने की मुस्कान मृत्युंजय को एक ही भावना में लेकर जा रहे थे कि उसकी शिक्षा यात्रा अब शुरू हो गई है। 

शिक्षा के सागर में उतरते ही उसे सागर की लहरों में तैरने की कामना जाग गई। यद्यपि कई निपुण विद्यार्थी वहाँ उपस्थित थे किंतु मृत्युंजय को अपनी कमाई साधना पर अंतहीन विश्वास था। 


विद्याचार्य ने शिक्षा का पहला उपदेश पूर्ण किया और प्रांगण में बैठे सभी शिष्य गुरु से वार्तालाप करने लगे।

मृत्युंजय ने बताया के उसने गुरु धारण किए हुए है। वर्तमान स्तिथि से अपरिचित विद्याचार्य ने मृत्युंजय के गुरु का नाम पूछा तो फट से उत्तर आया गुरु बृहस्पत। ये आवाज़ थी धनौन्नत की। विस्मित मृत्युंजय को भापने में जरा भी देर ना लगी कि धनौन्नत शिक्षा प्रणाली मे सेवा में कार्यरत है।


धनौन्नत के भी पहले गुरु बृहस्पत ही थे किंतु उसने भक्ति मार्ग की अपेक्षा कर ज्ञान को ही सर्वोत्तम मान लिया था।

“ माया है भी ठगिनी, ना लगे तो सिर मंडराती रहती है और यदि लग जाये तो हृदय को तब तक क्षीण करती रहती है, जब तक खून के आंसू ना रुला दे।”


बैठक पूरी होते ही सभी विद्यार्थी अपने निवास स्थान को जाने लगे।विद्याचार्य ने मृत्युंजय के समीप आकर पूछा के पहले दिवस भाषा समझने में कठिनाई तो नहीं हुई?

इतनी भीड़ में इतने शिष्यों के बीच स्वयं गुरु उससे ये प्रश्न पूछ रहे है। ये बात मृत्युंजय के मन को भा गई। मानो इसी समय की प्रतीक्षा थी के कोई सामर्थ्यवान उसके अशिक्षित हृदय को निश्चित दिशा दे। शिक्षा के माध्यम से उसे सही मार्ग दे।

धीमी मुस्कान के साथ मृत्युंजय ने कुछ ही क्षणों में विद्यापीठ चुनने का कारण और गौ द्वारा आघात होने का वाक्यांश आचार्य को संक्षेप में सुना दिये।


कारण ज्ञात होने के पश्चात विद्याचार्य विस्मित तो थे किंतु प्रसन्नता इस बात की थी कि मृत्युंजय विद्यापीठ की दहलीज़ पर खड़े थे। जो नियति पहले से तय कर चुकी थी।


घंटे की ध्वनि हुई और सभी अपनी सेवा में फिर से कार्यरत हो गए।

अपने सहज भाव के सागर में आनंद की लहरें समेटे मृत्युंजय को भी सेवा मिल गई। सहर्ष मृत्युंजय ने शिक्षा यात्रा ऐसे प्रारंभ की मानो कोई उत्सव हो। इसी उत्सव को आँखों में समेटे चैन की नींद में मृत्युंजय शीघ्र ही सो गया ताकि अगले दिन वह समय से पहुँचकर आगे का स्थान गृहण कर सके।


दूसरे दिन धन्नोन्नत ने मृत्युंजय के साथ आसन ले लिया और बात करते करते गुरु बृहस्पत के विषय में बताया की कैसे वह अपने विचलित मन से ग्रसित होकर गुरु बृहस्पत की शरण में गया था। 

मृत्युंजय ने गुरु की शरण छोड़ने का कारण पूछा तो रोब से उत्तर दिया कि अब धन कमाना और विद्याचार्य की सेवा ही उसका ध्येय है। 

मृत्युंजय निरुत्तर हो गया। मन में सोचने लगा कि विनाश काले विपरीत बुद्धि। उसने धनोन्नत को समझाने का अथाह प्रयास किया किंतु धनौन्नत अपने ज़िद्दी स्वभाव के कारण किसी की ना सुनता था। 

उसे अहम था कि विद्यापीठ उसके कारण चल रहा है। उसकी सेवा से विद्याचार्य प्रसन्न थे क्योकि उसकी शिक्षा अच्छी चल रही थी और अन्य विद्यार्थी भी उससे प्रेरणा लेते थे।


