vishwanath shirdhonkar

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4.4  

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हजार मुंह का रावण

हजार मुंह का रावण

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हजार मुंह का रावण !!

“ ठहरो ! “                                 

डायनासोर से भी कई गुना बड़ा और भारी भीमकाय भ्रष्टाचार दौड़ते दौड़ते बड़ी मुश्किल से ठहर पाया I फिर भी वह बहुत आगे तक आ ही गया था I उसके पावों में लाखों अश्वों का बल आ गया था और अनेक हाथियों के पेट से भी बड़ा भारी उसके पेट का आकार हो गया था, इसलिए उसने खुद को सम्हालने में बड़ा समय लियाI ठहरने के बाद वहीँ खड़ेखड़े बड़े कष्ट से उसने अपनी गर्दन घुमा कर थोडा पीछे की ओर देखा और पाया कि लोकतंत्र उसके पीछेपीछे दौड़ा चला आ रहा थाI भ्रष्टाचार ने यह भी देखा कि लोकतंत्र के पीछेपीछे लोकतंत्र के प्रहरी आम मतदाताओं की भी बहुत बड़ी भीड़ चली आ रही थीI लोकतंत्र हांफते हांफते भ्रष्टाचार के पास आकर रुकाI                    

“अरे ! कब से आवाज लगा रहां हूँ? ठहरने का नाम ही नहीं ले रहा?“ थोडा ठहर जा !“ लोकतंत्र ने तनिक नाराजी भरे स्वर में कहाँ !       

भ्रष्टाचार अपने भीमकाय शरीर को जरा भी हिला-डुला नहीं पायाI लोकतंत्र को ही उसके सामने आकर खड़ा होना पडाI भ्रष्टाचार के पीछे दौड़ते दौड़ते लोकतंत्र की ही सांस फूल गयी थीI लोकतंत्र की दयनीय स्थिति देख भ्रष्टाचार ने पूछा, “ इतने हांफ क्यों रहे हो? और मुझसे क्या काम हैं ?“ भ्रष्टाचार के स्वर में कुछ ज्यादा ही रुखापन थाI                 

“बताता हूँ I “ लोकतंत्र की सांस अभी भी ऊपर निचे हो रही थी I थोड़ी देर ठहर कर लोकतंत्र ने कहाँ, “ तुम अब हमारे इस देश में ज्यादा नहीं रुक सकतेI                               

“क्या हुआ ? “ भ्रष्टाचार ने बेफिक्री से पूछाI                  

“ हम सब ने अब यह तय किया हैं कि तुम्हारे लिए हमारे देश में कोई स्थान नहीं होगा और अब तुम्हें शीघ्र ही हमारे देश से चले जाना होगाI तुम्हें बाहर निकाले बगैर हममें से कोई भी चैन से नहीं बैठेगाI “              

“ सब ने तय किया हैं मतलब किसने तय किया हैं ? न्यायलय का आदेश हैं या सरकार ने तय किया हैं ?“                      

“ सब ने तय किया हैं और इसमें मैं भी हूँ और मेरी प्रजा भी शामिल हैं I “ 

“ ऐसे कैसे हो सकता हैं ? मैं तो पिछले कई वर्षों से यहाँ रह हूँ I अब मैं कहाँ जाऊं?“                               

“ कहीं भी जाओं I आस पडौस में इतने देश हैं वहां पर जाओं पर यहाँ से मुंह काला करोI “ लोकतंत्र ने कहाँ I                       

“ पर मैं ही क्यों जाऊं ? “ भ्रष्टाचार के चेहरे को अब थोड़ी चिंता की लकीरों ने घेर लियाI                             

  “ हाँ तुम I “ लोकतंत्र बोला ,“ तुम्हें ही जाना होगा I तुम्हारें कारण हम सब और हमारा देश बहुत दु:खी हो गएँ हैं I अब सहन नहीं हो रहा I “       

“लेकिन मैं तो यहाँ हजारों वर्षों से ही रहता आया हूँI “ भ्रष्टाचार बोला,“ बिलकुल रामराज्य के समय से ही मेरा यहाँ इसी देश डेरा हैंI तुम्हारा तो जन्म ही मेरे सामने हुआ हैंI मेरे सामने ही तुम छोटे से बड़े हुए हो और अब मुझे ही यहाँ से जाने के लिए कह रह हो? “               

