माफ़ीनामा
माफ़ीनामा
बात चंद दिनों पहले की ही है। यही करीब 5 या 6 दिन पहले की, पर बात ऐसी कि दिल पे गहरी छाप छोड़ गई और सबक दे गई । दरवाज़े पर दस्तक हुई । वक़्त शाम के करीब 5 बजे। दिन भर के कार्य से थके होने के कारण मैं प्राय: कोशिश ये करती हूँ कि अपने शरीर और अपने मस्तिष्क को थोड़ा आराम दे सकूँ । अत: अपनी दोनों छोटी बच्चियों को लेकर दोपहर 3:30 बजे तक एक नींद लेने की कोशिश तो करती ही हूँ। वो बात अलग है कि कभी कामयाब हो पाती हूँ तो कभी नहीं भी। फिर भी 1:30 से 2 घन्टे का समय खुद के शरीर को आराम के लिए दे ही देती हूँ, मस्तिष्क हालांकि अमूमन तौर से जागता ही रहता है । फिर 4:30 से 5 के बीच पैसे से थोड़ी माज़ूर एक औरत मेरी सहायता के लिए आ जाती है जिसे दुनिया मेह्तरानी, बाई इत्यादि नामों से जानती है । खैर, मैं उसको बाजी और मेरे बच्चे आंटी कहकर पुकारते हैं और वैसा ही व्यवहार भी रखते हैं । वो हमारा बहुत सा काम कर देती हैं मसलन झाडू, पोछा, बरतन, सफ़ाई, जिसके एवज़ में हम उनको कागज़ के चंद टुकड़े देते हैं। खाना मैं स्वयं बनाती हूँ और गरम गरम उनको भी परोसती हूँ और फिर खुद खाती हूँ। किसी त्योहार पर या फिर कभी यों भी, उनको त्योहारी के नाम, कभी कैसे तो कभी कैसे जितना मुझसे इस महंगाई के दौर में मुमकिन हो सकता है, उतना करती हूँ।
खैर, बताया मैंने आपको कि अभी उस दिन करीब 5 बजे दरवाज़े पर दस्तक हुई। मैं तो सोई हुई थी, मस्तिष्क एक गृहिणी का पर कभी पूर्णतया:सो नहीं सकता। बाजी के ही आने का वक़्त था। शायद एक खट की आवाज़ में ही मैं झट से बिस्तर से कूद पड़ी। दरवाज़े पर किसी को इन्तज़ार कराना मुझे हमेशा से ही बड़ा अमानवीय सा लगता है। फिर सबसे बड़ी बात ये कि अगर दरवाज़े पे वो आपकी काम करने वाली बाई हो। कहते हैं एक स्त्री अपने शौहर से भले ही सप्ताह भर दूर रह ले पर अपनी काम वाली के बिना एक वक़्त भी नही। बात मज़ाक की नही है, उसके कई सारे स्वाभाविक कारण भी हैं । खैर उनको यहाँ चर्चित करना मक्सद नही है मेरा। जितनी छोटी से छोटी आँख खुल सकती थी मेरी, बस उतनी ही आँख खोलकर मैं बाहरी फाटक खोलने गई । पर ये क्या? छोटी छोटी आँखो से एकदम नज़दीक जाकर पता चला कि बाजी तो थीं नहीं वो, कोई 14-15 बरस की लड़की भीख मांगने खड़ी थी। उसकी अच्छी खासी कद काठी और भीख मांगते देख और कुछ नींद में दखल पड़ने के कारण भी कुछ चिड़चिड़ाहट सी हुई। मैंनें बोला कुछ काम करो तो दूँ पैसा। घर में मेरे बाहर 4 -4 गाड़ियाँ खड़ी रहती हैं। सब हमारी नहीं हैं। मकान में हमारे अलावा ऊपर स्वयं मकान मालिक का परिवार और ऊपरी तल्ले पर अन्य किरायेदार भी रहते हैं । तो कीचड़ मिट्टी के मौसम में बार बार गाड़ियों के अंदर बाहर होने के कारण धूल मिट्टी रहती ही रहती है। सो मैंनें कहा इसको झाड़ दो। फाटक मे मेरे जाली लगी हुई है । बड़ा शानदार स्टील का बड़ा सा फाटक लगवाया हुआ है मेरे मालिक मकान ने। मकान भी खूबसूरत है । पूरी कॉलोनी में सबसे