ईमानदार वृद्धा
ईमानदार वृद्धा
"साहब, मेरी पेंशन अभी तक नहीं आई। दो महीने हो गये हैं। घर में खाने को भी नहीं है। आप मेहरबानी करके मेरी पेंशन भिजवाने की व्यवस्था कर दें’ 70 वर्षीय विधवा वृद्धा पेंशन अधिकारी से सरकार द्वारा विधवाओं को मिलने वाली पेंशन के रुकने से परेशान थी।
"अरे अम्मा, मैं क्या कर सकता हूँ? मेरी जेब में या अलमारी में तो कोई तुम्हारी पेंशन पड़ी नहीं है जो मैं तुम्हें निकाल कर दे दूँ। दो घंटे से मेरा सिर खाये जा रही हो। मैं जो कह रहा हूँ वह समझ में नहीं आ रहा।"
अभी पेंशन अधिकारी और अम्मा में बात चल रही थी कि एक अन्य व्यक्ति वहाँ आया और आते ही उसने एक लिफाफा उक्त अधिकारी को पकड़ाया और कहा "सर, मेरी पेंशन आती रहनी चाहिए। रुकनी नहीं चाहिए।"
’रुको’ अधिकारी ने कहा और लिफाफे का मुँह खोल कर देखा और फिर बन्द कर दिया। उस लिफाफे में उक्त अधिकारी की "पेंशन’ थी। "अरे तुम चिन्ता मत करो, तुम्हारी पेंशन को कोई माई का लाल नहीं रोक सकता’ अधिकारी ने उक्त व्यक्ति को आश्वस्त किया। वह व्यक्ति चला गया।
"तुम अभी तक गई नहीं, तुम्हारे एक बात समझ नहीं आ रही।’ अधिकारी फिर बिफर पड़ा। वृद्धा लगभग रुआंसी सी हो गई थी। अधिकारी के कान पर जूँ तक नहीं रेंगी। सारी बात सुन रहे उस अधिकारी के मातहत एक क्लर्क ने वृद्धा को बुलाया।
वृद्धा उसके पास जाकर बोली, "भइया, तुम मेरा काम करवाओगे।"
"अरे नहीं अम्मा, तुम्हारा काम तो वही अफसर ही करेगा। तुम उन्हें कुछ दक्षिणा तो दे दो। तुम्हारे काम में बहुत मेहनत करनी पड़ेगी तब जाकर के तुम्हारा काम होगा।’ क्लर्क ने समझाते हुए कहा।
"अच्छा’ कहते हुए वृद्धा ने अपने पास से एक पुराना सा रुमाल निकाला। काँपते हाथों से उसे खोला। उस रुमाल में एक चाबी और एक सौ बीस रुपये थे।
"भइया, कितनी दक्षिणा दे दूँ। मेरे पास एक सौ बीस रुपये हैं। पचास रुपये दे दूँ’ वृद्धा बोली।
"पचास रुपये ... हा...हा....हा... अम्मा पूरी तरह से सठिया गई हो। पूरे दो हजार की पेंशन में से सिर्फ पचास रुपये। ठिठोली करती हो। बड़े अफसर हैं। बुरा मान गये तो समझो तुम्हारी पेंशन बन्द। तुम आज जाओ और कल एक हजार रुपये लेकर आना। वैसे तो वह अफसर पूरे एक महीने की पेंशन दक्षिणा में लेता है पर तुम्हारे लिये मैं सिफारिश कर दूँगा, अब तुम जाओ।"
कैसे जाये वृद्धा! "एक हज़ार रुपये"इतने रुपये वह कहाँ से लाये और इन एक सौ बीस रुपयों के अलावा वह घर में ढूँढेगी तो 100-50 की चिल्हड़ निकल आयेगी । वृद्धा की शक्ति जवाब दे रही थी ।
"भइया, कुछ तो रहम करो। खुदा से कुछ तो खौफ रखो। मैं और कितने बरस जी लूँगी। मेरे पास अभी तो इतने रुपये नहीं हैं। हाँ, मैं वायदा करती हूँ कि जैसे ही पेंशन आयेगी उसमें से 1000 रुपये मैं दे जाऊँगी"वृद्धा ने टूटती आवाज़ में कहा।