ये कहानी जितनी मृत्युंजय और विद्याचार्य की है उतनी ही धनौन्नत की है। धन्नौनत वह अभ्यस्त विद्यार्थी जो विद्याचार्य शिक्षा प्रणाली की नींव में सहायक था। 


गुरु शिष्य का रिश्ता समर्पण और विश्वास की नींव पर रखा जाता है। जब शिष्य अपना सर्वस्व त्याग गुरु की शरण में जाता है तो सीख लेता है सभी गुण जो शिक्षक देना चाहते है। असल शिक्षा की यही रिवायत है।

धन्नौनत के पास यह गुण था। वह संपूर्ण समर्पित था विद्याचार्य के प्रति और सेवा में कार्यरत।धनौन्नत निर्भीक और निसंकोची था। शिष्यों में खबर थी कि आचार्य का परमप्रिय शिष्य धनौन्नत है किंतु आचार्य जानते थे कि कौन शिष्य के क्या गुण स्वभाव है!

इसके विपरीत मृत्युंजय पहले से ही समर्पित गुरु का शिष्य था। स्वभाव से संकोची और उस पर अतीत के गहरे घाव। निर्भीक वह भी था लेकिन हृदय ना दुखे किसी जन का इसकी चिंता उसे खूब थी।

धनोन्नत ने लगातार प्रयास किए की वह मृत्युंजय के समीप आ सके किंतु मित्रता के संदर्भ में वह कछुआ था। वह जानता था कि मित्रता ज़िम्मेदारी है, करनी आसान है और निभानी मुश्किल।


धनौन्नत वहाँ उपस्थित प्रत्येक शिष्य के बारे में जानता था। विद्याचार्य के प्रति समर्पित था। शिक्षा को पूरे उत्साह से गृहण करने का जो भाव था वह किसी अन्य शिष्य में ना था। काफ़ी निपुण शिष्य भी वहाँ आते जाते रहते थे किंतु धनौन्नत का मानना था कि वह महत्वपूर्ण है।


मृत्युंजय सभी शिष्यों से कुछ ना कुछ सीख रहा था। देखा जाये तो मृत्युंजय और धनौन्नत में ज़्यादा अंतर ना था। दोनों के गुरु एक थे, शिक्षा गृहण करने की इच्छा दोनों की एक जैसी थी। दोनों वार्तालाप करना पसंद करते थे किंतु दोनों भूल गए थे कि शिक्षा प्रणाली विद्याचार्य की थी तो नियम और अनुशासन भी विद्याचार्य के ही लागू होने थे।


दिन प्रतिदिन शिक्षा वितरण होने लगा। मृत्युंजय भी अन्य शिष्यों के साथ घुलने मिलने लगा। मानो जैसे उसे कोई नया परिवार मिल गया हो। वार्तालाप के दौरान उसे पता चला कि विद्याचार्य की भी गौशाला है। ये सुनकर मृत्युंजय की ख़ुशी का ठिकाना ना था फिर तो आव देखा ना ताव मृत्युंजय ने खूब ज़ोर लगाया कि वह गौ दर्शन कर सके किंतु विद्याचार्य एक झलक दिखलाकर मृत्युंजय को वापिस शिक्षा प्रणाली स्थान पर ले आये। जब इसका कारण पूछा मृत्युंजय ने तो विद्याचार्य ने बताया कि फिर सभी शिष्य इसकी माँग करेंगे और वह यहाँ शिक्षा देने आये है गौदर्शन करवाने नहीं। 

हाँ, ये सत्य है कि शिक्षा धारण करने के बाद गौ पालन ही नहीं वरन् सभी का पालन करने मे मदद मिलेगी।

इतना सुनते ही विद्याचार्य ने अपनी इच्छा को किनारे कर दिया।

उसने आचार्य से कहा भी कि जिस दिन भी आचार्य गौ को लायेंगे तो पहली गौ सेवा वह स्वयं करेगा।

गायों के प्रति लगाव और आचार्य के प्रति सम्मान मृत्युंजय की आँखों में बह रहा था। 

बहना मृत्युंजय ने खूब सीख रखा था। मन का हो तो अच्छा और ना हो तो और भी अच्छा कहकर अपने मन को फिर समझा लिया।

