महिला दिवस पर विशेष
महिला दिवस पर विशेष
लगता है मैं ऐसी भावनाहीन वस्तु हूँ, जिसका फर्ज़ है सबके आदेशों का पालन करना।जो मेरा सुख -दुख का संगी है,उसकी हर इच्छा का पालन करना मेरा कर्तव्य है, किंतु सलाह देने का मुझे कोई अधिकार नहीं है। वह कुछ भी कहते रहें, चुपचाप सिर झुकाकर सुनते रहना और एक आँसू भी न बहा पाना मेरी लाचारी है,और यह भी मेरी विवशता है कि रोना आते हुए भी मुझे हँसना पड़ता है...क्योंकि मैं नारी हूँ, जिसके लिए बड़े-बड़े उपदेशकों ने यही कहा है...
जब पति ऑफिस जाए तो पत्नी उसे अपनी मुस्कान से विदा करे और शाम को जब घर आए तो अपनी मुस्कान से उसका स्वागत।किन्तु आजकल तो पुरूष और स्त्री दोनों कंधे से कंधा मिलाकर काम करते हैं। अक्सर ऐसा भी होता है कि पत्नी पति से पहले दफ्तर जाती है। तब क्या पति का यह फर्ज़ नहीं बनता कि वह भी पत्नी को अपनी मधुर मुस्कान से विदा करे? आप कहेंगे, नहीं! पति का सिर्फ यह फर्ज़ है कि जब पत्नी दफ्तर जाए... तो उसे डाँटे फटकारे। रोज किसी ने किसी बात पर चख- चख करे।
लोग कहते हैं कि सुबह से घर से निकला आदमी शाम को घर में सही सलामत आ जाए तो गनीमत समझो।यदि घर से ही मूड खराब हो जाए तो रास्ते का तो भगवान ही मालिक है।लेकिन क्या यह बात सिर्फ पतियों के लिए ही लागू होती है? क्या सारे अधिकार सिर्फ पतियों के हिस्से में ही आए हैं?
आज नारी किसी भी क्षेत्र में पुरूष से पीछे नहीं है।स्त्री पुरुष समान रूप से गृहस्थी की आर्थिक कठिनाइयों को हल करने में लगे हुए हैं, बल्कि यह कहना कदापि अतिशयोक्ति नहीं होगी कि आज स्त्री को पुरुष से दुगुना काम करना पड़ता है।वह दफ्तर में तो काम करती ही है,घर में आकर भी उसे वही सब काम करने पड़ते हैं जो घर में रहने वाली महिला करती है। जब पत्नी भी पति के समान नौकरी पर जाती है तो क्या कभी पति ने भी यह सोचा है कि वह पत्नी को मुस्कुरा कर विदा करे।जी नहीं... पत्नी के हिस्से में तो केवल डाँट फटकार ही लिखी है।यदि बच्चा सुबह देर से उठता है या स्कूल के वक्त पर तैयार नहीं हो पाता है... क्योंकि बच्चों की आदत होती है सवेरे से उठते ही कुछ ऐसी फरमाइशें करना, जिन्हें पूरा करना संभव नहीं होता।कई बार तो बच्चा अपनी माँग बनवाने के लिए इतनी जिद पकड़ लेता है कि वक्त पर न माँ ऑफिस के लिए तैयार हो पाती है, न ही बच्चा स्कूल के लिये। पतिदेव को इतनी फुर्सत नहीं है कि वे बिस्तर छोड़कर उठ जायें और बच्चों को मनाने की कोशिश करें। या कम से कम एक बच्चे को ही सँभाल लें। जी नहीं। वो तो तब उठकर आयेंगे, जब दो बच्चे लड़ने लगेंगे और जोर-जोर से रोने लगेगें।आते ही एक- एक इतना करारा झापड़ दोनों बच्चों को मारेंगे कि दोनों का वहीं खड़े-खड़े पेशाब निकल जाएगा और एक जोरदार मुक्का पत्नी के जबाड़े पर रसीद करते हुए चिल्लाएगें... "उल्लू की.......साली से इतना भी नहीं होता कि कम से कम इन बच्चों को तो चुप करा ले। सालों ने नींद हराम कर दी है। चुप हो जाओ हरामजादों... वरना मार- मार कर खाल उधेड़ दूँगा" और पत्नी की तरफ मुखातिब होकर कहेंगे..... "और इस साली को इतनी अक्ल नहीं है कि बच्चों को कैसे टैकल करना होता है?"
