झल्लिवाला
झल्लिवाला
ये बात १९६१ जनवरी की एक सर्द सुबह की है। दिल्ली में सर्दियों के दिन थे, कड़ाके की सर्दी पड़ रही थी। मेरी माँ ने मुझसे दिल्ली की मंडी से कई सब्जियां लाने को कहा था। में टैक्सी में बैठकर मंडी पहुंचा। मैने सर्दी से बचने के लिए अपने को ऊपर से नीचे तक पूरी तरह गरम कपड़ों से ढक रखा था। टैक्सी से उतरते ही मैंने देखा के वहां पर बड़ी बड़ी टोकरियाँ लिये कई झल्लिवाले उम्मीद लगाये मेरी तरफ बढ़ने लगे। अभी उजाला भी नहीं हुआ था और काफी धुंध थी। उनमें से मैने सबसे पीछे और अलग को खड़े एक झल्लिवाले की तरफ इशारा किया और उसे आपने साथ चलने को कहा। वो मेरे पीछे चल दिया। मेने सब्जियां खरीदनी शुरू कर दी और हर बार वो सर से टोकरी उतारकर उसमें सब्जियां भरवाता गया। मैं सब्जियां खरीदता गया और वो उन्हें टोकरी में भरता गया और मेरे पीछे पीछे चलता गया। एक समय मुझे ऐसा लगा की टोकरी बहुत भारी हो गई थी और उससे वो टोकरी उठाई नही जा रही थी। तब मैंने उसकी तरफ ध्यान से देखा।
वो एक बूढा आदमी था, दुबला पतला सा। उसने अपने को सिर्फ एक टाट की बोरी से ओढ़ रखा था और घुटनों तक की एक पतली सी सफ़ेद मैली धोती पहने हुए था। आँखों में कीचड़ थी और उनमें से पानी बह रहा था। उसके पैरों में जूते भी नहीं थे, वो नंगे पैरों मंडी में जमीन पर पड़े ठन्डे और गीले पत्तों और बिखरे गीले कचरे पर चल रहा था। जब उसने फिर से टोकरी उठाने की कोशिश की तो वो काँप सा गया। मुझे महसूस हुआ कि वो अब और बोझ नहीं उठा पायेगा । मैंने उससे कहा, हम एक और को ले लेते हैं,आप अब वजन नहीं उठा सकोगे, मुझे अभी और भी सब्जियां लेनी हैं। वो बोला, बाबूजी में ही उठा लूंगा किसी और की ज़रूरत नहीं है। उस वक़्त मेरी समझ में कुछ नहीं आया। मैं उसे लेकर आगे बढ़ गया और मैंने कुछ और सब्जियां खरीदीं।
वो उन्हें टोकरी में भरता गया। मेरी ख़रीददारी पूरी हो चुकी थी। मंडी से बहार आकर उसने सारी सब्जियां एक बोरी में भर दी। सब्जियां ठंडी और गीली थी उसके हाथ भी गीले हो गए थे। उसने बोरी को सिलवा लिया और उसे टैक्सी में रखवा दिया।
मैं टैक्सी में बैठ गया। मैंने उसे एक पांच रुपए का नोट निकल कर दिया। उसने मुझे पथराई आँखों से देखते हुए अपना हाथ आगे बढ़ाकर बड़ी तहजीब के साथ सलाम किया और बोला, बाबूजी आपने मुझे बहुत दिया…बहुत दिया। मुझे उसकी आवाज में सच्ची दुआओं का आभास हुआ। मुझे लगा मुझे उसे और देना चाहिए था,हालां की पांच रुपये उस समय काफी समझे जाते थे । पर मैंने उसे पांच रुपए का एक नोट और दिया। वो फिर से वही बोला, बाबूजी आपने बहुत दिया। मैंने उसे पांच रूपए का एक नोट और देना चाहा, पर इतने में टैक्सी चल चुकी थी। मैंने सुना वो वही कह रहा था पर काफी पीछे रह गया था। मैं टैक्सी में बैठे बैठे सोचता रहा की उम्र के इस दौर में उसे इस मौसम में ऐसा काम करने की क्या जरूरत थी। क्या उसका कोई अपना नहीं था जो उसको संभाल सकता? मेरे दिल में यह बात रह रह कर आ रही थी की मुझे उसकी कुछ और मदद करनी चाहिए थी। कई साल बीत चुके हैं मगर में उस बात को आज भी भूल नहीं पाया हूँ और आज भी जब किसी ऐसे झल्लिवाले को देखता हूँ तो मेरी आँखों के सामने उस दिन की तस्वीर साफ़ उभर आती हे और मेरा हाथ अपने आप उसकी तरफ कुछ देने को बढ़ जाता है ।