जिद्दी औरत
जिद्दी औरत
विन्नी ने गाङ़ी में बैठते हुए एक बार फिर अपने घर की उस खिङ़की को निहारा जहाँ उसने अपने दोनों बच्चों को रोता हुआ छोङ़ा था।
"अरे विन्नी... बैठो भी, बहुत लेट हो रही है। कहीं जाम में फस गये तो कल्याण हो जाएगा।" कुणाल ने गेयर पर हाथ बढ़ाते हुए कहा।
"कुणाल आज मैं नौकरी से इस्तीफा दे रही हूँ।”
"पागल हो क्या विन्नी, महानगर के खर्चे... मालूम है ना... इतना आसान नहीं है सब कुछ, जितना दिखाई देता है।”
"मैं जानती हूँ कुणाल, अब तक अम्मा थी, सब संभाल लेती थी पर अब आया के भरोसे... दिन भर बच्चों की मासूम आँखें मेरा पीछा करती रहती है।”
"अभी थोङा वक्त बीतने दो, तुम चिन्ता मत करो, बच्चों को आया की आदत हो जाएगी, इतनी शानदार नौकरी है तुम्हारी। उसे छोङना तो बेवकूफी ही होगी,” कुणाल ने अपनी बात रखी।
"सब ठीक है कुणाल, पर मेरे बच्चों का बचपन वापस नहीं आएगा, मैं कम पैसों में घर मैनेज कर लूँगी, मैं बॉस से ये भी कहूँगी कि मुझे ऑनलाइन कुछ काम दे दे। अगर बात बनी तो ठीक है अन्यथा...।”
"अन्यथा... क्या विन्नी, बनी-बनाई पोजीशन बिगाङ़ रही हो तुम..." कुणाल की आवाज अब ऊँची हो गई थी।
"तुम जो भी समझो.. अब मैं अपने दिल की सुनूँगी, दिमाग की नहीं..." विन्नी ने धीरे मगर दृढ़ शब्दों में कहा।
"अजीब जिद्दी औरत हो तुम...” गुस्से में कुणाल का पांव ब्रेक पर पङ़ा तो गाङ़ी चरमरा कर रूक गई।
"हाँ... हाँ... मैं जिद्दी औरत हूँ... तुम नहीं जानते... मैं जानती हूँ बिना माँ के बचपन कैसा होता है। मेरी माँ नहीं थी... पूरा बचपन आया के भरोसे पली हूँ। वही कष्ट मेरे रहते मेरे बच्चे कतई नहीं उठाएंगे।" कहते हुए विन्नी ने गाङ़ी का गेट खोला और उतर गई।
"अरे विन्नी, तुम्हें दफ्तर तो छोङ़ दूँ यार... गुस्सा तो तुम्हारी नाक पर रहता है।” कुणाल ने गेट खोलकर बैठने का इशारा करते हुए कहा।
“नहीं.... सङ़क पार करते ही दफ्तर है। मैं चली जाऊँगी। मेरी नाक पर गुस्सा नहीं... आँख में माँ की ममता रहती है कुणाल। तुम नहीं समझोगे... इससे पहले कि मेरा ममता भरा निर्णय कमजोर पङ़े मैं उसे अंजाम देना चहाती हूँ।”
"शाम को अपने बच्चों की माँ से मिलना कुणाल।" कहते हुए विन्नी तेज कदमों से आगे बढ गई।