बेहतर दिखाई देता है । खैर मैंने केवल मकान की बात की। घर का तो मुझे ज़्यादा अंदाज़ा नहीं कि किसका सबसे खूबसूरत है । कहाँ आज के दौर में लोगों ने ज़्यादा आना जाना बना रखा है? जाली से झाँकते हुए वो बोली, बस यही इतना करना है? हालांकि मेरा मक्सद उससे काम कराने का तो था नहीं। पता नही क्यूँ झुंझलाहट में बस पूछ लिया था मैंने कि देखूं वाक़ई ज़रूरतमंद है या बस आदतन भीख मांग रही है । बिना उसकी बात का कोई जवाब देते हुए मैंने उससे पूछ लिया कि कुछ खाओगी? खाना दूँ? और उसने कहा हाँ, ठीक है, दे दो। पर अब मकान माल्किन मेरी बड़ी सचेत औरत है । घर में मेरे या अगर उनके किसी भी अन्य किरायेदार के एक कील भी ठोंक दो, तो उनके कानों मे भनक अवश्य पहुंच जाती है ।और ताज्जुब तो ये कि कार्य करने की इधर आप बस सोचो ही, और उनको खबर पहले। मैं कोई ये उनकी बुराई में नहीं कह रही, बल्कि अच्छी बात है। आज का जैसा माहौल चल रहा है, व्यक्ति को सजग होना ही होना चाहिए। मेरा जैसा मूर्ख नहीं कि जो सोचे भलाई करने वाले भलाई किए जा, बुराई के बदले दुआएँ दिए जा। पर क्या करुँ, अब मिज़ाज है ऐसा, तो है । जो माँ बाप को हमेशा जैसा देखा पाया, वही खून में आ बसा । अब माँ खुद ही समझाती है कि बेटा अब इतना सीधा बन के रहने का दौर नही है, थोड़ी तेज़ी लाओ अपने में। अब इस दुविधा में तो दिमाग की नसें उलझती रहती हैं पर खून में जो है, लड़ झगड़ के जीत उसी की हो जाती है। खैर मुझे पता था कि आंटी, हमारी मकान माल्किन इस बात पर राज़ी होंगी नहीं कि मैं उसको उनके दरवाज़े पर खाना दूँ। वो पहली मंज़िल पर रहती हैं और हम ग्राउंड फ्लोर पर। और ऊपर अन्य किरायेदार भी हैं । उनके पोर्च से नीचे का फाटक दिखता है और आने जाने वालों की खबर भी। सो मैंने चुपके से दरवाज़ा खोल उसको अंदर बुला लिया। और तो और, बाहरी कमरे का दरवाज़ा तक खोल दिया उसके लिए, जो हमारा अतिथि कक्ष है । पहले तो वो सकुचाई, बोली ठीक है, मैं यहीं बैठी हूँ। फिर मैंने ही बोला कोई बात नहीं, भीतर आ जाओ। उसने अपने हाथ मे दो कपड़ों की गठरी पकड़ी हुई थी। एक में कुछ कम मालूम पड़ रहे थे और दूसरे में कुछ ठीक ठाक। उसने दोनो गठरियाँ और अपनी चप्पल बाहरी कमरे के बाहर ही उतारी और अंदर दाखिल हुई। आते ही उसने प्रश्न किया दीदी आप यहाँ अकेली ही रहती हैं? मेरे दिमाग में झन्न से कुछ हुआ। सब बताते समझाते रहते हैं कि ये सब बड़े बदमाश होते हैं । पता लगाते हैं फिर लूट ले जाते हैं। इनको दूर से ही भगा दिया करो। पर मैं तो मौला अली को मानने वाली, जो खुद कई कई दिन भूखे रहकर भी, कोई आ जाए तो अपना खाना दे दिया करते थे। फिर मुहर्रम का शोक भरा महीना। रोज़ रोज़ की मजलिसों का क्या फायदा जब उन पर अमल ही ना करो। बच्चियाँ मेरी अभी भी दोनों सोई हुई थीं। शौहर मेरे अभी ऑफ़िस से लौटे नहीं थे। बाजी भी अभी तक आयीं थी नहीं। मैंनें झट से जवाब दिया नहीं, अकेले नहीं रहती हूँ।