कहानी
कहानी


बात एक छोटे से कस्बे की है।जहाँ कई सारे कबीले के लोग रहते थे। उन में कुछ बुज़ुर्ग तो कुछ अच्छी कद काठी के जवान भी रहते थे पास ही एक छोटी पहाड़ी थी जहाँ सारे कबीले के लोग शाम के वक्त तफरीह के लिए इकट्ठा हुआ करते थे।एक दिन की बात है कबीले की कुछ नौ उम्र लड़कें लड़कियां पास वाली पहाड़ी पर वक्ते तफरीह आ पहूँचे।कुछ वक्त तक सब मौसम से लुत्फ़ अंदोज़ होते रहे।उनमें इक नौ उम्र आपस में आँख मचोलियाँ खेलने लगे मे मशगूल हो गए। दोनों इक दूसरे को छेड़ते रहे आँखों ही आँखों में।मगर वक्त का क्या उसे तो गुज़रना था उसे क्य। परवाह किसी के लम्हात का।शाम ढलने को आ पहूँचा।वक्ते ज़ुदाई देख दोनों सहम गए। खैर कबीले की चंद नौ उम्र लड़कियां कस्बे की तरफ चल पड़ी। दोनों खुद को जुदा होते देख मायूस होने लगे धड़कनें तेज़ होने लगी। शाम का दूसरा पहर करीब करीब ढलने को आ पहूँचा। स्याह रात नींद से बोझल आँख़ और यादें आपस में बदन को बाँट चुकी थी।दूसरी सुबह की मुंतज़िर निगाह आपस में झुरमुट करने लगी। सुबह होते ही कस्बे के हर सिम्त नज़र दौराते हुए थक चुका था। कस्बा कुछ खास बड़ा नहीं था लेकिन उन्हें उन कस्बे में ढूंढ़ना थोड़ा मुश्किल था।
शाम का इंतज़ार होने लगा। बातों ही बातों में दिन गुज़रे सुरज़ ढला शाम आन पड़ी। नौजवान उन पहाड़ी की ओर चल पड़ा जहाँ उसे इश्क़ की तरबियत मिली थी आँखों ही आँखों में पहूँचते ही नज़र उस शोख हसीना को ढूंढ़ने लगी। शामें बदली बदली सी लग रही थी। जिसे नज़र तलाश रही थी वो न आया था। कुछ दिनों तक यूँ ही इंतज़ार केलम्हात दरपेश आते रहे। दिन हफ्ते महीने गुज़रे। बड़ी मुश्किल से वक्त गुज़रा। कुछ महीने बाद़ शाम की रौनकें वापस लौटी जिसकी मुंतज़िर थी निगाह वो लौट आया था। मुझे समझ आ गई थी लड़कियां अपने कबीले की खातिर बहुत दानिशमंदी से कदम उठाती है। वक्त की पाबंदी के साथ रोनुमा हुई। बातें होने लगी झिझक के साथ और धीरे धीरे दोनों घुल मिल गए। एक दूसरे को जानने की कोशिश करने लगे।नाम से आवाज़ दे
ने कीकोशिश शुरू हुई पर दोनों नाम से वाकिफ नहीं थे।
फिर नाम बताया गया एक दूसरे को नाम से इक दूसरे को आवाज़ लगा कर दोनों खुश थे। वक्त गुज़रते हुए वक्त न लगा। शाम पूरी तरह ढल चुकी थी। कस्बे के देगर अफराद जाने लगे। घर की तरफ़ जाते हुए दोनों इक दूसरे को टकटकी निगाह से देखते हुए रुख्सत किया। वक्त गुज़रता गया । दिन हफ्ते महीने गुज़रे। एक दिन की बात है बरसात का मौसम था बारिशें तेज़ हो रही थी। किसी काम की गर्ज़ से नौजवान को कस्बे के बाहर जाना पड़ा।लौटते वक्त बारिश मुसलाधार होने लगी थी। कस्बे की तरफ़ लौटने तक बदन पूरी तरह भीग चुका था। कस्बे में दाखिल तो हुए पर पूरी तरह बदन काँप रहा था। काँपता हुआ बदन रास्ते में महबूबा का घर और गीले कपड़े तीनों परेशान कर रहे थे। खैर घर जाना तो था हिम्मत जुटाते हुए घर की तरफ रवाना हुआ। पर क्या था जाते हुए उसने देख लिया और अपनी तरफ़ बुलाते हुए हाथ पकड़ अपने घर की ओर खिंच लाई। बदन की सोजिशें खत्म करने का इंतज़ाम करते हुए सुखे कपड़े तौलिया और गर्म चाय का इहतिमाम करने लगी। कबीले के सारे अफराद़ परेशान थे
आखिर उन्होंने पूछ लिया क्या और क्यों कर रही ये सारे इहतिमाम। कहने लगी बारिश का मौसम है मैं सोच रही थी थोड़े पकवान बना लूँ। बस और कुछ नहीं। ये सारी बातें सुन कर लोग खुश मुतमइन हुए। उधर नौजवान खुद को पूरी तरह घर जाने के लिए तैयार कर चुका था। तभीमहबूबा आ पहूँची कहने लगी कहाँ चल पड़े। अररररे मैंतो अब जा सकता हूँ। हाँ लेकिन थोड़ी देर और ठहर जाओ मैं कुछ बना रही हूँ खा कर जाना। खैर उसने अपने बढ़े हुए कदम पीछे करते हुए खुद को रोक लिया।
पकवान तैयार हो चुका था। घर के सारे अफराद़ इकट्ठा हुए दस्तरख्वान लगे। एक तरफ सारे मर्द दस्तरख्वान के दूसरी तरफ़ औरतें बैठ चुकी थी। सारे लोग पकवान का लुत्फ़ उठाने लगे मौसमे बरसात माशूका और पकवान तीनों एक दूसरे से लुत्फ़ अंदोज़ होने लगे।