Yogeshwar Dayal Mathur

Others Children

4.0  

Yogeshwar Dayal Mathur

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फूलझड़ियां

फूलझड़ियां

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ये  घटना लगभग ७४ वर्ष  पुरानी है।

मेरी छोटी बहन दो साल मुझसे छोटी है। उसे प्यार से गुड़िया भी बुलाते थे। मैं शायद तब ६ वर्ष का था और गुड़िया चार वर्ष की थीं।

हर दीपावली के पर्व पर पिताजी बहुत सारे पटाखे लाया करते थे।

पटाखे इतने सारे लाते थे की पड़ोसियों के बच्चों में भी बांटे जाते थे।

पटाखे बाँटने के बाद जो बच जाते थे उनको बराबर हम दोनों भाई बहन में बाँट दिया जाता था। उनमें फुलझड़ियां भी होती थीं।

उस रात हम दोनों को फुलझड़ियों के दो दो डिब्बे भी मिले थे। अपने अपने हिस्से के पटाखे लेकर हम दोनों बहुत खुश थे।

उस रात बहुत देर तक हम दोनों पटाखों को निहारते रहे। हमें दूसरे दिन दीवाली का इंतज़ार था।

बहन को गिनती तो नहीं आती थी पर वह भी मेरी तरह ही अपनी फुलझड़ियाँ को गिनने की कोशिश करती रही। फुलझड़ियों के डिब्बे भरे थे, बहन बस इतना ही समझ पाई थी। उसे गिनती नहीं आती थी। पर बहुत खुश थी ये देख कर की डिब्बे भरे थे और उसके पास भी उतनी ही फुलझड़ियां थी जितनी मेरे पास थीं । दोनों ने अपने हिस्से के पटाखे अपने सिरहाने के एक तरफ रख दिए थे और सो गए।

पता नहीं रात को कब मेरी आँख खुली और कुछ नियत ख़राब हुई।

मैंने चुप के से बहन के हरेक डिब्बे में से दो दो फुलझड़ियां निकाल कर अपने डिब्बे में डाल दीं और सो गया ये सोच कर की गुड़िया को पता नहीं चलेगा की मैंने उसकी फुलझड़ियाँ निकाल ली थीं।

सुबह जब मेरी आँख खुली तो देखा बहन फूट फूट कर आंसुओं से रो रही थी। दोनों हाथों में दोनों डिब्बों को लिए मुझे दिखते हुए बोली "कम हैं … कम हैं…  " उसे पूरे वाक्य बोलने नहीं आते थे पर वह इतना ही बोल पाई थी और फिर बिलख कर आंसुओं से रो पड़ी थी। उसकी फुलझड़ियां कम थीं वह ये कहना चाहती थी। उसे मुझपर बड़ा विश्वास था। वह हमेशा मेरे ही पास अपनी शिकायत लेकर आती थी। उसे कुछ भी चाहिये होता था वह मुझसे ही कहती थी। बड़ा प्यार था हम दोनों में। मन बहुत दुखी हुआ था उसे ऐसे रोते हुए देख कर। ये उसके साथ मेरा विश्वासघात था। इसका मुझे अहसास था और इसका मुझे दुख भी  था। मैं घबरा गया था पर चुप रहा। मैंने उसे अपनी सारी फुलझड़ियां देने की कोशिश की थी पर उसने सिर हिला कर उन्हें लेने से मना कर दिया था। उसे अपनी ही फुलझड़ियां चाहिये थी। मैंने किसी तरह उसे बहलाया था। थोड़ी ही देर में वह फिर से हमेशा की तरह खेलने लगी थी और शायद फुलझड़ियों की बात भूल गई थी। वह बहुत खुश मिज़ाज थी।

ये बात मुझे जीवन भर याद रही।

शाम को हम दोनों ने पड़ोसियों के बच्चों के साथ मिलकर दीवाली मनाई थी। गुड़िया जो फुलझड़ियां चाहती थी मैं उसे जला कर उसके हाथ में दे देता था।मैंने अपनी फुलझड़ियां भी उसे दे दी थीं। दी-यों की रौशनी में उसकी आँखों में ख़ुशी की चमक थी। वह बहुत ही खुश थी और प्यारी भी लग रही थी।