“ हाँ, तुम्हीं जाओंI पहले तुम कितने दुबले पतले थे मतलब बिलकुल ही किसी की नजर में भी नहीं आते थेI थोड़ी सी बेईमानी थी पर वह ना के बराबर थीI अब ज़रा खुद की ओर देखोंI क्या हालत बना रखी हैं खुद की? सब के हिस्से का खा खा कर पहाड़ से भी ज्यादा बड़े हो गए होI गरीबों के हिस्से का खाते तुम्हें लाज नहीं आती? स्वार्थी हो गए हो तुमI घमंडी भी हो गए हो I मस्तवाल हो गए हो तुम I “ लोकतंत्र बोला I               

“ बहुत बडबोले हो गए हो तुमI “ भ्रष्टाचार बोला, “ करते तो कुछ हो नहीं तुमI तुम्हारे जा कहने से मैं चला जाउंगा क्या? उस महंगाई डायन की ओर तुम्हारा ध्यान क्यों नहीं जाता? गरीबों की थाली से रोटी, अनाज, दालचावल सब्जी तो छोड़ों प्याज तक चुराचुरा कर खा रहीं हैं रोजI गरीबों और दिन दुर्बलों का खाखा कर कितनी घमंडी और मस्तवाल हो गई हैं वहI इतना ही नहीं गरीबों के बच्चों के बदन पर से कपडे तक उतरवाएँ हैं उसने और उनको नंगा उघाडा कर के, हाल सहन करने के लिए खुले में छोड़ दिया हैंI कुल मिलाकर उस महंगाई डायन ने गरीबों से उनका सब कुछ छीन लिया हैंI हजारों किसान हर साल तुम्हारे देश में कर्जे से और गरीबी से तंग आकर आत्महत्या कर रहें हैं, यह तुम्हें और तुम्हारे नेताओं को दिखाई नहीं देता क्या? और फिर मैं तो पहले बिलकुल दुबला पतला ही तो था, किसी की नजर में भी नहीं आता थाI कोने में भी एक ओर पडा रहता था ना? मेरे अस्तित्व का किसी को अहसास भी होता था क्या? पर बीते सत्तर-पचहत्तर वर्षों में तुम्हारे ही बेईमान लोगों ने उनके स्वार्थ के लिए रिश्वतखोरी का जो जबरदस्त बाजार सजाया हैं और उन्हीं लोगो ने जबरदस्ती मुझे इतना खिलाया हैं कि कुछ मत पूछोI मैं तो तुम्हारे यहाँ के भ्रष्टाचारीयों का सबसे लाडला और चहेता बन गया हूँ और तुम कहते हो मैं चला जाऊं? “                 

“इसीलिए मैं कह रहां हूँ कि तुम यहाँ से हमेशा के लिए जाओंI पिंड छोड़ों हमारा, बहुत हो गया अबI मेरी भोलीभाली प्रजा को तूने बिगाड़ कर रख दिया हैंI उन्हें गलत राह पर ले गया और बहुतेरों का ईमान ही खरीद लिया हैं तूनेI क्या मिला तुम्हें उनके मुंह भ्रष्टाचार का खून लगा कर? सब का अगर विनाश ही होना हैं तो तू भी कहाँ बचेगा?“ लोकतंत्र ने दु:खी होकर पुछा I            

-“मैं अब कहीं भी जाने वाला नहीं हूँI परन्तु तुम्हें महंगाई डायन पर थोडा नियंत्रण करना चाहियें ताकि गरीबों का कुछ भला हो सकेI“ भ्रष्टाचार अकड के साथ बोलाI                       

-“अरे तुम्हें कुछ समझ हैं की नहीं? लोकतंत्र परेशान हो कर बोला, “तुम्हारे कारण ही तो महंगाई बिगडैल हो गयी हैंI तुम्हारी तो हमेशा ही उसे मदत रहती हैं और तुम ही उसे हमेशा बहकाते रहते होI“ “ अरे व्वा ! यह ठीक हैं तुम्हारा ? मेरी मुर्गी की एक ही टांगI“       

“ नहीं नहींI पहले मुर्गी या पहले अंडा इस बहस में मुझे नहीं पड़नाI“ लोकतंत्र बोलाI                              

