अन्न बिन विपन्न
अन्न बिन विपन्न
सन् १९६६ की बात है। मध्यप्रदेश के भीमपुर ब्लॉक में एक नवदम्पत्ति रहने गए। पति की नियुक्ति वहां वेटेरिनरी सर्जन के पद पर हुई थी। सरकारी क्वॉटर में उन्होंने गृहस्थी बसाई। सन् १९६६ में वहां अकाल की स्थिति थी। अनाज, सिर्फ सरकारी राशन केन्द्रों में मिलता था। भीमपुर की सरकारी राशन की दुकान में सिर्फ गेहूं और अरहर की दाल ही मिलती थी। वहां उपलब्ध गेहूं अमेरिका से आयातित लाल गेहूं था। जिस गेहूं को अमेरिका के जानवर भी नहीं खाते थे उसको भारत में इंसानों के खाने योग्य समझा गया था। हरित क्रान्ति का शुरुआती दौर था। देश अन्न की कमी से जूझ रहा था।
आयातित अनाज की उपलब्धता पर निर्भर रहना बेहद तकलीफ़देह था। ऐसा नहीं था कि हमारे पास कृषि भूमि की कमी थी, पर संसाधनों के अभाव में युवा पीढ़ी कृषि से दूर जा रही थी और सरकारी नौकरी को ही उज्ज्वल भविष्य की चाबी मान बैठी थी। कुछ यही हाल डॉक्टर साहब का भी था। उनके घर में सैकड़ों एकड़ की खेती थी, परन्तु उनकी पीढ़ी ने खेती से अधिक नौकरी को पसंद किया और अन्नपूर्णा धरती की आराधना छोड़ धन की आराधना का चयन किया। उस समय खेती में आज जितनी सुविधाएं नहीं थीं।
खेतों की सिंचाई अधिकतर वर्षा ऋतु पर निर्भर थी। जल देवता प्रसन्न तो बरसता था अन्न, वरना बैठ के करो हरी भजन। यही स्थिति थी, तो कोई भी युवा खेती जैसे दुष्कर कार्य को क्यों चुनता ? ख़ैर, तो फिर डॉक्टर साहब की रसोई में लाल गेहूं की रोटी और अरहर की दाल ने अपना एकछत्र राज्य बना लिया क्योंकि और किसी प्रकार की दाल और चावल की उपलब्धता ही नहीं थी। मूंग, मसूर, चना और उड़द दाल न तो सरकारी राशन केंद्रों में थीं न ही किसी किराना दुकान में। चावल और शक्कर तो दूसरी दुनिया के पदार्थ थे। सब्ज़ी भाजी भी दुर्लभ थी, कभी कभी किसी की बाड़ी में हो तो बाजार में बिकने आ जाए। जब सब्ज़ी मिले तो वो त्योहार का दिन होता था। अन्न की कमी से होने वाली परेशानी झेलकर नौकरी करने के चुनाव को डॉक्टर साहब के साथ उनकी पत्नी भी झेल रही थीं। धन तो उपलब्ध था परन्तु उस धन से अन्न ख़रीद पाएं ये संभव ही नहीं था। मोटे लाल गेहूं से बनी रोटी ने पाचन शक्ति की परीक्षा ले लेकर बेहाल कर रखा था। डॉक्टर साहब की पत्नी २० वर्ष की नवयुवती थी, जो इससे पहले सुदूर ग्रामीण इलाकों के वातावरण में कभी नहीं रही थीं। मोटा अन्न उन्होंने नहीं खाया था। सुदूर इलाके में आवास और अन्य समस्याओं से फिर भी जूझा जा सकता था परन्तु अन्न की कमी का क्या विकल्प हो सकता था।
ऐसे में एक दिन पाता चला कि सरकारी राशन केंद्र में चावल आया है। दोनों पति पत्नी बड़े ख़ुश हुए। चपरासी को भेजके चावल मंगाया गया। दैवयोग से उस दिन बाज़ार में लौकी भी मिल गई। समझ लीजिए त्योहार ही हो गया। चावल मोटा था, परन्तु इसी में अपार संतोष था कि चावल तो है। कई दिनों से लाल गेहूं और अरहर दाल के स्थाई भोजन से छुट्टी मिली। बड़े मन से भात और लौकी की सब्ज़ी बनाई गई और प्रेम और पूर्ण तृप्ति से दोनों ने भोजन किया परन्तु इस खुशी में ग्रहण लग गया जब कई दिनों से आयातित लाल गेहूं के अत्याचार से पीड़ित उदर ने विद्रोह कर दिया।
उसमें चावल के मोटे दानों को पचाने की ताब नहीं रह गई थी। डॉक्टर साहब की पत्नी को देर रात उल्टियां शुरु हो गईं। मोटा चावल उदर से कूद कूद कर बाहर आने लगा। आननफानन में बैलगाड़ी बुलाकर बीमार को जिला मुख्यालय ले जाया गया। तीन दिनों तक सरकारी अस्पताल के मेहमान बन के रहना पड़ा। उसके बाद भी पथ्य का कोई ठिकाना नहीं था। न तो मूंग दाल उपलब्ध थी न बारीक अन्न ही मिलता था। जान के लाले पड़ गए। शुरु से बारीक अन्न खानेवाले मोटा अनाज पचाने की क्षमता नहीं रखते। इस बात का अनुभव हममें से बहुतों को होगा। जब अन्न ही न हो तो धन किस काम का ? ऐसे में तो स्वर्ग भी व्यर्थ है। डॉक्टर साहब के सामने दुविधा की स्थिति आ गई।
नौकरी तो तभी कर पाएंगे जब परिवार प्रसन्न रहेगा। पत्नी की जान की शर्त पर तो नौकरी मंज़ूर नहीं हो सकती। अंत में निर्णय ले लिया गया। लंबी छुट्टी और तबादले का निवेदन करता आवेदन देकर वो वापस अपने मूल स्थान आ गए। इस घटना ने उन्हें कृषि और कृषक का महत्व समझ दिया। अपनी धरती को अनाथ छोड़ने का निर्णय कितना घातक हो सकता है, उन्हें इसका अनुभव हो गया था। कालांतर में डॉक्टर साहब की ज़मीनों ने सोना उगला, क्योंकि ज़मीन के मालिक को ये समझ आ गया था कि कृषि ही जीवनदायनी है और कृषक ही अन्नदाता है।
कोई भी व्यवसाय कृषि जितना पवित्र नहीं हो सकता। मेहनत और समझदारी से हर रुकावट पर विजय प्राप्त कर डॉक्टर साहब ने अपनी ज़मीनों का भरपूर उपयोग किया और स्वयं को एक सफल कृषक के रूप में स्थापित किया।
द्रोपदी की रसोई के पात्र में बचे अन्न के एक दाने का भोग लगा श्रीकृष्ण ने पूरी सृष्टि को तृप्त किया था। ये घटना हमें अन्न का महत्व समझाने काफ़ी है।
आज अन्न की प्रचुर मात्रा की उपलब्धता से हम अन्न का महत्व भूल बैठे हैं। खाना बरबाद कर और थाली में जूठन छोड़ हम किसान के श्रम का निरादर करते हैं। कोई धन और कोई मूल्य किसान के उस श्रम को नहीं खरीद सकता जो वह अनाज की एक बाली को उगाने में करता है।