ज़ख़्म की दहाड़
ज़ख़्म की दहाड़
हाँ चोटिल था शायद, पर कहीं ज़ख़्म नहीं थे। फिर अनायास मेरी नज़र एक निशान पर गयी और मैं वहाँ ध्यान केंद्रित करने लगा। आवाज़ वहीं से आ रही थी। क्यों ना हो, ज़ख़्मों को मरहम चुप कर दे लेकिन निशान लगातार बोलते रहते हैं। मैंने महसूस किया है। सुना भी है। ख़ैर वापस वहीं चलते हैं।
बस कुछ महीनों का था और डॉक्टर ने कहा कुछ कह नहीं सकते। दवाइयाँ बेअसर हो रहीं थीं और कुछ लोग बेआस। नहीं बात उस बच्चे की नहीं उसकी माँ की कर रहा हूँ। बिस्तर पर जैसे ईश्वर की कोई अनन्य प्रेयसी, असीम सुंदरता लिए अपने लिए लड़ रही थी या फिर अपने पति और दो बच्चों के लिए या फिर ईश्वर की अद्वितीय सेवा-भाव के लिए जी रही थी।
कुछ महीने बीत गये थे और उसने अपने नवजात को अपनी बहन का मान लिया था। पर बड़े पुत्र का क्या? वह तो माँ समझ चुका था। ऋष्टि की सृजनात्मक रवैये का आधार, जिसे माँ कहते हैं, एक दो वर्ष के बच्चे की परीक्षा ले रहा था। वह प्रश्न लिए अपनी नन्ही नन्ही आँखों से पिता को घूरता रहता था। मानो पूछ रहा हो कि "पापा, माँ घर क्यों नहीं आ रही"।
मैं सोचता हूँ कि उस असहाय माँ पर क्या बीत रही होगी ! क्या सोचती रहती होगी ? टूटे शरीर को नियती समझ भी आये पर बिखरे मन को कहाँ ये भाव आता है ? और फिर माँ को तो बिल्कुल भी नहीं।
माँ को समझना ऐसा है जैसे नींद में आये दृश्यों का अक्षरशः सत्य होना। परंतु इन दो बच्चों और उनके पिता की मनोस्थितियों को समझ पाना इस संदर्भ में, या यूँ कहें कि समझने की कोशिश करना, असंभव ही जान पड़ता है।
हर दिन एक ही उत्तर कि "कोई सुधार नहीं" सुनकर पति और पिता का चरित्र द्रवित हो जाता था। राज्य के सबसे बड़े हाॅस्पिटल में एक आम बैंक कर्मचारी अपनी पत्नी के लिए मानो अपने अंत तक लड़ने को तैयार था।
अचानक एक दिन उस पहाड़ से लड़ते पति को अपनी पत्नी को "घर ले जाइए" कह दिया गया और साथ ही उस वीरांगना को ईश्वर के भरोसे रख दिया गया।