“ नहीं पड़ना ना बहस में ? फिर क्यों मेरे पीछे पड़े हो?“ भ्रष्टाचार बोला, “देखों, महंगाई के कारण आम जनता को और गरीबों को कितनी परेशानी हो रही तुम्हारे देश में मालुम हैं ना ? तुम्हारे यहाँ तो इतनी अव्यवस्था हैं कि अनाज गोदामों में सड जाता और न्यायालय के निर्णय के बावजूद उसे भूखे मर रहें गरीबों मुफ्त बाटनें को तैयार नहीं होतेI करोड़ों रुपयों का अनाज भंडारण की व्यवस्था ना होने से बारिश में सड जाता हैं, करोडो रुपयों का अनाज चूहें खा जाते हैं? जीवनोंपायोगी वस्तुएं मिलती ही नहीं हैंI यहीं हैं तुम्हारी लोकतंत्रीय व्यवस्था? कितनी महंगाई हैं ? इसे देश निकला क्यों नहीं देते ? “ भ्रष्टाचार बोलाI                        

 “ मैंने कहाँ ना इस समय मुझें तुमसे कोई बहस नहीं करनाI तुरंत हमारे देश से बाहर हो जाओंI “ लोकतंत्र ने जोर देकर कहाँI           

“नहीं जाउंगाI“ उतनी ही द्रढ़ता से भ्रष्टाचार ने जवाब दिया, "बीते सत्तर वर्षों से तुम्हारे देश में एक मुहीम बड़े जोर शोर से चल रहीं हैं कि विकास चाहियें तो भ्रष्टाचार सहन करना होगा, ऐसा मैं नहीं तुम्हारे यहाँ के राजनैतिक दलों के नेताओं का कहना हैं यहI सत्तर वर्षों में लाखों-करोडो के घोटालों का यहीं तो इतिहास हैं और इन घोटालों को प्रश्रय देते सैकड़ों नेताओं की भी इससे अलग कोई कहानी नहीं हैंI अर्थात अगर देश को विकास की राह पर ले जाना हैं तो मेरी मदत तो लेनी ही पड़ेगी ना?“ भ्रष्टाचार ने गर्व के साथ कहाँ, “ अब देखों आज के क्या हालात हैं, हैसियत ना होते हुए भी अनेक नेताओं के पास शाही ठाटबाट के राजसी बड़ेबड़े बंगले हैं I आमदनी का जरिया भी नहीं बताते और कर भी नहीं चुकाते I जरुरत नहीं होने पर भी कई घरों में तीन तीन चार-चार से भी ज्यादा महंगी गाड़ियाँ सिर्फ शानोंशौकत का प्रदर्शन और समाज में झूठी प्रतिष्ठा बढाने के लिए खड़ी हैं I इतना ही काफी नहीं हर एक घर का हर एक कमरा वातानुकूलित हैं I इतना ही नहीं आज कईयों के पास अनेक दो पहियाँ वाहन और अनेक घरों के हर कमरे में टिव्ही होते हैंI बच्चों समेत घर के हर सदस्य के हाथ में दो दो तीन तीन मोबाईल देखने को मिलते हैंI बच्चे बाइक बिना बाहर निकलना भूल गए हैंI महंगे मॉंल में २४ घंटे भीड़ रहती हैं, भोगवाद और बाजारवाद अपने चरम पर हैंI जीवन में ऐशों-आराम और मौज-मजे यहीं एक मात्र उद्देश्य रह गया हैंI महंगे गहनों से सजीधजी औरतों की किटीपार्टी और बर्थडे पार्टियों की महंगे होटलों में भरमार रहती हैंI लाखों-करोड़ों के विवाह समारोहों की धूम हैंI अब आजकाल साधारण विवाह होते ही नहीं हैंI विवाह संस्कार की पवित्रता और विवाहसंस्था ही चरमरा गयी हैं I विद्यालय और महाविद्यालय की क्या बात विश्वविद्यालय तक सर्वसुविधायुक्त महंगे होटेल बन गए हैं I पैसे दीजिये और डिग्री लीजिये I पालक भी बच्चों को इन शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश दिलवाकर अपने आप में गर्व महसूस करते हैंI समाज भी ऐसी शिक्षण संस्थाओं और ऐसे पालकों को आदर के साथ देखता हैंI डीजल पेट्रोल के भाव कितने भी बढे वाहनों की बिक्री उससे कई गुनी ज्यादा हो रही हैंI किसी को कुछ भी फर्क नहीं पड़ता I बिजली के दर कितने भी बढे, एसी, फ्रिज, टिव्ही और अन्य इलेक्ट्रोनिक उपयोगी वस्तुओं की बिक्री भी कई गुना बढ़ गयी हैंI यह सब बिना भ्रष्टाचार के कैसे संभव हैं? और तुम क्या बात करते हो मेरे जाने की? तुम्हे पता हैं कितना लोकप्रिय हूँ तुम्हारे देश में? सच तो यह हैं कि यह लोगों को यह सब सुविधाएँ और विकास मेरी मदत के बिना संभव नहीं हैं और सबसे बड़ी बात यह कि आजकल तो एक भी ईमानदार आदमी तुम्हें ढूंढे से भी नहीं मिलेगा तुम्हारे यहाँ की व्यवस्था मेंI जान लो और स्वीकार कर लो यहीं हैं तुम्हारा भारत?“ भ्रष्टाचार ने बड़े अट्टहास से कहाँI भष्टाचार का सीना गर्व से फूल गया थाI                             

