मायका
मायका
"रिक्शा रोकना, जरा!”
भाई को राखी बांधकर वापस लौटते समय गुमसुम नंदिनी अचानक बोल पड़ी तो पतिदेव चौक उठे। “क्या हुआ, कुछ भूल आई क्या?”
पति कुछ और बोलते, तब तक रिक्शा रुक गया था। किसी जादू के वशीभूत सी नंदिनी रिक्शे से उतरी, और कुछ ही पलों में वह रेलवे पटरी के उस पार, बरगद से बिल्कुल सटे हुए एक खाली प्लॉट में खड़ी थी।
अवाक पति भी लगभग भागते हुए उसके पीछे-पीछे वहां आ पहुंचा। “क्या बचपना है, नंदिनी?” घड़ी की तरफ़ नज़र डालते हुए पति ने झुँझलाते हुए कहा, “ट्रेन छूट जाएगी… समय हो गया है!”
पर, नंदिनी तो जैसे किसी और लोक में थी। वह वहीं नीचे बैठ गयी, और दोनो हाथों से ज़मीन सहलाने लगी। उसकी इस हरकत को देख कर अब पति का पारा चढ़ गया।
नंदिनी को झंझोड़ते हुए भड़का “तुम ये कर क्या रही हो?!”
जवाब में नंदिनी की आँखे भर आईं। अब भी वह कुछ न बोली बस ज़मीन सहलाती रही।
“अचानक तुम्हें हो क्या गया है, नंदिनी?" पति की आवाज़ में परेशानी थी।
“ये… ये वही प्लॉट है जो बाबा के बाद हम दोनों बहनों को ब्याहने के लिए... भैया को बेचना पड़ा था,” नंदिनी बमुश्किल बोल पाई।
उसका जवाब सुनकर पति सकपका गया। वह कुछ बोला तो नहीं, पर नंदिनी की बांह पर से उसकी पकड़ कमज़ोर जरुर हो गई।
“माँ यहाँ अपना घर बनाना चाहती थी।” एकाएक नंदिनी ने वहीँ पास पड़ी हुई सूखी लकड़ी उठाई, और प्लॉट के दूसरे छोर पर जा खड़ी हुई।
पति हतप्रभ उसे उस ओर जाते हुए देखता रह गया।
“ये, यहाँ पर माँ की रसोई… यहां पूजाघर... ये माँ-बाबा का कमरा, ये भैया का कमरा!” प्लॉट के छोर से लकड़ी से भुरभुरी मिट्टी पर नक्शा उकेरती हुई वह पीछे खिसकती आ रही थी। "और ये रहा हम दोनों बहनों का कमरा…” इससे आगे वह कुछ कहती, कि पति से टकरा जाने से वह लड़खड़ा गयी।
पति ने फौरन उसे अपनी बाँहो में सम्हाल लिया। “चलो, नंदिनी, यहां से चलो। अब न माँ है, न बाबा रहे। और ये प्लॉट भी अब तो अपना नहीं है।” पति ने नंदिनी को अपने सीने में समेट लिया।
“सब समझती हूँ, पर... ज़रा सा रुक जाओ, न! दो पल… बस दो पल इस मायके का सुख और ले लूँ।” बुदबुदाते हुए, दोनों मुट्ठियों में प्लॉट की मिट्टी समेटे नंदिनी की नजरें ज़मीन में उकेरे नक़्शे में मायका तलाशती जा टिकी।