कहते है, रात गई बात गई। इस घटना को सालों बीत गए हैं।

कई  दिवालिया आईं और हर त्यौहार की तरह  ख़ुशी ख़ुशी निकल गई

वह प्यारी सी बहन अब गुड़िया नहीं है। अब वह अपने घर, बेटे बहु पोते पोतियों के साथ दीपावली मानती है। ये पर्व अपने परिवार के साथ अपने घर पर ही मनाया जाता है। मैं भी अपने परिवार के साथ दीपावली मनाता हूँ। हर दीवाली पर हम दोनों की टेलीफ़ोन से बात तो हो जाती है पर अब हम साथ फुलझड़ियां नहीं जला पाते हैं।

बहुत सुन्दर है ये पर्व , सरे परिवार को बांध कर रखता है और कुछ बीता समय भी याद दिलाता है।

जिंदगी के सफर में बचपन की यादें धुँधली पड़  जाती है। भाई बहन के रिश्तों की कशिश परतों में बदल जाती हैं।  परतें परिवारों में बंट जाती है।  नए रिश्ते उनकी अहमियत बदल देते है। गलतफहमियां उन्हें झुलस देती हैं। कशिश  कमज़ोर पड़ जाती हैं। रिश्ते बिखर से जाते हैं। पर कुछ घटनाएँ  गहरी होती हैं, याद रह जाती हैं।

 

पिछली दीवाली पर कुछ बच्चे मेरे सामने दीवाली पर पटाखे छोड़ रहे थे। उनमें एक प्यारी सी बच्ची भी थी। वह अपने हाथ में जलती हुई फूल-झड़ी लिए हुए थी। उसकी आंखों में चमक थी। उसे देखकर अकस्मात मुझे बचपन की अपनी गुड़िया की याद आ गई और फुलझड़ियों की चोरी की बात भी याद आई जो समय की गर्द में दफ़न हो गई थी। उसमें मुझे वही अपनी गुड़िया नज़र आई थी। मैंने उसके साथ बैठकर कुछ फुलझड़ियां जलाईं। बहुत सुन्दर दीपावली थी वह।

उस दिन मैंने फुलझड़ियों का एक भरा डिब्बा बचा कर रख लिया था, अपनी गुड़िया के लिए। पर अब वह मेरे साथ नहीं थी।

मैंने ये फुलझड़ियां संभाल कर रख लीं, गुड़िया को देने के लिए।

उस दीवाली के बाद पहला पर्व रक्षा बंधन का था जब मैं गुड़िया से मिल पाता।  रक्षा-बंधन के दिन मैंने गुड़िया को शगुन के साथ फुलझड़ियों का वह डिब्बा भी दिया।  फुलझड़ियों  को देख कर उसे आश्चर्य हुआ। मुझसे पूछा, ये फुलझड़ियाँ क्यों दी हैं, भैय्या ? मैंने कहा , "बस रख ले गुड़िया, दीवाली पर जलाना और इन्हें जलाते समय मुझे भी याद कर लेना। मुझसे और कुछ मत पूछ।" उसने उनको चुपचाप ले लिया था और कुछ नहीं बोली, खामोश रही।कभी खामोशी में बहुत कुछ छिपा होता है।

ये घटना, राज़ ही रह जाता जब तक गुड़िया ये कहानी नहीं पढ़ती  है। पर जब मेरी ये कहानी प्रकाशित होने वाली है तब ये राज़ कैसे रह पाता ? उसको पढ़ने का ख़ास शोक नहीं है। पर मैं इस कहानी की एक प्रति गुड़िया को देनेवाला हूँ। तब उसे  फुलझड़ियों की बात समझ आ जाएगी। हो सकता है बचपन की वह दीवाली भी उसको याद  हों  पर कभी बोली नहीं।

अच्छा लगा, मन में दबी हुई बात को कागज़ के कुछ पन्नों पर कहानी के रूप में लिख कर, जो  ज़बानी मैं शायद कभी नहीं कह पाता।


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