किश्वर अंजुम

Drama

5.0  

किश्वर अंजुम

Drama

ख्वाहिश नादान सी

ख्वाहिश नादान सी

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बचपन की मासूम ख्वाहिशें, हजारों में थीं, जिनमें से कुछ पूरी हुईं, कुछ नहीं हुईं। उनमें से एक ख्वाहिश, जब आज याद करती हूं, तो बरबस हंसी आ जाती है। हम उड़ीसा और उस समय के मध्यप्रदेश की सीमा पर बसी तहसील में रहते थे। सन् 1980 में हमारे घर लकड़ी के चूल्हे पर खाना बनता था। उड़ीसा की तरफ से आनेवाली पैसेंजर ट्रेन से बहुत सी उड़िया औरतें लकड़ी के बोझे लेके आतीं,और हमारे शहर में बेचती थीं। हमारे यहां भी उनसे लकड़ियां ली जाती। हम, माह में दो बार लकड़ियां लेते थे, और उनको एक कमरे में जमा कर दिया जाता। कभी ऐसा भी होता था कि वे औरतें नहीं आती थीं, ऐसे में अगर लकड़ियां खत्म हो जाती तो लकड़ी टाल से लकड़ियां मंगवानी पड़तीं, जो महंगी भी पड़ती और रिक्शे का खर्च अलग होता। ये सन् अस्सी का दौर था। मेरी उम्र उस वक़्त नौ दस साल की थी। आजकल के बच्चे तो छः सात साल की उम्र में इतने समझदार हो जाते हैं कि उनके मुंह से कोई बालसुलभ बात सुनना दुर्लभ हो जाता है। हमारे बचपन में हमारे पास आजकल के जैसे इंटरनेट और टेलीविजन का साधन तो था नहीं, कुछ समझ में नहीं आता तो अपने जैसे दोस्तों से सलाह कर और अपनी बालबुद्धी से ही निष्कर्ष निकालते थे। ऐसे ही हंसी खुशी दिन बीत रहे थे।

हमारा शहर उड़ीसा बॉर्डर के नज़दीक था। उड़ीसा से बहुत से महिला पुरुष हमारे शहर में आके मज़दूरी करते, कमाते, वापस अपने गांव जाके अपने आश्रितों की व्यवस्था कर, फिर कमाने आ जाते। पुरुष अक्सर साइकिल रिक्शा चलाते और महिलाएं घरों में बर्तन, कपड़े धोने का काम पकड़ लेतीं। हम लोग एक मोहल्ले में किराए से रहते थे। मेरे पप्पा उस शहर में वेटेरिनरी सर्जन के पद पर स्थानांतरित होकर आए थे। हमारा घर, मोहल्ले के दूसरे घरों से बड़ा था। वो एक आवासीय कॉलोनी थी, जिसके मालिक एक बुज़ुर्ग थे। हम उन्हें दादाजी कहते थे। उस कॉलोनी में छोटे छोटे मकान भी थे, पर हमारा मकान सबमें बड़ा था।

कॉलोनी के एक भाग में बहुत से कमरे बने थे। हर कमरे में अलग अलग परिवार किराए से रहते थे। ये लोग श्रमिक वर्ग से आते थे। कोई रिक्शा चलाता था, तो कोई ट्रक का क्लीनर था, कोई कुल्फी बेचता था। इनकी महिलाएं आस पास के घरों में काम करती थीं। एक उड़ीसा से आया परिवार भी वहां रहता था, पद्मा का। पद्मा के पति का खुद का रिक्शा था। उसके तीन बच्चे थे, जो मेरी उम्र के ही आसपास थे। पद्मा, हमारे घर काम पर लग गई। मैं अक्सर उसके बच्चों के साथ खेलती थी। स्वाभाविक था कि पद्मा के घर भी लकड़ी के चूल्हे पर ही खाना बनता था, पर वो लोग लकड़ी खरीदते नहीं थे। पद्मा का पति पास के जंगल में जाकर सूखी लकड़ियां अपने रिक्शे में ढो कर ले आता था। बस....., यही मेरी ख्वाहिश थी, कि काश ! मेरे पप्पा के पास भी रिक्शा होता, तो हम भी जंगल जाके लकड़ियां लेे आते......., हमें लकड़ियां खरीदनी नहीं पड़ती। ये ख्वाहिश तो पूरी नहीं हुई, पर कुछ समय बाद पप्पा, कुकिंग गैस कनेक्शन लेे आए, और फिर जंगल जाके लकड़ी लाने की मेरी तमन्ना नहीं रही।


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