लकीरें
लकीरें


"माँ मैं शादी नहीं करूँगी।अगर पापा ने जबरदस्ती की तो मैं घर छोड़ कर चली जाऊँगी।" बेटी विभा के विद्रोह के स्वर संयुक्ता को विचलित कर गये।तब तक विभा ने अपने कमरे में जा कर दरवाज़ा बंद कर लिया।
बचपन से ही कथक नृत्यांगना माँ के सान्निध्य में रह कर नृत्य का शौक विभा के हाथ की लकीरों में तो परिलक्षित हो रहा था पर उसकी माथे की लकीरें कुछ और ही कहती थीं जिसे कोई समझ न पाया।पिता ने उसकी माँ संयुक्ता की सुंदरता पर रीझ कर विवाह तो जरूर किया था पर वे उनके नृत्य के मंच पर प्रदर्शन के ख़िलाफ़ थे। संयुक्ता के घुंधरू उसके पैरों की बेड़ियाँ बन गये पर वे विभा के छुटपन में ही उसके छोटे-छोटे पैरों की पायलों की झंकार को ताल दे कर 'ता ता थैया' में बदल कर खुश हो लेती थीं। उन्होंने भरसक कोशिश की कि विभा घर में ही उनसे कथक सीखे पर नन्हीं विभा केवल विदेशी गानों की धुन पर ही थिरकती थी।
कॉलेज की पढ़ाई करने के बाद विभा ने विदेश में रह कर पाश्चात्य नृत्य सीखने की इच्छा ज़ाहिर की। पिता केदारनाथ नामी वकील थे। विदेश भेज सकते थे। वे स्वयं भी काम के सिलसिले में विदेशों में जाते रहते थे।पर उन्हें पसंद नहीं था कि विभा पाश्चात्य नृत्य सीखने विदेश जाये। उच्च शिक्षा के लिये भेजने में कोई ऐतराज़ नहीं था।
विभा बचपन से ही माँ को अपनी इच्छाओं के साथ समझौते करते देखती आई थी।अपनी इच्छा का गला घोंटना नहीं चाहती थी।फ़िर भी उसने पिता की बात मान ली और उच्च शिक्षा के लिये विदेश चली गई।
विदेश में रहकर उसका ध्यान पढ़ाई में कम पाश्चात्य संगीत और नृत्य में ज्यादा लगता था।वहाँ उसने संध्या समय कुछ घंटे काम करके नृत्य की शिक्षा लेने का विचार किया।
संयोग से उसे एक थियेटर में रिसेप्शनिस्ट का काम मिल गया।उसके अलावा वहाँ उसे थियेटर का रख-रखाव और सफ़ाई भी करनी पड़ती था।भारत में शानौ-शौकत में पली विभा अपने नृत्य के शौक के लिये कुछ भी करने के लिये तैयार थी।
थियेटर में देश-विदेश के बहुत से लोग अपने-अपने देश की सांस्कृतिक विविधताओं के नाट्य तथा नृत्य प्रदर्शन के लिये आते थे।छुट्टी के दिन विभा भी टिकट ले कर रंगशाला में बैठ जाती।
एक बार मिस्त्र से आई लड़कियों का बेली नृत्य देखा।
उसे लगा यही तो उसकी मंज़िल है।जैसे ही नृत्य समाप्त हुआ वह उन लोगों से मिली और जानने की कोशिश की कि वह कैसे सीख सकती है।
बेली नृत्य सीखने का शुल्क बहुत ज्यादा था। जिसे वह थियेटर की आय से नहीं नहीं चुका सकती थी। अपनी परेशानी बताने पर उन लड़कियों ने यू ट्यूब पर अपने नृत्य दिखाये और विभा से अभ्यास करके सीखना को कहा। जाते समय अपना मोबाइल नम्बर भी दिया।
अब विभा का ध्यान पढ़ाई में कम और नृत्य में ज्यादा लग रहा था। वह पढ़ाई में पिछड़ने लगी। जिसका परिणाम उसके परीक्षाफल पर पड़ा। फेल होने पर उसके पिता ने उसे वापस भारत बुला लिया और विवाह के लिये ज़ोर डाला।पर विभा विवाह करना ही नहीं चाहती थी।
संयुक्ता समझ नहीं पा रही थीं कि स्थिति को कैसे संभाला जाये कि वकील साहब की कार पोर्टिको में रूकी।विभा को देखने के लिये आये लोग उनके साथ थे।संयुक्ता किसी अनहोनी की आशंका से घबरा गई।
फ़िर भी आगुंतकों का सत्कार तो करना ही था।
उन्होंने मोबाइल पर विभा को संदेश भेजा, 'विभा अभी तुम तैयार हो कर बाहर आ जाओ, मैं वादा करती हूँ कि जो तुम चाहोगी वही होगा।'
वह दिन तो शांतिपूर्वक गुज़र गया।आशीष और उसके घरवालों ने विभा को पसंद कर लिया। पर विभा की सूजी आँखों में झाँकने के लिये आशीष ने विभा को अलग ले जा कर बात करना चाहा। विभा के पिता इसका अंजाम जानते थे इसलिये उन्होंने मना कर दिया।वे लोग बिना किसी निर्णय के वापस चले गये।