लोकतंत्र निरुत्तर हो गया I फिर कुछ देर बाद बोला, “ अब तुम्हें क्या बताऊँ? यह सब मेरे ही प्रजाजन हैंI मेरे ही भक्त हैं मेरे ही उपासक हैंI एक तरह से मेरे ही बच्चें हैं और अपने लाडलों के लिए क्या क्या नहीं सहना पड़ता? कुछ बिगडैल लोगों के स्वार्थ और विकृत मानसिकता के कारण सबका जीना कठिन हो बैठा हैंI इसलिए अब अधिकांश लोग यह सोचते हैं कि जीवन के लिए आवशक ऐसी सभी जरूरतें अगर अधिकांश लोगों की पूरी ना हो पा रही हो, अधिकांश लोगों को उन्नति करने का समान अवसर ना मिल पा रहा हो और वें पिछड़ा ही रहने को मजबूर हो तो मेरा उन्हें क्या उपयोग? वें सब तुम्हें ही इस के लिए जिम्मेदार मानते हैं और इसीलिए तुम्हारे विरुद्ध लोगों में बहुत नाराजी हैंI“ लोकतंत्र के चेहरे पर वेदना की लकीरे स्पष्ट दिखाई दे रही थीI 

सच तो यह था कि भ्रष्टाचार निर्धास्त था और आश्वस्त भी था कि लालफीताशाही की ववस्था और उसके पोषक तत्व उसे कहीं भी नहीं जाने देंगेI परन्तु उसे लोकतंत्र का मन भी नहीं दुखाना थाI   

“अरे पर हमारी तो दांतकटी मैत्री के संबंध हैं ना? यह तो सब को ही पता हैं? “                                

--सब के सामने भ्रष्टाचार के यह कहने पर लोकतंत्र शर्मिंदा हो गया और बोला, “तुम्हें भेंट और रिश्वत का अंतर समझना चाहियेंI सच तो यह हैं कि जरुरत के लिए और स्वार्थवश माँगी गयी या दी गयी रिश्वत होती हैंI मजबूरीवश दी गयी और मजबूरी का फायदा उठा कर खुद का स्वार्थ पूरा करना अन्याय और क्रूरता हैI अपनेपन से प्रेमवश दी गयी भेंट या कहलाती हैंI“        

 "बहुत ही बारीक अंतर हैं यहI“ भ्रष्टाचार हंसकर बोला, “ बहुत पतली रेषा बता रहे हो रिश्वत और भेंट कीI न्याय संगत भी नहीं हैंI प्रमाणिक भी नहीं हैंI सच तो यह हैं कि सभी सत्ता भ्रष्ट ही होती हैं और मुझे अपनाएँ बगैर विश्व में कोई भी सत्ता टिक ही नहीं सकतीI इसका प्रमाण कम ज्यादा हो सकटा हैं, फिर वह आटे में नमक इतना ही क्यों ना स्वीकार करना पड़ेI परन्तु आजकल तुम्हारे यहाँ नमक में बहुत ज्यादा आटा मिलाने की स्वछंदता सभी को प्राप्त हैं और यहीँ घातक हैंI                   