क्लर्क का दिल शायद पसीज रहा था। उसने वृद्धा को कहा "देखो अम्मा, तुम्हारे पैर कब्र में लटके हैं, झूठा वायदा नहीं करना। नहीं तो मुझे अपनी जेब से भरने पड़ेंगे।’
"भला हो तुम्हारा बेटा, तुम्हारा एहसान मैं मरते दम तक नहीं भूलूँगी। एक काम करो इस सौ के नोट में से पचास रुपये तुम रख लो, बच्चों के लिए मिठाई ले जाना’ उठते उठते वृद्धा बोली। क्लर्क को तो मानो साँप सूँघ गया हो। वह जड़वत हो गया। उसने अम्मा की ओर बिना नज़रें उठाये ही उसे जाने का इशारा कर दिया और वह सौ रुपये का नोट भी लौटा दिया।’
वृद्धा आफिस से बाहर निकल चुकी थी।
उसके निकलते ही अफसर खिलखिलाया और अपने मातहत को बोला "तुम बहुत सही चीज हो, बड़े कलाकार हो, तुमने कमाल कर दिया, अम्मा को एक हजार रुपये के लिए मनवा लिया। मैं तुम्हारी तरक्की के लिए बात करूँगा।" फिर अपने सभी मातहतों को संबोधित करते हुए बोला, "देखा तुमने, इस बाबू की तरह काम करोगे तो हम सब मिलकर ऐश करेंगे। तनख्वाह से होता ही क्या है? अब इन लोगों को देख लो बिना किसी काम के पेंशन मिल जाती है और ज़रा सी देर हो जाये तो चले आते हैं सिर खाने। परेशान करते समय खुदा से भी नहीं डरते। हम सारा दिन मेहनत करते हैं, पसीना बहाते हैं, धूल मिट्टी में सनी फाइलें खोजते हैं। अब इन्हें क्या मालूम? ये लोग तो कोई सारा दिन यहाँ बैठते नहीं। हमारी उलझन को ये लोग कैसे समझें? मुँह उठा कर चले आते हैं परेशान करने। अब अगर इनकी पेंशन नहीं आई है तो मैं क्या करूँ, तुम क्या करो? इनके चक्करों में हमें आफिस के टाइम के बाद भी रुकना पड़ता है। इन्हें कौन समझाए? अब हर महीने इस अम्मा को पूरे दो हजार रुपये की पेंशन आती है। एक बार एक हजार हमारी मेहनत के दे भी दिये तो क्या फर्क पड़ गया और कौन सा एहसान कर दिया। घर में अकेली ही तो है। 
;पति पहले ही गुजर चुका है। अपने ऊपर कितना खर्च लेती होगी, सारा कुछ बच जाता होगा।"अधिकारी बोले चला जा रहा था ।
इस बीच एक महीना जाने कब बीत गया पता ही नहीं चला। पेंशन आफिस में इस तरह से लोगों का तांता लगा रहता। लोगों की लाइनें देखकर अधिकारी और क्लर्क लोग बहुत खुश होते। जितनी लम्बी लाइनें उतनी अधिक दक्षिणा। लम्बी लाइनों का मतलब उनके लिये दीपावली के त्योहार से कम नहीं होता। जैसे चाहे जिसको निचोड़ लेते। कोई दुखी होकर जाता तो कोई यह सोचकर चला जाता कि ऐसे ही तो काम होता है। उधर क्लर्क ने कुछ सोचकर अम्मा की फाईल आगे बढ़ा दी थी जिससे कि अम्मा की रुकी हुई पेंशन मिल जाये। जो जो कमियाँ थीं वह खुद ही पूरी कर दीं। नतीजा यह निकला कि अम्मा के बैंक खाते में पेंशन पहुँच गई। पर अम्मा अनपढ़ थी उसे कुछ मालूम नहीं चला। वह एक महीने के बाद फिर पेंशन आफिस आ गई।
आकर उसने क्लर्क से पूछा "बेटा, मेरी पेंशन का क्या हुआ?"
