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Radha Goel

Tragedy

4  

Radha Goel

Tragedy

जिन्दगी कैसी है पहेली हाय

जिन्दगी कैसी है पहेली हाय

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2 मार्च 2009 का वह दुखद दिन...सुबह 3:30 बजे फोन की घंटी बजी। सुनते ही लगा कि घर में किसी बड़े बुजुर्ग की मृत्यु हो गई है, उसका फोन आया होगा।तब घर में बुजुर्गों में केवल तीन ही बचे थे जिनकी मृत्यु प्रतीक्षा कर रही थी। जल्दी से अपनी दवाई व एक बिस्किट का पैकेट और पानी की बोतल पर्स में रखीं ताकि वापसी में दवाई खा सकूँ।पता था कि इतना समय हो जाएगा कि दवाओं का टाइम हो जाएगा।दवा समय से नहीं खाती हूँ तो *फिट* पड़ जाता है क्योंकि दवा का असर बारह घंटे बाद खत्म हो जाता है।थायराईड की दवाई खाकर ब्रश करना शुरू किया ही था कि पतिदेव फोन सुनने के बाद बोले:-- "विकास को आवाज़ लगाओ"।

"रहने दो। उसे क्यों परेशान करना। हम खुद चले जायेंगे।"

इतनी देर में इन्होंने अपने एक भाई को फोन किया। जब मैंने आवाज सुनी, *रोहित जी गए* ...एकदम मेरे हाथ से ब्रश छूटा और मैं बुक्का फाड़कर रोने लगी। रोने की आवाज सुनकर एकदम बच्चों की नींद खुल गई। बहू ,बेटा और पोता दौड़ते हुए ऊपर से आए और घबराते हुए पूछा," क्या हुआ पापा?"

 "रोहित जी गुजर गए।" पता नहीं कैसे इन्होंने संयम रखकर कहा। मैं तो एकदम संज्ञाशून्य हो गई थी। जिस फोन से इनको फोन आया था, उसी पर फोन लगाकर पूछा कि फ्लाइट कितने बजे की है।बेटी के देवर ने फोन किया था। उसी ने बताया कि दिल्ली से 5:30 बजे की फ्लाइट है।इन्होंने अपने भाई को फोन किया कि तू फटाफट एयरपोर्ट जा और जाकर जितने टिकट मिलें उतनी टिकटों का इंतजाम कर।उसने बाकी सब भाइयों को फोन कर दिया। शुक्र है उस समय सभी के घर में पैसे रखे हुए थे, क्योंकि मेरे सबसे छोटे देवर की 4 मार्च को शादी की 25 वीं वर्षगांठ थी।बैंकट हॉल बुक करवाया हुआ था। ढाई सौ कार्ड बँट चुके थे। सबको देने के लिए रिटर्न गिफ्ट आ चुके थे, किंतु उन सब बातों की परवाह न करके मेरी देवरानी भी एयरपोर्ट पर उपस्थित थी। देवर की टिकट बुक हो गई थी। वह हमारे साथ गया था। रास्ते में से ही उसने अपने कुछ दोस्तों को फोन किया और रोते हुए बताया कि आगे सबको बता देना कि मेरे दामाद की मौत हो गई है और अब फंक्शन नहीं होगा। वह चाहता तो फंक्शन हमारे बिना भी कर सकता था, क्योंकि बैंकट हॉल बुक था और सारा सामान आ चुका था, लेकिन मेरे घर में रिश्तों की अहमियत को समझा जाता है और मुझे और मेरे पति को मेरे सभी देवर देवरानियाँ माता-पिता का दर्जा देते हैं और सम्मान करते हैं। उस दिन सही मायनों में मैंने समझा कि रिश्तों की अहमियत क्या होती है।रिश्ते वही जो दुःख के समय आपके साथ खड़े हैं।

