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Rupa Bhattacharya

Drama

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Rupa Bhattacharya

Drama

जीत

जीत

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“सुनिए जी, पंडित जी विधा के लिए नया रिश्ता लाएँ है। कल आप लड़के वालों के घर होकर आइये!”


“क्या फायदा विधा की माँ ! पंडित जी तो रोज एक नया रिश्ता लाते हैं। सब कुछ ठीक होते हुए भी रिश्ता तय नहीं हो पा रहा है। मैं इतनी सारी रकम खर्च करने में असमर्थ हूँ, मुझे काजल का भी ध्यान रखना है”


“सुनिए जी, हतोत्साहित न होइए जा के एक बार उनसे मिल तो आइये। क्या पता ये लोग पैसे के लालची न हो? हमारी विधा सुंदर, सुशील और पढ़ी -लिखी है। भगवान की कृपा से हो सकता है यहाँ बात बन जाए। आप तो जाने के पहले ही अशुभ सोचने लगते हैं”


“ठीक है तुम इतना कहती हो तो चला जाऊँगा पर उम्मीद कम हैं”


“आइये मनमोहन जी, क्या हाल चाल है?” मुस्कराते हुए सोमनाथ जी ने पूछा।


“मेरी बेटी”


“हाँ बेटी का फोटो लाएँ है?”


“जी”, फोटो सामने रखते हुए मनमोहन जी का दिल जोरों से धड़क रहा था।


“अच्छा ये बताइए आपकी बेटी कितना पढ़ी लिखी है?”


“जी वह बीए.एड. कर चुकी है, और यहाँ एक स्कूल में शिक्षिका है”


“अति उत्तम, अगले हफ्ते हम लोग आपके घर आकर शादी की अन्य बातें तय करेंगे। हम विजय को भी साथ ले आएँगे ताकि विधा और विजय एक दूसरे से मिल ले”


मनमोहन जी कुछ समझ नहीं पाये और अवाक होकर सोमनाथ जी की ओर देखने लगे


“अरे मनमोहन जी मैं आपकी जिज्ञासा दूर किये देता हूँ”


“आपकी बेटी जिस स्कूल में पढ़ाती है, उस स्कूल का सेक्ट्रेरी मैं ही हूँ, मैं आपकी बेटी को जानता हूँ। वह बच्चों के बीच काफी लोकप्रिय है। दरअसल मुझे घर में विधा जैसी बहू ही चाहिए। मैंने विजय से बातें कर ली है, वह राजी हैं। मैं अपने बेटे को पैसे से नहीं तौलूंगा। मनमोहन जी हमारे पास अनेक ऐसे रिश्ते आये, जो पैसे देकर विजय को खरीदना चाहते हैं, पर मैं उसे बेचूँगा नहीं। मेरे लिए शिक्षा के सामने पैसों का कोई मोल नहीं है। विधा स्कूल में अनेक बच्चों का भविष्य संवार रही है,अगर आप अनुमति दें तो मैं उसे अपने घर का भविष्य संवारने के लिए ले आऊं”


मनमोहन जी किसी तरह अपने आंसुओ को रोक रहें थे। उन्हें विश्वास ही नहीं हो रहा था कि विधा के लिए ऐसा रिश्ता भी मिल सकता है। मनमोहन जी हाथ जोड़ कर खड़े हो गए। सोमनाथ जी ने कहा “अगले हफ्ते हम सब आपके घर आएँगे”


कमरे से विजय निकल कर आया और सोमनाथ जी के पैरों को छुआ, सोमनाथ जी ने उसे गले लगा लिया।

घर पहुंच कर देखा, विधा की माँ दरवाजे पर ही खड़ी थी। विधा की माँ ने डरते- डरते पूछा, “क्या हुआ जी?”

मनमोहन जी ने मुस्कराते हुए कहा "इस बार विधा पैसों पर भारी पड़ीं। इस बार हमारी "विधा" की जीत हुई है”


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