प्रत्येक दिन विद्याचार्य की शिक्षा के साथ उसे विद्याचार्य के कई नये गुण ज्ञात हुए। विद्याचार्य की सात्विकता का पता लगने पर तो मानो मृत्युंजय के पैरो तले ज़मीन निकल गई हो। 

कलियुग में ऐसा आचार्य होना अपने आप में पुरुस्कार से कम ना था। स्नेह और सम्मान अभी कुछ ठोर पाकर टिकने ही लगा था के आचार्य की जेब से एक दिन रत्न गिर गया। मृत्युंजय की संवेदनाओं के भाव में जैसे बाढ़ आ गई हो। ये वही “प्रीत-रत्न” था जिसकी तलाश करते करते उसने सारे मोह त्याग दिये थे।


मृत्युंजय की सारी संवेदनाये उस एक रत्न पर टिकी रह गई। उसने कल्पना भी नहीं की थी कि जिस रत्न को पाने की इच्छा कभी बरसों पहले उसने ये सोचकर त्याग दी थी की ये केवल कल्पना मात्र है या किताबों में ही उस रत्न का विवरण मिलता है। वह कल्पना की अंधेर से निकल कर सत्य की तेज रोशनी बनकर उसकी आँखों में उतर जाएगा। 


मृत्युंजय का ईमान स्वयं से प्रश्न करने लगा! वह जानता था बेईमानी का सबब इसीलिए आँखें बंद कर प्रभु पुकार करने लगा। 

दोनों हाथ जोड़कर अपने गुरु से पूछा कि जब रत्न की कामना थी तो दिया क्यों नहीं और अब ऐसे वक्त पर रत्न दर्शन हुए जो ना तो माँगा जा सकता था और ना ही अपनाया क्योंकि वह आचार्य का था। शिष्य आचार्य से शिक्षा तो माँग सकता है माया किस मुख से माँगे?

माँगना तो दूर वह तो अतीत तक ना साँझा कर पाया कि इस रत्न का विद्याचार्य के जीवन में क्या महत्व है।

धनोन्नत ने बताया कि आचार्य आजकल तुम पर प्रसन्न है इसीलिए रत्न तुम्हारे लिए ही लाए थे,मृत्युंजय अपनी संवेदनाओं को हथेली पर सम्भाले अपने हृदय को संतुलित करता रह गया। 

उसे आभास था कि गौ दर्शन की एक झलक मात्र से जब विद्याचार्य पूरी तरह सहमत नहीं थे तो रत्न तो बहुत ही बड़ी बात थी। 

मृत्युंजय ने अपनी आँखें ऐसे बंद की जैसे बिल्ली को देखते ही कबूतर अपनी आँखें बंद कर लेता है। 

संसार कबूतर को दोष देता है किंतु मृत्युंजय कबूतर की इस आदत को संपूर्ण मानता है। कबूतर जीते जी अपनी उड़ान भरता है और मृत्यु के समय वह खेद करने की जगह आत्म आनंद में लबरेज़ रहता है। वह स्वयं से प्रेम करता है और अपनी इच्छा से मृत्यु को प्राप्त होता है।


मृत्युंजय ने अपनी आँखें विद्याचार्य की जेब से हटा ली। वह जानता था कि रत्न के मोह में पड़ कर कुछ हासिल नहीं होगा क्योकि वह किसी दूसरे की अमानत है। 

धनोन्नत ने फिर कहा कि वह रत्न तुम्हारे लिए ही था मृत्युंजय।

मृत्युंजय से रहा ना गया और आनन फ़ानन में सभी शिष्यों के बीच में ही आचार्य से पूछ बैठा कि वह रत्न किसका है? नियमानुसार जब रत्न निजी पूँजी थी तो प्रश्न भी निजी समय पर एकांत में ही पूछना चाहिए था किंतु विद्याचार्य रत्न देखकर इतना अचंभित था कि उसे कुछ सूझा ही नहीं। 

आस्था बड़ी संवेदनशील होती है। ख़ास्तौर पर तब जब हम अकेले ही अपनी राह पर चल रहे होते है। हम जानते है कि हम सही है पर अन्य व्यक्तियों का अविश्वास हमे मौन साधे रखने पर विवश कर देता है। मृत्युंजय आजीवन अपने अभिलाषियों और सहभागिनी से कहता रहा के प्रीत रत्न होता है और सात्विकता से लबरेज़ उसमे कई गुण होते है किंतु किताबी ज्ञान कहकर सदैव उसे टाल दिया जाता था। 