विभा विवाह नहीं करना चाहती थी। न ही उसके पास आय का कोई साधन था। हालांकि संयुक्ता को बेली नृत्य बिल्कुल पसंद नहीं था फिर भी बेटी की इच्छा का मान रखते हुए उसका साथ देने का निर्णय लिया। संयुक्ता ने स्वयं बेली नृत्य वाली लड़कियों की टोली को सम्पर्क किया और जाना कि कैसे विभा को विधिवत बैली नृत्य की शिक्षा दी जा सकती है। पता लगा मुंबई में 'प्रोफेशनल इन्सटीट्यूट' है। जहाँ वह नृत्य की शिक्षा से सकती है।
पति से पूछने पर न ही सुनने को मिलता। इसलिये मुंबई घूमने जाने की बात कह कर दोनों माँ-बेटी दिल्ली से मुंबई आ गईं। सौभाग्य से मुंबई के उस कलाकेन्द्र में कथक नृत्य की कक्षाएँ भी होती थीं।संयुक्ता को वहाँ कथक -शिक्षिका की नियुक्ति मिल गई।विभा ने बेली नृत्य का प्रशिक्षण लेना शुरू किया।दोनों माँ-बेटी को मुंबई महानगरी ने संरक्षण दिया और दोनों होटल छोड़ कर पेइंग गेस्ट के रूप में रहने लगीं।
जब काफ़ी दिनों तक दोनों दिल्ली वापस नहीं लौटी तो केदारनाथ जी को चिंता हुई।मोबाइल पर संपर्क किया तो सच्चाई जान कर आगबबूला हो गये।गुस्से में आ कर उन्होंने संयुक्ता को तलाक़ के कागज़ भिजवा दिये।
बरसों से दबी नृत्य की इच्छा जरूर अपना रंग-रूप संवारने लगी थी पर संयुक्ता ने पति के सामने हार नहीं मानी और तलाक़ के कागज़ बिना हस्ताक्षर किये वापस भेज दिये। माँ और पिता बिगड़ते रिश्ते से विभा मायूस जरूर हुई पर आगे के अपने भविष्य की सोच कर उसने परिस्थिति से समझौता करना ही उचित समझा।
दिन में वह बेली नृत्य सीखती। रात को पाश्चात्य धुनों पर थिरकती। कभी माँ-बेटी एक साथ मिलकर जुगलबंदी करतीं। एक बार पूरी तैयारी से संस्था के वार्षिकोत्सव में उन्होंने कथक और पाश्चात्य नृत्य की जुगलबंदी पेश की तो सब तरफ़ धूम मच गई। दोनों प्रसिद्धि के शिखर पर पहुँच गयीं। शो के लिये बहुत से आमंत्रण आने लगे।
थोड़े ही दिनों में संयुक्ता और विभा आर्थिक रूप से इतनी संपन्न हो गईं कि उन्होंने स्वयं ही अपना नृत्य केन्द्र खोल लिया। कार भी खरीद ली। दूर-दूर तक उनकी शोहरत फैल गई।उनकी प्रसिद्धि की कहानियाँ सुन-सुन कर वकील साहब ख़ून का घूँट पी कर रह जाते।उनका बस चलता तो दोनों को गोली मार देते।पर कानून ने उनके हाथ बाँध रखे थे।
और फिर एक दिन, सुबह संयुक्ता विभा को कमरे में गई तो अंदर का दृश्य देखते ही बेहोश हो गई। खून की लकीरें विभा को बिस्तर से बह कर कमरे के बाहर तक जा रही थीं। ड्राइवर ने उन दोनों के विषय में पुलिस के सूचना दी।
केदारनाथ मुंबई आये और सारी औपचारिकताएँ पूरी कर के वापस चले गये। संयुक्ता इस मानसिक आघात को सह नहीं पाई और विक्षिप्तावस्था तक पहुँच गई।
आज संयुक्ता मानसिक रूग्णालय में बगीचे की क्यारियाँ संवारा करती हैं।फूलों का स्पर्श उसके मन की भावनाओं को उद्वेलित होने से बचाता है। इस सब से बेखबर कभी-कभी सफ़ाई करते समय झाड़ू की तीलियाँ अपने चारों तरफ़ बिखरा देती है और उसमें विभा का वजूद खोजा करती हैं।झाड़ू की हर तीली से लम्बी-लम्बी लकीरें खींचती है और अपने चारों ओर एक पिंजरा सा बना देती है और उस पिंजरे में बैठ कर चीखें मार-मार कर रोती है।कभी अपने पेट पर पड़ी गर्भावस्था की लकीरों को रगड़-रगड़ कर विभा को अपने गर्भ में महसूस करती है।
विभा का कत्ल किसने किया ? यह प्रश्न आज तक रहस्य के जंजाल की लकीरों में उलझा हुआ है।
संभ्रांत समाज द्वारा खींची गई लकीरें लाँघने की सजा इतनी भीषण होगी कोई सोच भी नहीं सकता। यद्यपि इसमें लकीर खींचने वाले की जीत हुई, पर मुद्दा यह नहीं कि विभा को किसने मारा? वह कैसे मरी ? अपना जीवन अपने तरीके से बिताने की उसने क्या कीमत चुकाई? इसमें समाज और उसकी खींची हुई लकीरें और उन्हें पोषित करने वाले लोग कटघरे़ में हैं। पर हमेशा से कैद की सलाखों से बाहर रहते आये हैं।