मैंने बोला यहीं बैठो, मैं अभी खाना लेकर आती हूँ। मैं रसोई में गई। बाक़ायदा खाना गरम करने लगी। रसोई की खिडकी मेरी बाहर के दरवाज़े की तरफ़ ही खुलती है। मैंने देखा वो फिर बाहर अपनी गठरी के पास आ गई। खिडकी से ही मैंने पूछा, अब क्या हो गया? बैठो वहीं। बोली, अपने कपड़े बांध लूँ दीदी। बस, ठीक उसी पल में मेरी समझदार सचेत मकान माल्किन आंटी ऊपर से चिल्लाते हुए बोलीं....शान! (शान मेरा नाम है) उनकी नज़र ऊपर से उस लड़की की पोटली, या चप्पल या खुद उस लड़की पर पड़ गई थी। शान! किसको अंदर घुसाई हो? बाहर निकालो उसको। और फिर उसको डांट के या चिल्ला के, कुछ अजीब ही ढंग से उसको बाहर किया। बाजी भी पहुँच गईं। बिटिया भी उठ गई। और सबसे ज़रूरी बात, खाना भी गरम हो गया। ऊपर आंटी गुस्सा करने और चिल्लाने में लगी थी और मैं कानो में तेल डाल, खाना परोसने में। बाहर ही बैठ पर उसने खाना तो खा लिया। ऊपर आंटी के प्रवचन चल रहे थे और अब घर पहुँच चुकी बाजी के अनुभव और आँखों देखे हाल। आजकल लोग बच्चों को इसी तरह अगवा किए ले जा रहे हैं। कुछ सुंघा के घर लूट ले जाते हैं और भी बहुत सारी हक़ीक़त बातें। पर मुझे उसको खाना खाते देख कुछ तस्कीन भी थी। खैर मैंने बोला उसको कि गन्दगी मत करना और खा पी के साफ़ कर देना।
खैर हमारी मंडली अंदर थी और वो बाहर। थोड़ी देर बाद मैं बाहर गई तो देखा वो जा चुकी थी, खाने वाले बर्तन और पानी की बोतल के साथ। खाना सब यहाँ वहाँ जैसा तैसा खाया गिराया छोड़कर । पर फिर भी मैंने तसल्ली कर ली। आंटी को थोड़ा और जोश आ चुका था कि देखा मैंने कहा था ना कि ऐसे ही होते हैं ये लोग, जैसे मानो कोई बहुत बड़े अनुभव की जीत हो गई हो। बाजी ने पहले ही हाथ खड़े कर दिए कि मैं साफ़ नही करूँगी। थोड़ा गुस्सा उनको उनकी बोतल दे देने का भी था। खैर मैंने और उन्होने मिलकर सफ़ाई कर दी। अब वक़्त था इनके ऑफ़िस से वापिस आने का। मैं पहले ही मना कर चुकी थी कि इस बात का अब इनसे कोई तस्किरा करेगा नहीं। ये आए। सलाम दुआ हुई। कुछ थोड़ा बहुत खाते हैं ये वापिस आकर। दिया। फिर इरादा था ससुराल निकलने का। मुहर्रम की मजलिसों के कारण। धोबी के यहाँ से कपड़े अभी तक वापिस आए नहीं थे। बस इन्ही गृहस्ती में अभी उलझी ही थी कि मोबाइल का कुछ काम आन पड़ा। अब फ़ोन मिले ना। इनके नम्बर से घंटी करो तो कोई उठाए ना। अब दिमाग ठनका। समझ आ चुका था कि वो पोटली में कपड़े नही, मेरा मोबाइल बांध रही थी उस वक़्त। सीधे मैं दौड़ी ऊपर वाली आंटी के पास। बताया, आंटी वो ले गई मेरा मोबाइल। अब उनकी आवाज़ में गुस्सा नही, नर्मी थी, समझाईश थी, और सांत्वना भी। मैंने पहले ही बताया वो बहुत होशियार हैं। एक पता बताते हुए बोलीं वो कि ये मांगने वाले यहीं से आते हैं। जाओ देख लो, अगर पहचान पाओ तो। अब तो इनको सब बताना ही था। और इनका गुस्सा भी जायज़ कि तुमको कितनी बार मना किया कि बाहरी कमरा बंद रखा करो, पता नही क्यूँ खोले रखती हो? अब इनको कौन बताए कि ये तो खासतौर से मेहमाननवाज़ी के लिए ही खोला गया था। खैर जैसी उम्मीद थी,वही हुआ। इन्होने इन्कार कर दिया जाकर ढूंढने से। अब बेचारे अंकल आंटी मुझको लेकर निकले। ग्लानि इतनी थी की बता नहीं सकती। रस्ते भर सोच रही थी कि अगर मिल गई और ना लौटाया तो मैं भी आज तेज़ी दिखाऊंगी ज़रूर और दो तीन थप्पड़ भी मारूंगी और अगर लौटा दिया तो समझाईश ज़रूर दूँगी। एक टीचर रही हूँ तो ये तो आदत में शुमार है।