मृत्युंजय स्वयम् भूल चुका था कि अल्पायु में उसकी चाह थी की ऐसा रत्न कभी अंगूठी बनकर उसकी उँगलियों में भी जड़े। गौ द्वारा आघात होने के बाद तो जीवन में उसकी इच्छायें निमिष मात्र रह गई थी। ऐसे समय में रत्न दर्शन होना मानो जैसे ईश्वर ने व्यंग्य कसा हो मृत्युंजय पर और वो हस भी ना पा रहा हो। 

रत्न की देखरेख कितनी पीड़ादायक है इसका आभास मृत्युंजय को भली भाँति था। वो आचार्य के लिए और भी संवेदनशील और मार्मिक हो गया था।

मृत्युंजय के पूछने पर विद्याचार्य ने बताया कि ये रत्न उनकी सहभागिनी का है और उसने ही आचार्य को भेंट स्वरूप दिया है। आज्ञाकारी होने के नाते विद्याचार्य ने हाँ में हाँ तो मिला दी किन्तु अंदर ही अंदर उसे ये बात कचोटने लगी।

बरहाल वह शिक्षा गृहण करने आया था, रत्न की लालसा में नहीं सो निश्चित दिन की शिक्षा पाकर अपने रास्ते हो लिया। 

उधर विद्याचार्य को मृत्युंजय की बाते अच्छी ना लगी। पहले गौ दर्शन की इच्छा फिर रत्न दर्शन। विद्याचार्य ने शिष्यों से शिक्षा के अतिरिक्त सभी वार्तालाप त्याग दी। 

ठीक भी था… विद्यापीठ पर बैठे आचार्य का कर्तव्य भी यही कहता है। 

इधर गौ दर्शन की इच्छा और प्रीत रत्न की लालसा ने मृत्युंजय की नींदे उड़ा दी। सुबकुछ ज्ञात होने पर भी बुद्धि ऐसे फिरी मानो पढ़े लिखे व्यक्ति को अनपढ़ता के राक्षस ने घेर लिया हो। मन समझाए नहीं समझ रहा था और अंततः मायूस भरे हृदय से मृत्युंजय ने विद्याचार्य को बताने का निर्णय किया। 

विद्याचार्य के आश्रम के बाहर प्रतीक्षा में खड़ा मृत्युंजय उस दिन देर तक आचार्य के बाहर आने की प्रतीक्षा करता रहा। आचार्य ने शिष्य से कहलवा भेजा कि कोई आवश्यक सूचना है तो पत्र पर लिख कर अंदर भिजवा दें किंतु हठी मृत्युंजय को कुछ ना सूझा। वो आचार्य को स्वयं अपना अपराध व्यक्त करना चाहता था। 

शिष्य के लिए आवश्यक है आज्ञाकारी और समर्पित होना। गुरु शिष्य के बीच लालच शोभा नहीं देती। 

उस दिन चार घंटे प्रतीक्षा करने के बाद आचार्य अपने कक्ष से निकले और विद्याचार्य से पूछा कि कहो क्या बात है।

कानों से निकलती गर्म हवाए, काँपते हाथ, लड़खड़ाती ज़बान क्या ही अपना अपराध व्यक्त करती! 

अभी मृत्युंजय शब्दों का चयन ही कर रहा था कि विद्याचार्य की कक्षा का समय हो गया। मृत्युंजय ने कहा कि आप चले जाइए हम बाद में भेंट करेंगे किंतु उनको आभास था कि मृत्युंजय बहुत अधिक समय से प्रतीक्षा कर रहा है तो उन्होंने मृत्युंजय को बात करने के लिए कहा। अधीर मृत्युंजय ने भी ना भूमिका बांधी ना संवेदना प्रकट की। दो टूक में हाल बता दिया। उसने कहा कि आचार्य की मुझमें रत्न की लालसा है और वह जानता है कि ये ग़लत है और उसकी सुई ग़लत पर अटक गई है। 

विद्याचार्य शिक्षा देने जा रहे थे ऐसे में उन्होंने भी मौन साध लिया। मृत्युंजय ने बताया कि आचार्य आपको बताने का लक्ष्य आपको चिंतित करना नहीं वरन् निवारण लेना है। आचार्य ने भी सहमति जतायीं किंतु मुख से अधिक कुछ ना बोले!