  मुझे तो होश ही नहीं था। बहू ने जल्दी-जल्दी मेरे,बेटे के और श्वसुर के कपड़े रखे और हम रोते कलपते एयरपोर्ट के लिए रवाना हो गए। सुबह एयरपोर्ट पर हम 14 लोग इकट्ठे थे। टिकट केवल चार लोगों की मिल पाई जिसमें मेरी टिकट नहीं थी। मेरा बेटा वहीं पर रोने लगा। बोला "वहाँ मेरा जीजा मर गया,यहाँ मेरी माँ मर जाएगी। कोई सी भी टिकट हो, किसी भी क्लास की हो, मगर माँ की टिकट चाहिए। इतनी देर मेरा देवर मेरी टिकट कराता रहा और बाकी के तीन लोगों ने अपनी चैकिंग कराई। मेरा भी सामान चैक करवा लिया था।मैं तो फ्लाइट शुरू होने से दो मिनट पहले फ्लाइट में चढ़ी। हमारी हालत देखकर और जिस तरह से हम रो रहे थे तो एयरपोर्ट वालों ने इतनी सहानुभूति अवश्य दिखाई कि मेरी चैकिंग कर ली थी। मैं बोर्डिंग गेट के पास खड़ी भी हो गई थी।मेरा देवर दौड़कर मेरी टिकट दे गया। फ्लाइट उड़ने में केवल दो मिनट बाकी थे, जब मैंने भागकर फ्लाइट पकड़ी। सारा रास्ता कैसे पार किया... मैं ही जानती हूँ।एक- एक पल... एक- एक युग के समान बीत रहा था। 

दामाद की उम्र केवल 39 वर्ष की थी और मेरी पुत्री मात्र 37 वर्ष की। दो छोटे-छोटे बच्चे। एक का तीसरी कक्षा का पेपर था और एक का प्रथम कक्षा का, जो दे भी नहीं पाए क्योंकि मृत्यु ही इतनी आकस्मिक थी। कौन सोच सकता है कि रात को दोनों पति-पत्नी आराम से बैठकर मूवी देख रहे थे। बस हुआ यह कि नॉन वेज चाऊमीन खा लीं और वह भी वोदका के साथ। उसके बाद केवल दो उल्टी और दो बार दस्त हुए। हालाँकि इतने मजबूत दिल के थे कि 104 बुखार में भी कभी शोर नहीं मचाते थे। उस दिन न जाने क्या हुआ कि मेरी बेटी से बोले-"अमित को बुला। मुझे हॉस्पिटल लेकर जाएगा।"

 काश! कि वह अपने बड़े भाई या पिताजी के लिए बोल देते क्योंकि उसके देवर को उतनी समझ नहीं थी। इतनी बीमारी में भी दामाद गाड़ी स्वयं चलाकर ले गये थे। हॉस्पिटल में डॉक्टर ने मॉनिटरिंग मशीन पर रखा तो वहाँ एक बार अटैक आया। पता लगा कि एक अटैक घर में ही आ चुका था। फिर एक अटैक आया और सदा के लिए शांत हो गए। डॉक्टर ने मृत घोषित कर दिया। बेटी के जेठ ने घर में आकर कहा- "पूनम! रोहित नहीं रहा।"

" नहीं रहा? क्या मतलब भैया?" 

  "मेरा मतलब इस संसार से विदा हो गया," जेठ ने रोते हुए कहा। 

  "नहीं! नहीं! ऐसा कैसे हो सकता है? सिर्फ दो उल्टी और दो दस्त ही तो हुए थे। अच्छे भले तो बैठे हुए थे। मैं कैसे मान लूँ?"

"अपने कपड़े बदल और मेरे साथ चल।" 

जल्दी-जल्दी बेटी ने गाउन बदला। सूट पहना और जेठ के साथ अपने सास- ससुर के घर गई। वहीं पर उनकी मृत देह को लाया जाना था। उसे तो यही समझ नहीं आ रहा था कि यह सब क्या हो गया? एक ही पल में उसकी तो दुनिया ही उजड़ गई थी।हम जब वहाँ पहुँचे तो वह बिल्कुल संज्ञाशून्य सी बैठी हुई थी। मुझे भी कुछ समझ नहीं आ रहा था। बस उसके गले से लिपट कर रोए जा रही थी।

 दाह संस्कार के बाद वहाँ से वापस आना मजबूरी थी। उसकी ससुराल भिलाई में है ,और हम दिल्ली रहते हैं।तेरहवीं वाले दिन हम 14 लोग भिलाई गए थे।

 दो साल तक तो मेरा रो-रो कर इतना बुरा हाल था कि मैं बिल्कुल पागल जैसी हो गई थी। मेरी हालत देखते हुए सबने यह निर्णय लिया था कि हर महीने मुझे जाने देते थे। 