आस पास के जितने डेरे छान सकते थे, शाम से लेकर रात के अंधेरे तक हम ढूंढते रह गए।
मोबाइल तो खैर ना मिलना था तो ना मिला, ना मिली वो लड़की। पर उनके डेरों का, झुग्गी झोपड़ का भी जो अनुभव रहा, वो भी कभी ना कभी लिखुंगी ज़रूर। हम भले ही जितना नाक मुँह बनाकर निकल लें पर बहुत खूबसूरत होती है इनकी दुनिया भी। इरादा किया अब एफ आई आर लिखाई जाए। पर रात हो चुकी थी, बच्चियाँ भी अपने पापा के पास अकेले थीं काफ़ी देर से, ससुराल की भी रवानगी थी। हम वापस लौट आए। दरवाज़े पे पहुँचते ही छोटी से बड़ी पर छोटी ही है, बिटिया बोली, "मम्मा, आपका मोबाइल मिल गया।" कमरे मे आई, शौहर लैपटॉप खोले बैठे मुस्कुरा रहे थे। फ़ोन मेरा साईलेंट मोड पर था। घर पर ही मौजूद था। कुछ कहने की स्थिति में मैं थी नहीं। ऊपर आंटी अंकल को ज़हमत देने के लिए सॉरी बोला। ससुराल निकलने की तैयारी की। पूरे रस्ते बस सोचती रही कि मैंने आखिर किया क्या? फ़ोन तो मेरा पहले भी बहुत बार नहीं मिलता था, लोग भी आते जाते रहते हैं, पर यकीं रहता था कि घर पर ही बच्चियों ने कहीं इधर उधर रख दिया होगा। कभी कभी तो घंटों घंटों नहीं मिलता था तब भी परेशान नहीं होती थी। फिर उस दिन मुझे अचानक से क्या हो गया कि मैंने एक बार भी ढूंढना ज़रूरी नहीं समझा।
आप सब सोचिए कि लोगों की लगातार कही जाने वाली बातें आपके मन मस्तिष्क को कितना प्रभावित कर सकती हैं? मुझ जैसी मज़बूत दिल वाली लड़की को भी बहका सकती हैं। बातें जादू कर सकती हैं । अच्छे भले व्यक्ति को पागल और एक मरीज़ को ठीक कर सकती हैं। ये दुनिया हमसे है। लाख बुरे हों लोग, हमें उनकी रंगत में नही रंगना है। हमें लोगों पर भरोसा करना होगा। ठगे जाने के भय से इंसानियत नहीं छोड़ सकते हम। जो जैसा है, उसको रहने दीजिए वैसा। आप तो अच्छे रहो, मैं अच्छी रहूँ। ईश्वर का शुक्र है कि वो बच्ची मुझे मिली नहीं, क्या पता मैं एक निर्दोष का कैसे दिल दुखा देती। ईश्वर ने भी मेरा इम्तिहान लिया कि मेरी नेकी को मेरे दिल से परखा। मेरी ये कहानी, मेरी उस लड़की से एक #माफ़ीनामा है। जानती हूँ उसको किसी तरह का कोई नुक्सान तो नहीं पहुँचाया पर उसके प्रति अपने दिल मे शक तो पैदा किया। अपने दिल में तो उसे कुछ पल के लिए ही सही, पर दोषी तो ठहराया। चाहती हूँ कि आप सब मेरी इस कहानी को ज्यादा से ज्यादा लोग पढ़ें जानती हूँ, उस तक ये बात कभी नहीं पहुँच पाएगी क्यूंकि वो हमारी आपकी तरह पढ़ी लिखी नहीं होगी, मोबाइल चलाना नहीं जानती होगी, पर फिर भी लोग अपना आंकलन करें, इंसानियत बनाए रखें, अपने दिलों में हमदर्दी जगाए रखें।