मृत्युंजय मन ही मन :

“बहुत देर लग जाती है आने में,

बहुत दूर तलक जाते है जब…

सुबह के भूले शाम तक आने में,

आ जाये जो रस्ता भूले है अब…”


ये वचन जितने आचार्य की प्रतीक्षा में आचार्य के लिए थे, उतने ही मनों मन स्वयं के लिये भी थे।

एक तरफ़ मृत्युंजय की नज़र आचार्य के शब्दों पर थी दूसरी नज़र कक्षा पर जहां आचार्य को जाना था । वह शिक्षा प्रणाली के नियमों का बहुत आदर करता था। उसे अपराध बोध होने के साथ साथ अन्य शिष्य का समय लेने की भी चिंता होने लगी सो तुरंत वहाँ से जाने का निश्चय किया और दो दिन शिक्षा प्रणाली से अवकाश माँग लिया। 

हालाँकि आते समय मृत्युंजय को मलाल था के आचार्य के शब्द आज उसके लिए कम क्यूं पड़ गये। फिर हमेशा की तरह ईश्वर की नियति मान उसने अपना रास्ता नाप लिया। 

रास्ते में दर्पण देख तर्पण हो गया। स्वयं से सवाल करने लगा क्या इसी दिन के लिए शिक्षा गृहण करने घर से निकला था। आजीवन ईमानदारी पर जीने वाला मृत्युंजय का ईमान कैसे डोल गया ? दर्पण में प्रश्नचिन्ह के अलावा उसे कुछ ना दीख पड़ता था सो कुछ दिनों कि लिये दर्पण से किनारा कर लिया। 

उसने ईश्वर की परीक्षा समझ कर….ये दौर भी गुज़र जाएगा ऐसा मान अवकाश में मिले दो दिन उसने ध्यान में बिताने का निर्णय लिया। 

जब तक मन स्थिर ना हो, ध्यान कैसे ही बन सकता है। ध्यान तो त्याग माँगता है, निश्चल प्रेम की परिपाटी पर खड़ा ईश्वर की प्राण प्रतिष्ठा है। आस्था की परीकाष्ठा है। मृत्यंजय मोह से ग्रसित अपने मन में आये अभिमान को कोसने लगा। इतनी साधना के बाद भी मन का डोलना उसके साँस में अवरोधक बनने लगा। जैसे भोजन गृहण करते समय कोई निवाला गले की फाँस बन गया हो। जो ना निकालते बनता है और ना पचाने योग्य ही था। रत्न की आभा उसकी आँखों के आगे से जाने का नाम ही ना ले रही थी। उसकी सहभागिनी ने कई बार कारण जानने की चेष्टा की किंतु अपराध बोध में बंधा मृत्युंजय अपनी भार्या को ही कोसने लगा,” सब तुम्हारा किया धरा है, मिष्टी दोई लग गई है तुम्हारी” ऐसा कहकर मुँह फेर लिया। 

सहभागिनी अपने धर्म की पक्की और स्वामी की सेविका थी, प्यार में आकर बोली ,”आप तो ऐसे कह रहे है जैसे मिष्टी दोई ना हो कोई बुरी नज़र हो।”

“बुरी नज़र से भी बुरी है तेरी मीठी दही, आज के बाद ना खिलाना बस कह दिया।” इतना कहकर आकुल मृत्युंजय फिर से शिक्षा प्रणाली के आँगन में जा बैठा। मन ही मन विद्याचार्य से क्षमाप्रार्थी भाव में अपना ध्यान शिक्षा की ओर टिकाए। आचार्य के लिए ये कोई नई बात ना थी। जाने कितने मृत्युंजय इस प्रांगण में आए और गए। 

वार्तालाप ना जाने कितनी उलझी गुथियो को सुलझा लेती है किंतु वार्तालाप का सही समय पर होना बहुत आवश्यक होता है। यद्यपि मृत्युंजय विद्याचार्य के रत्न का सिद्धांत उसी समय पूछ लेते तो आज अपराध बोध से भरे ना होते। वार्तालाप करने के लिए हमेशा शब्द कम ही पढ़ते चले गये। बात २ व्यक्तियों द्वारा लिया गया निर्णय या सुझाव होता है किन्तु इस वार्तालाप में केवल एक व्यक्ति और स्वयं उसका मन था सो अनंत विचारों को कभी किनारा मिला ही नहीं। 