 मेरी बेटी सास- ससुर से अलग रहती थी, क्योंकि मेरे दामाद का कारोबार चौपट हो चुका था।दस हजार गज की फैक्ट्री व हजार गज की कोठी भी बिक गई थी। माता पिता किराए के घर में रहते थे। जेठ ने किसी और कंपनी में नौकरी कर ली थी और दामाद ने रायपुर में किसी कंपनी में नौकरी करनी शुरू कर दी थी। एक बार कोई अलग हो जाता है तो घर में इतना सामान हो जाता है कि साथ में रहना मुमकिन नहीं हो पाता।

  दो वर्ष रायपुर में नौकरी करने के पश्चात उसी कंपनी की एक ब्रांच में भिलाई(दुर्ग) में नौकरी करनी शुरू की। माता पिता के घर के कुछ दूरी पर ही पास ही मकान मिल गया हालाँकि उनकी मृत्यु के उपरांत उसी लाइन में ही बेटी के श्वसुर ने मकान का इन्तजाम किया जिससे कि बेटी नौकरी करे तो बच्चों के लिए एक माॅरल सपोर्ट रहे। मैं हर महीने जाती थी और 10- 15 दिन बेटी के पास रहकर आती थी। वह नौकरी करने जाती थी और मैं बच्चों के स्कूल से आने के बाद पढ़ाई में बच्चों की मदद करती थी। घर के काम देखती थी। थोड़ा सा बेटी को भी अच्छा लगता था और मेरा दिल का भी कुछ बोझ कम होता था। दोनों एक दूसरे से दुख की बातें करके अपने-अपने मन का बोझ हल्का कर लेती थीं। छोटे बेटे का तो यह हाल था कि वो पापा की फोटो के सामने खड़ा होकर आरती उतारता था और बोलता था 'ओम जय प्यारे पापा। ओम जय प्यारे पापा।' उसके दिमाग में यह बात किसी ने बड़े प्यार से भर दी थी कि पापा एक अस्पताल में अपना इलाज करवाने के लिए गये हैं। अस्पताल में बच्चे नहीं जा सकते और बड़े भी नहीं जा सकते। जब पापा ठीक हो जायेंगे तो अस्पताल वाले अपने आप घर छोड़ जायेंगे। वह इतना छोटा था कि उसे कुछ समझ ही नहीं थी। मुझसे भी यही बातें कहता था- "नानी चिंता मत करो। रो क्यों रही हो?पापा जब ठीक हो जायेंगे तो अस्पताल वाले पापा को घर छोड़ जायेंगें।"बड़ी मुश्किल से अपने आँसुओं को काबू करना पड़ता था।जिन्दगी अपने रंग दिखा रही थी।दामाद की बरसी के बाद बेटी दिल्ली आई। जब आती है तो घर में सभी उससे मिलने भी चले आते हैं। पति के ही किसी दोस्त ने कहा कि मसूरी में क्यों नहीं देख लेती हो? हमारे ख्वाबों ख्यालों में भी दूर-दूर तक मसूरी नहीं था, लेकिन पति ने सोचा कि जाकर देखने में क्या हर्ज है? घूमना हो जाएगा। हरिद्वार, ऋषिकेश, मसूरी घूमते हुए वापस आ जायेंगे। बेटी का मन भी थोड़ा सा बदल जाएगा। थोड़ी आउटिंग हो जाएगी।वहाँ सिलेक्शन हो गया तो बहुत अच्छी बात है। नहीं हुआ तो कोई बात नहीं।

  हम टैक्सी करके मसूरी गए। स्कूल की डीन ने बेटी का डेढ़ घंटे तक इंटरव्यू लिया। पूरी तरह से संतुष्ट थीं।उसी समय बेटी को कहा कि वह ज्वाइन कर ले, लेकिन उसी समय ज्वाइन करना संभव नहीं था। उसने एक सप्ताह का समय माँगा। हम वापस दिल्ली आए और मैं उसी के साथ फिर भिलाई गई। घर के सारे सामान की पैकिंग की। वहाँ वह नौकरी पर जाती रही और मैं उसके पीछे घर के सामान की पैकिंग करती थी। कितना सामान दान किया... कितना सामान बेचा... डाइनिंग टेबल दामाद का ड्राइवर ले गया। ढ़ेरों कपड़े,बर्तन और खिलौने भी उसे और घर की सहायिका को दिए।कुछ क्रच में दान किये। दामाद को खिलौनों का इतना अधिक शौक था कि पूरी छत खिलौनों से भरी हुई थी। यहाँ तक कि जूते पॉलिश करने के लिए भी इलेक्ट्रिक मशीन थी। घर में एक से एक बड़ी सुविधाएँ थीं। बेहिसाब क्रॉकरी... बेहिसाब बर्तन... कितने बाँटे। कितने ही बेचे।

