Rashi Mongia

Tragedy

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Rashi Mongia

Tragedy

कोरोना की कहानी मज़दूरों की ज़ुबानी

कोरोना की कहानी मज़दूरों की ज़ुबानी

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रईसों के शौक, मजदूरों के खौफ बन गए,

विदेशों की यात्रा अपने देश की शव यात्रा बन गई,

अमीरों के लिए हवाईजहाज,

मजदूरों के लिए पथ यात्रा,

का सफ़र बन गया,

जो लेकर आए वायरस,

उन्हें उनके घर भेज दिया,

और हमे चलता फिरता ऐटम बॉम्ब बना दिया,

ना हम घर वालों के रह गए,

ना फैक्ट्री वालों के रह गए,

हम तो बस सड़कों के मुसाफिर बन के रह गए,

उन लोगों को खाने पीने की कमी नहीं,

और हमारे खाने पीने की किसी को होश नहीं,

उन्हें दूसरे देशों से अपने देश बुला लिया,

और हमारे लिए बड़े शहरों से घर जाने के लिए कोई साधन नहीं,

आज हमे घर लौटते समय,

सब वायरस के कैरियर,

की निगाहों से देखते है,

ये सब तब कहां थे,

जब हम घरों से बेघर हुए,

परिवार तो हमारा भी है,

ज़िम्मेदारी परिजनों की हम पर भी है,

ज़िंदगी उतनी ही गरीबों की भी है,

जितनी अमीरों की है,

महामारी पूरे विश्व की

तो संकट सिर्फ मजदूरों का कैसे????

आज में निकला बेघर हो के,

तो अपने कई साथियों को रास्ते

में अपने साथ पाया,

सब निकले थे,

बोरियां बिस्तर लपेट के,

किसी के कंधे पे थे बच्चे,

किसी के कंधे पे समान,

किसी के कंधे पे उनके बुजुर्ग मां बाप,

कोई भूख से रो रहा था,

तो कोई प्यास से तड़प रहा था,

नंगे पैर , पथरीली ज़मीन , कड़कती धूप,

कुछ तो घुटनों के बल चल रहे थे,

रात और दिन दोनों एक जैसे लगते थे,

ना जाने कब खत्म होगी ये जंग,

सबके दिल में बस यही ख्याल था,

ना रास्तों को पता,

ना बस और ट्रेन की व्यवस्था,

बस जीना है तो चलते जाना है,

यही समझ आ रहा था,

जो कभी न्यूज में नहीं आए थे,

आज उनकी बारी थी,

हम सब ने आज सारे

न्यूज़ चैनल में जगह बनाई थी,

हर अख़बार की सुर्खियों में थे हम,

पर फिर भी चैन ना था हमे,

कुछ लोगों ने रास्ते में खाना बांटना शुरू किया,

तो हम अपना पेट भर कर आगे बढ़ते गए,

दिन रात चलते गए सड़को पे,

अटल थे हमारा हौसला,

बुलंद थे हमारे इरादे,

कोई हफ़्तों चलने के बाद, तो,

कोई महीनों चलने के बाद,

आ ही गए अपना मंज़िल तक,

पर स्ट्रगल अभी भी खत्म कहां हुआ था,

हमारे गाँव वालों ने हमे गांव की सीमा

में घुसने ही नहीं दिया,

फिर तड़पता बिलखता बाहर छोड़ दिया,

ना जाने ये महामारी,

और कैसे दिन दिखाएगी,

कब हालात बदलेंगे?

कब हमे वापिस काम मिलेंगे?

कब हमे हमारा हक मिलेगा?

कब हमारे लिए भी ट्रेनें और हवाईजहाज चलेंगे?

कब हमारे भी खून की क़ीमत होगी?

घर, ऑफिस, फैक्ट्री, मंदिर, मस्जिद,

सब बनाया हमने,

और आज इन सब ने हमे ही बेघर कर दिया,

हम महामारी से मरे, या भुखमरी से,

मरना तो हमे ही है,

अलविदा रईसों,

में तो चला, तुम अपना संसार सलामत रखना।

 



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