क्लर्क बोला "अम्मा, तुम्हारी पेंशन तुम्हारे बैंक में पहुँच गई है, तुम वहाँ से जाकर निकलवा लो।"
"बेटा खुदा तुम्हें सलामत रखे। तुमने बड़ा नेक काम किया है। तुम्हारी इस नेक नीयती का तुम्हें जरूर फल मिलेगा।’ अम्मा कहे जा रही थी । "और सुनो, मुझे अपना वायदा याद है। अगर आज मैं बैंक न जा सकी तो कल जरूर चली जाऊँगी और पैसे निकलवा कर साहब का मेहनताना टाइम से दे जाऊँगी। बल्कि सीधे बैंक से यहीं आ जाऊँगी। अब मैं चलती हूँ। खुदा तुम पर रहमत बरसाये। क्लर्क ने सुना पर नीची नज़रें करते हुए अपना काम करता रहा।
अगले दिन वृद्धा बैंक खुलने से पहले ही बैंक जा पहुँची। सिक्योरिटी गार्ड ने कहा "अम्मा बैंक खुलने में अभी 15 मिनट हैं। यहीं बैठ जाओ। वृद्धा वहीं बैठ गई। 15 मिनट बाद बैंक खुला तो वृद्धा का पहला नम्बर था । उसने पेंशन के रुपये निकलवाये और रुमाल में बाँध लिये। बैंक से निकल कर वृद्धा ने रिक्शा किया और सीधे पेंशन आफिस जा पहुँची। जबकि आज उसे मन्दिर भी जाना था। आफिस में पहुँचने पर उसने देखा कि न तो सीट पर अफसर है और न ही क्लर्क। उसने अन्य लोगों से उनके बारे में पूछा तो पता चला कि दोनों पास ही के मन्दिर गए हैं और कुछ देर के बाद ही आयेंगे।
वृद्धा ने मन ही मन सोचा "मुझे भी तो मन्दिर ही जाना था, मैं भी मन्दिर हो आती हूँ।"धीरे-धीरे वृद्धा मन्दिर जा पहुँची। मन्दिर पास ही में था । मन्दिर में जब पहुँची तो उसे एक पुरुष रुदन सुनाई दिया। कोई जोर जोर से रो रहा था "हे भगवान्, मुझ पर दया कर ... मेरे बच्चे को बचा ले ... मेरे बच्चे को ज़िन्दगी दे दे। मैं तेरे दर पर आया हूँ। मुझे खाली मत लौटा। मेरे पापों को क्षमा कर दे। मैंने जीवन में जितने बुरे काम किए हैं मैं उनका पश्चाताप करूँगा। किसी तरह मेरे बच्चे को ज़िन्दगी दे दे। आज मैं तेरे दर से नहीं जाऊँगा।’ वह जोर जोर से विलाप कर रहा था। उसके साथ आया व्यक्ति उसे ढाढस बँधा रहा था।
वृद्धा भी धीरे धीरे अपने इष्ट के आगे पहुँचने का रास्ता बनाने लगी। लोग आपस में कह रहे थे "अरे ये साहब तो पास ही के पेंशन अफसर हैं। इनके बेटे का एक्सीडेंट हो गया है। खुदा से रहमत की भीख माँग रहे हैं। बच्चे की जान तो अब खुदा के हाथ में है। इतनी देर में अम्मा आगे पहुँच गई।
"अरे ओ भाईसाहब’ वृद्धा ने क्लर्क को पुकारा।
"देखो मैं अपना वायदा पूरा करने आफिस भी गई थी। चलो अच्छा हुआ तुम यहीं मिल गये। यह लो पूरे एक हजार रुपये हैं। तुमने मेरा काम करवा दिया। खुदा तुम्हें सलामत रखे’ वृद्धा कह रही थी ।
इतने में उसने देखा कि पेंशन अधिकारी उसके चरणों में गिरा पड़ा है और चीत्कार कर रहा है "अम्मा, मुझे माफ कर दो। मैंने तुम्हें बहुत तंग किया है। आज मुझे उसका फल मिला है। मेरे बेटे का एक्सीडेंट हो गया है। मेरे बेटे को बचा लो, अम्मा। तुम्हीं भगवान से प्रार्थना करो, तुम्हारी प्रार्थना तो भगवान जरूर सुनेगा।"
"अरे बेटा, पहले यह एक हजार रुपये रखो। मैं अपना वायदा निभाऊँगी तो ही तो भगवान मेरी सुनेगा। वह बेइमानों की नहीं सुनता। यह एक हजार रुपये रखो। तुम्हारे बेटे के इलाज में कुछ काम आ जायेंगे। मैं भगवान से प्रार्थना करती हूँ तुम्हारा बेटा ठीक हो जायेगा। उसे कुछ नहीं होगा।"
अफसर की चीत्कार में अब उसका रुदन भी मिल गया था और मंदिर में केवल उसी की आवाज़ सुनाई दे रही थी "हे ईश्वर तू तो सबके हृदय में बसता है। तू तो अन्तर्यामी है। आज मेरी नहीं तो इस अम्मा की ही सुन ले जो ईमानदार है।"
इन्सान भी अजीब है, दुआ के वक्त समझता है कि खुदा बहुत करीब है और गुनाह के वक्त समझता है कि खुदा बहुत दूर है ।