किश्वर अंजुम

Inspirational

4.8  

किश्वर अंजुम

Inspirational

हक़

हक़

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लड़कियों को धीरे बोलना चाहिए, कम बोलना चाहिए, औरतों की आवाज़ इतनी तेज नहीं होनी चाहिए कि घर के बाहर तक सुनाई दे।कम बोलो, धीरे बोलो, मीठा बोलो, सहना सीखो, यही सुनते सुनते, मेहर बड़ी हो गई, पोस्ट ग्रेजुएशन करने के बाद अब्बा की पसंद के लड़के से नाम जोड़कर ससुराल चली आई।मियां पुराने खयाल के, औरतों का नौकरी करना पसंद नहीं।शादी के बाद, सबसे पहले मियां ने यही हुकुम जारी कर दिया, फरमाबरदार मेहर, मियां की रज़ा में राज़ी होकर अपनी डिग्रियों को ताक़ में रखकर गृहस्थी का जुआ खींचने का फ़र्ज़ निभाने लगी।

महीने भर बाद, एक दिन मियां जी ने मेहर को एक किस्सा सुनाया, जिसमें एक औरत के बदकिरदार होने पर उसका शौहर उसका कत्ल कर देता है।।।।बस! यहीं गलती हो गई।।।मेहर भी बेचारी गलती से पढ़ी लिखी थी, उसने "शिवानी" की "विषकन्या" संकलन की एक कहानी का ज़िक्र कर दिया अपने मियां से, जिसमें एक औरत अपने प्रेमी के साथ मिलकर अपने पति का खून कर देती है।बस खपतुलहवास मियां ने अपना असली रूप दिखा दिया उस दिन, चीख चीख के मेहर को एक से एक गन्दी उपाधियों से नवाजा, आंगन में खड़े होकर गालियां दी, ताकि मोहल्ले के लोग सुनें।कैसी औरत है? कैसी कहानियां पढ़ती है? तू खुद ऐसी सोच की होगी, तभी ऐसी बात ज़ुबान से निकाल रही है।मैंने तेरी सोच परखने के लिए ये बात शुरू की थी,वगैरह वगैरह ।शाैहर रूपी विकृती को अपनी नव ब्याहता बीवी की इज़्ज़त की धज्जियां उड़ाने में ज़रा शर्म नहीं आई, अगर उसे बुरा लगा था, तो आहिस्ता भी अपनी बात रख सकता था।मेहर सोच में पड़ गई, पूत के पांव, पालने में दिख ही गए, शौहर के।

ज़हन का मुजाहिरा हो गया, इस आदमी के साथ ज़िन्दगी कैसे गुजरेगी? ये मेरा कौन सा इम्तेहान लेना चाहता था? जो आदमी बिना किसी कसूर के मेरी आबरू को रुसवा कर रहा है, वो सरताज कहलाने का हक नहीं रखता, कसूर भी होता तो ये तो तरीक़ा नहीं है शिकवा करने का।

ठंडे दिमाग की, खामोश तबीयत की, बेहतरीन तरबियत पाई खानदानी लड़की ने अपने वजूद की खातिर एक फैसला लिया, "खुला" का, और अपने शौहर को छोड़ आई।

हज़ार नुक्ताचीनी सही, लानतें झेलीं, पर अपने फैसले पे अडिग रही, जो आदमी, औरत के किरदार को चौराहे पे नीलाम करे, वो सरताज कहलाने का हक नहीं रखता, इस्लाम, औरतों को ये हक देता है कि वो "खुला" का इस्तेमाल कर ऐसे रिश्ते पर लानत भेजें।आजएक बड़े सरकारी इदारे में आला ओहदा हासिल कर मेहर शान से ज़िन्दगी गुज़ार रही है, अपने आला ज़र्फ़ के शौहर के साथ।


ये भी एक पहलू है समाज का, जहां ज़्यादातर लड़कियों में इतना बड़ा फैसला लेने की हिम्मत नहीं होती, बेटी विदा करते वक्त, समझौता करना तो सिखाया जाता है, पर वक़्त पड़ने पर कड़ा फैसला लेने की भी हिम्मत देनी चाहिए, ताकि कोई बच्ची, अपने ज़मीर को मारकर ज़िंदा रहने के इम्तेहान से न गुज़रे।

मैं मेहर के साथ हूं।


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