इतना सब कुछ करने के बाद कमरे में जाकर सो जायेंगे।
बच्चे बेचारे मार खाकर रोते- रोते स्कूल चले जायेंगे।
जबाड़े पर मुक्का खाकर पत्नी का चूँकि होंठ सूज गया है अतः आज वह ऑफिस नहीं जाना चाहती। उसे अपनी लाचारी पर बहुत अधिक रोना आ रहा है। नौकरी करने के बावजूद वह अपनी इच्छा से अपने लिए कुछ नहीं ला सकती। पति की हर इच्छा पर कुर्बान होती है।हर क्षेत्र में उसके साथ सहयोग करती है और उसका यह फल!!!! वह सोचती है कि नौकरी छोड़ दे। कम से कम दिन भर अपने घर में कुछ आराम तो करेगी। जी भरकर अपने बच्चों को प्यार तो कर सकेगी। बार-बार चाहती है कि नौकरी छोड़ दे, लेकिन पति यह भी नहीं करने देते। चाहती है कि आज का आकस्मिक अवकाश ले ले, किन्तु जानती है कि इससे बात घटने की बजाए और ज्यादा बढ़ जाएगी और चूँकि वो समझदार पत्नी है, इसलिए बात को वहीं खत्म करने के इरादे से... चुपचाप सूजा होंठ लिये... आँखों में आँसू लिए... होठों पर मुस्कान ओढ़े... ऑफिस चली जाती है।
न जाने कितनी ही बार ऐसी बातें होती हैं, किंतु हमेशा चुपचाप सभी कुछ सहना होता है। इसलिए सहना होता है, क्योंकि मैं नारी हूँ और मैं नारी हूँ यह मेरा सबसे बड़ा सौभाग्य है।मैं जन्मदात्री हूँ। पुरुषों को मैंने ही तो जन्म दिया है।
मैं एक सबला नारी हूँ।नारी ही है,जो धैर्य धारण कर सकती है, किन्तु अपने कर्तव्य से पलायन कभी नहीं करती।गौतम की तरह शान्ति की तलाश में पति और बच्चों को सोते हुए छोड़कर जाने का बल नहीं दिखा सकती। अपने कर्तव्य से मुँह मोड़ने का बल नहीं है उसमें।वह पुरूष की तरह इतनी कमजोर भी नहीं है कि दुःख में जाम पीकर ग़म भुलाने की कोशिश करे और खुशी में भी जाम टकराकर जाम में डूब जाये।वह कम खाकर और ग़म खाकर घर और बाहर दोनों मोर्चे संभालती है।अपने कर्तव्यों को पूरा करने के लिए अपनों के द्वारा ही किये जा रहे सभी तरह के अत्याचारों को सहने का बल है उसमें।वह इतनी समझदार है कि अपनी गृहस्थी को बचाने के लिए उसे अपनी हार मान जाना मंजूर है। क्योंकि वो वैवाहिक जीवन की सफलता का मूल मंत्र जानती है कि:--
*जो हार गया वो जीत गया*
*जो जीत गया वो हार गया*
इसलिए वह खुशी-खुशी हार को भी उपहार समझती है।यदि स्त्री भी पुरुष जैसी कमजोर हो तो गृहस्थी उजड़ने में देर नहीं लगती।स्त्री शक्ति स्वरूपा है।
*शिव भी शक्ति के बिना शव हैं।*
सभी लोग औरत को ही समझदारी की सीख देते हैं।कभी सोचा कि पुरुष को कभी कोई सीख क्यों नहीं देता????
*सीख भी तो समझदार को ही दी जाती है।*
हाँ मैं नारी हूँ। एक सबला नारी। एक सबला नारी ही घर और बाहर दो मोर्चे संभालने में सक्षम है।तभी तो कहा गया है:--
*एक नहीं दो दो मात्राएँ, नर से बड़ी नारी*
*जब नर से बड़ी नारी, तो फिर कैसी लाचारी।*