धनौन्नत का बार बार जताना की रत्न मृत्युंजय के लिए है, उसकी साधना को दुर्बल बनाता गया। दोष धनौन्नत का ना था वह तो अपने स्वभाववश था। विद्याचार्य का सेवक जो था। रत्न की रक्षा का दायित्व उसने अपने कंधे पर ले रखा था। वह तो केवल मृत्युंजय के मन को टटोल रहा था। वह नहीं चाहता था आचार्य की किसी भी संम्पति पर मृत्युंजय की नज़र पड़े। इधर मृत्युंजय अपने पर पड़ी नज़र को उतार फेकना चाहता था चूँकि अतीत की एक गहरी छाप मृत्युंजय के जीवन का हिस्सा थी। मृत्युंजय अस्थिर हो गया। 


धनौन्नत, मृत्युंजय अपने सहपाठियो के साथ विद्याचार्य के साथ अभ्यास कर ही रहे थे के धनौन्नत अपने स्वभाव वश फिर पूछ बैठा की आचार्य आज रत्न के बारे में कुछ बताइए।

ये शब्द सुनते ही मृत्युंजय के हृदय पर फिर से वैसा ही आघात हुआ जैसा गौ द्वारा मिली पीड़ा होने पर हुआ था। ईश्वर की तरफ़ याचना करता हुआ मृत्युंजय याचक की भाँति केवल अपने मन की शांति माँग रहा था। उसने सुना था कि जल मन को स्थिर रखता है सो जल पर जल पीता रहा और धनौन्नत- विद्याचार्य की वार्तालाप मौन रहकर सुनता रहा। 

हृदय अकंपित था। मुख शब्द रहित । मन क्षमाप्रार्थी और आँखें ईश्वर को निहार रही थी जैसे राधा मोहन को गोकुल छोड़कर ना जाने देना चाहती थी किंतु धर्मपालन के लिये रोक भी ना सकती थी। एक गोपी ने आजीवन प्रतीक्षा साध ली और चोखट पर खड़ी नित अपने कृष्णा की बाट जोहती थी। ठीक वैसे मृत्यंजय हृदय की चोखट पर तो खड़ा था पर भीतर जाने का साहस उसमे बिलकुल नहीं था। ये चोखट बार बार उसे स्वर्ग के धाम की याद दिला रही थी। इतना ही फ़र्क़ था इस चोखट और स्वर्ग के द्वार में…. वहाँ ईश्वर के द्वार को खटखटाना होता है और यहाँ दहलीज़ लाँघें नहीं लंघती।

वह अपने पहले दुस्साहस के लिए ही अपराध बोध में तो था पर उसे गर्व भी था अपने साहस पर की वह अपने मन की कह पाया आचार्य से इसके विरुद्ध आचार्य मौन ही रह गये। उनमें साहस ना था रत्न के भेद प्रकट करने का। धनौन्नत के हठ को देखकर मृत्युंजय और भी साहस से भर जाता था। अगर रत्न आचार्य के पास था तो उसका भेद धनौन्नत ने मृत्युंजय को क्यों दिया? 

आचार्य को स्वयम् भेद प्रकट करना चाहिए था और अगर रत्न आचार्य का नहीं था तो धनौन्नत ने इस विषय को असमंजस में क्यों रखा? 

मृत्युंजय को धनौन्नत की भाँति सेवा की अपेक्षा थी किंतु किसी का जी जलाना धर्म के विरुद्ध है, इसीलिए पीछे हट गया और किनारा कर अपनी गौ सेवा और उसके पालन के बारे में सोचने लगा। अतः दूसरे गाँव जाकर २ गाय ले आया और गौ सेवा में लग गया।


गौ माता के घर आते ही जल की भाँति शांत हो गया मृत्युंजय का हृदय और कई रातों के बाद चैन की निन्द्रा सो सका। ईश्वर का धन्यवाद देता नहीं थक रहा था उसका मुख। सहभागिनी भी खुश थी अपने स्वामी की प्रसन्नता को देखकर। उस रात मृत्युंजय ने एक स्वप्न देखा।

              ( कहानी जारी है।)


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