कुछ दिन और.....
कुछ दिन और.....


करोना काल की बात है। बहुत गर्मी पड़ रही थी। उसी करोना संक्रमण में घर में रह-रह कर मैं और मेरा परिवार तंग आ गए थे। हमने एक रिश्तेदार के घर जाने का कार्यक्रम बनाया। काफी विवाद के बाद इस कार्यक्रम को दोनों पक्षों से हरी झंडी मिल गयी। जाने की तैयारी होने लगी। हम सब इतने दिनों बाद बाहर जा रहे थे। गाड़ी में बैठने के बाद, बाहर की दुनिया एकदम अनजान लग रही थी। पर यह तो बस शुरुआत ही थी। पिताजी ने गाड़ी शुरू की और हमारा सफ़र भी शुरू हो गया। खिड़की के बाहर देख-देख कर मैं ऊब गया था। लेकिन अभी मंज़िल बहुत दूर थी।
रात को हम वहाँ पहुँच गए। उसी दिन, माँ से मैंने पूछा, “हम कितने दिन यहाँ रुकेंगे?”
माँ ने बोला, “बेटा, हम लोग अभी ही तो आए है, और तुम जाने की बात कर रहे हो।” मुझे इस बात से ही अंदाज़ा मिल गया की सफ़र लंबा होने वाला है। हमारे रिश्तेदार ने हमारा अच्छे से स्वागत किया था और मुझे यह देख कर बहुत अच्छा लग रहा था। कोई जल्दी घर से बाहर नहीं निकलता था क्योंकि करोना संक्रमण बहुत तेज़ी से अपनी ताक़त दिखा रहा था। हम वहाँ पर बहुत अच्छे से रह रहे थे। हम घर पर रहे कर भी खूब ख़ुश थे।हर दिन एक ना एक बार लूडो खेला ही जाता था। अब तो घर की याद ही नहीं आती थी। घर वापस जाने की अभिलाषा ही ख़त्म हो गयी थी।
दिन बीतते गए। अब समय बीत रहा था पर हमारा समय बीतना बंद हो गया था। वो घड़ी की सुई, जिसे पहले देखने का वक़्त ही नहीं मिलता था, अब उसी को देख कर वक़्त बीत रहा था। बात का लेन-देन ही ख़त्म हो गया था।। दिन के बाद अब महीने भी बीतने लग गए। वापस जाने के कोई आसार नज़र नहीं आ रहे थे। शरद जोशी के ‘तुम कब जाओगे, अतिथि’ जैसी स्तिथि हो रही थी। मुझे डर था की हमारे म
ेज़बान को ऐसा ना लगे की हम उनके घर की स्वीटनेस को काट-काट कर ख़त्म कर रहे है। इसी डर के कारण मैंने पिताजी से पूछा, “हम यहाँ कितने दिन और रहेंगे?”
पिताजी ने बताया, “बस कुछ दिन और, बेटा।” यह सुनकर परेशानी और बढ़ गयी। लगने लगा की इन कुछ दिनों में मेज़बान से ‘गेट आउट’ ना सुनना पढ़ जाए। महीने जाते जाते यह सूचना दे रहे थे की अब समय हमारे जाने का भी आ गया है। मुझे भी अब घर जाने का मन कर रहा था।
फिर एक दिन स्कूल से यह सूचना मिली की सी॰बी॰एस॰ई॰ के रजिस्ट्रेशन शुरू हो रहे थे जो ऑनलाइन नहीं हो सकते थे। वापस तो जाना ही था, पर कब तक, यह नहीं पता चल रहा था। रजिस्ट्रेशन की तिथि नज़दीक आ रही थी। पिताजी ने इस चार महीने लंबे सफ़र को अंत देने की ठान ली। आख़िर वो दिन आ गया, जिस दिन हमें सब से विदा लेकर वापस जाना था। सामान बाँध लिया गया था। मुझे बहुत दुःख हो रहा था। मेरा छोटा भाई वहीं रोने लगा। रोना तो मुझे भी था, लेकिन मुझे उस दुःख का अधिकार न था क्योंकि मैं बहुत बड़ा हो चुका था। किसी तरह अपने आँसू रोककर मैं गाड़ी में बैठा और रिश्तेदार से विदा ली। गाड़ी तो चलना शुरू हुई, पर मेरी दिल की धड़कन जैसे रुक सी गयी थी। इस सफ़र ने मेरे जीवन की किताब में कई कांड लिख दिए थे इसलिए इसका अंत करना बहुत मुश्किल था। समय के साथ मेरा दुःख असीमित हो रहा था। जब किसी वस्तु को त्यागना पड़ता है तब उसकी अहमियत समझ में आती है। जब दुःख साथ होता है, तब बड़ा से बड़ा सफ़र छोटा लगने लगता है। यही सीख लेकर मैं घर लौट रहा था। घर से दूरी कम हो रही थी पर तब भी मैं संतुष्ट न था। उनकी कमी महसूस हो रही थी। मैं सोच रहा था, “काश! हम कुछ दिन और रुक सकते।”