कर्तव्य की डोर
कर्तव्य की डोर
मैं अपनी कहानी लिखने से पहले स्टोरी मिरर को धन्यवाद देना चाहती हूँ कि उन्होंने भगवद्गीता पर आधारित प्रतियोगिता आयोजित की इस बहाने हमें इस बहुमूल्य ग्रंथ को पढ़ने का अवसर मिला। यद्यपि इस ग्रंथ का हर श्लोक अपने में जीवन का सार समेटे हुए हैं लेकिन मैं श्लोक इक्तीसपर आधारित अपनी कहानी सुनाने जा रही हूँ। श्लोक इकतीस में श्री कृष्ण भगवान अर्जुन को संबोधित करते हुए समझा रहे हैं हे पार्थ हमें कभी भी अपने कर्तव्यों से विमुख नहीं होना चाहिए क्योंकि मनुष्य मात्र के लिए कर्म से बढ़कर कुछ भी नहीं है। जो सबसे बड़ा छल मनुष्य अपने आप से करता है वह अपने कर्तव्य की अवहेलना करना है इसलिए हे पार्थ तुम भी अपने कर्तव्य का पालन करो और युद्ध क्षेत्र में आगे बढ़ो ।
मेरे लिए यह विचार प्रेरणास्रोत बन गए । मैं शुरू से अध्यापन का काम करती रही हूँलेकिन बीच में पारिवारिक ज़िम्मेदारियों के बीच मेरा यह कार्य छूट गया और मैं भी ये बात बिलकुल भूल गई और परिवार में रच बस गई। एक दिन अचानक मेरे घर जो जो महिलाकर्मी सफ़ाई का काम करती है वह अत्यंत भावुक होकर रोने लगी जब मैंने उससेकारण पूछा तो वह कहने लगी कि मेरी बिटिया कक्षा छह में फ़ेल हो गई है और वह उसे आगे पढ़ाना चाहती है। मैं उस समय अत्यंत असहज हो गईं लेकिन तभी मुझे गीता का वह श्लोकयाद आया हमें कभी भी कर्तव्य से विमुख नहीं होना चाहिए मैंने उससे कहा कि तुम उसे
मेरे पास पढ़ने के लिए भेजो पहले तो वह मना करती रही लेकिन मैं भी उसकी बिटिया को पढ़ाकर ही मानी। जब वह अच्छे नंबरों से पास हुई तो उसके विद्यालय जाकर उसके प्रधानाध्यापक से मिली औरउसका माध्यम भी बदलवाया धीरे धीरे उसके अन्य साथी संगी भी पढ़ने आने लगे और अपने इस कर्तृत्व कोपूरा कर
जो प्रसन्नता मुझे मिली वहशब्दो में भी व्यक्त नहीं कर सकती।
अब इसे मैंने अपने जीवन का ध्येय बना लिया हैनहीं तो मेरा इतना पढ़ना लिखना व्यर्थ ही जा रहा था अब उन लोगों को पढ़ाकरयह लगने लगा है कि जीवन को सार्थकता से जी रही हूँ क्योंकि आगे चलकर यह बच्चे ही राष्ट्र और परिवार का निर्माण करेंगे॥