 जिस फैक्ट्री में दामाद काम करते थे,वह उनके दोस्त की थी।उसने काफी मदद की। हम लोग तो सामान की पैकिंग करके वहाँ से चल पड़े थे। सामान मसूरी बाद में पहुँचा था।दिल्ली से मैं गई थी जिससे कि उस सामान को बेटी के घर में व्यवस्थित करा सकूँ जो उसके अकेले के वश की बात नहीं थी।

 आज भी वह घटना याद आती है तो आँखों के आँसू नहीं रुकते। बच्चों को दिखाने के लिए अपने आपको मजबूत बनाना पड़ता है। इस वक्त भी जब मैं यह दास्तान लिख रही हूँ, मेरी आँखों से टपाटप आँसू बह रहे हैं।वर्ष 2010 में तो होली भी दो मार्च की ही थी, लेकिन किसी का दिल दुखी न हो, इसलिए खुद को मजबूत बनाना पड़ता है। यह जिंदगी न जाने क्या- क्या सिखाती है। एक आँख से आँसू बहते हैं तो एक आँख से हँसना पड़ता है। दुनिया का रंगमंच है ना। बहुत कुछ सिखा देता है। 

 केवल एक बात का सुकून था कि मेरी बेटी जहाँ नौकरी करती थक, वह बोर्डिंग स्कूल है। स्कूल कैंपस में ही उसको घर मिला हुआ था, जिसका कोई किराया नहीं देना पड़ता। बिजली, पानी, मेंटेनेंस... सभी कुछ मुफ्त। अच्छा भला मैस है। किसी की मर्जी है, खाना वहाँ खाओ या मर्जी है तो घर में बनाओ। स्कूल की अध्यापिकाओं के बच्चों की मुफ्त पढ़ाई है। मेरी बेटी के दो बच्चे हैं।दोनों की पाँच लाख रूपये साल की फीस है, जो नहीं देनी पड़ती थी। *(बड़ा बेटा अब काॅलेज में वैल्लौर यूनिवर्सिटी से कम्प्यूटर साईन्स कर चुका है। अब एक अच्छी कम्पनी मैं उसका सिलेक्शन हो गया है ।)* बारहवीं कक्षा तक उसकी ट्यूशन की क्लास भी होती थी। स्कूल की अध्यापिकाओं के बच्चों के लिए मुफ्त है। वह भी एक लाख ₹ साल की है, जो बेटी को नहीं देने पड़ते थे।सुरक्षा इतनी चाक-चौबंद है कि गार्ड मुझे जानता है, इसके बावजूद भी जब मैं जाती थी तो मुझे कैंपस के अंदर नहीं जाने देता था। अपने कमरे में बैठा लेता था और फोन करके पहले डीन से पूछता था कि पूनम मैडम की मम्मी आई हुई हैं। इनकी एप्लीकेशन आई हुई है क्या? बच्चे भी दिसम्बर की छुट्टियों में एक महीने के लिए दिल्ली आते थे। बच्चे सामान लेकर पहले ही गेट पर आ जाते थे। गार्ड को मालूम था कि हर साल बच्चे नानी के घर जाते हैं ,इसके बावजूद भी बच्चों को गेट से बाहर तब तक नहीं निकलने देता था जब तक कि मेरी बेटी वहाँ न पहुँच जाए। इसी बात का संतोष था कि मेरी बेटी एक सुरक्षित वातावरण में रह रही है। जो दुख उस पर पड़ा है, वह तो दूर नहीं हो सकता। जिंदगी भर दूर नहीं हो सकता। भुलाया भी नहीं जा सकता। बस इतना संतोष था कि सुरक्षित माहौल में रह रही है। दिल के संतोष के लिए यही काफी है। लेकिन अभी उसकी बहुत सी परीक्षाऐं बाकी थीं। वो फिर कभी।


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