लोकतंत्र बहुत दु:खी हो गयाI भ्रष्टाचार उसे कई नेताओं और प्रतिष्ठितों के भ्रष्टाचार के किस्से एक एक कर सुनाने लगाI इसके अलावा वह नेताओं के भी अन्य अपराधों के किस्से भी एक एक कर सुनाने लगाI वह कह रहा था, “ औरतों बच्चियों पर बलात्कार, किसानों की रोज की आत्महत्याएं, गरीबों की भुखमरी, कभी ना ख़त्म होते घोटाले , रोज के हिंसक आन्दोलन , तोड़फोड़ , आगजनी , हिंसा, आये दिन शासकीय और निजी सम्पति को नुकसान पहुचांने की घटनाएं, साम्प्रदायिक हिंसाएँ, इन सब से तो तुम्हारा देश अब अभ्यस्त ही हो गया हैंI तुम्हारे यहाँ सभी स्वछंदी और उदंड हो गए हैंI ऐसा लगता हैं संस्कार और विनम्रता ना समाज का हिस्सा हैं ना व्यवहार काI सभी ओर दुश्मनी और ईर्ष्या देखने को मिलती हैं I फिर कैसे चलेगा तुम्हारा देश और कैसे टिकोगे तुम?“       -लोकतंत्र को कोई जवाब देते नहीं बन रहा थाI वह सोचने लगा कि क्या सच में ही आमजन, गरीब और निर्बल उसके रहते त्रस्त हैं? क्या करना चाहियें यह लोकतंत्र को समझ में हीं नहीं आ रहा था I कुछ स्वार्थी और गैर जिम्मेदार लोगों कों व्यवस्था कितने दिन तक बचाती रहेगी? आज तक तो बचाती ही आ रही थी ? पर एक न एक दिन तो सब को समझ आ ही जायेगी और सभी लोकतंत्र के साये तले ख़ुशी से रहेंगे ऐसा उसका अंदाज थाI पर वास्तविकता में ऐसा होता दिखाई नहीं दे रहा था I लेकिन फिर भी किसी भी कारण से लोकतंत्र भ्रष्टाचार से हार मानने के लिए तैयार नहीं था I वह बड़ी शांतता से भ्रष्टाचार से बोला , “ देखों ..... तुम्हें तो अब यहाँ से जाना ही होगा I अन्ना के आन्दोलन में जंतरमंतर पर यह सर्वसम्मत प्रस्ताव पास हुआ हैं I अन्ना और बाबा अब एक साथ आगये हैं I और उन्होंने सब के सामने अपनी यह भावना बोल कर बतायी हैं और दोनों ने यह कसम भी खायी हैं कि वह तुम्हें यहाँ से खदेड़ कर बाहर किये बगैर चैन से नहीं बैठेंगे I इसलिए अब तुम तुरंत ही अपने लिए कोई अलग जगह तलाश लो I तुम अब यहाँ नहीं ठहर सकते I “  

“ वह संभव नहीं I “ भ्रष्टाचार ने अट्टहास किया , “ अरे तुम अन्ना बाबा का क्या ले बैठे ? ये तो दो दिन के हैं I तुम्हारे यहाँ रामराज से शुरू करे तो भगवान राम समेत कई देवता हो गए , आगे भगवान महावीर ,भगवान् बुद्ध से लेकर महात्मा गाँधी तक और उनके आगे अम्मा , महाराज , बापू , श्रीश्री , और ना जाने ऐसे कितने ही आधुनिक संत महात्मा हो गए हैं और कितने ही घूम रहे हैं I कुछ हैं क्या किसी का असर ? तुम्हें मालुम हैं क्या कि भ्रष्टाचार से कमाएं धन को सबसे ज्यादा मंदिर , मस्जिद , गुरुद्वारा और चर्च तथा अन्य धार्मिक कार्यों में ही तो खर्च किया जाता है I तुम्हारे देश में भगवान् के मजे ही मजे हैं और उसके लिए भी और उसके नाम पर भी ज्यादा पैसा खर्च किया जाता हैं I आश्चर्य हैं कि मंदिर में भगवान् की हुंडी में करोड़े रूपये मिलते हैं और भगवान का असली भक्त मंदिर के सामने भूखा प्यासा बीमार लावारिस भगवान् का नाम रटते रटते मर जाता हैं I                

 लोकतंत्र तो भ्रष्टाचार के सामने निरुत्तर ही था I वह समझ ही नही पा रहा था कि भ्रष्टाचार को नियंत्रण में कैसे किया जाए ? परन्तु फिर भी उसने मैदान नहीं छोड़ा , “ अरे बाबा , मेरा काम तो व्यवस्थापन के लिए व्यवस्थापकों का चयन करना हैं I परन्तु तेरा काम चयनित व्यवस्थापकों को बिगाड़ना हैं और इस कारण व्यवस्था लाचार और लूलीलंगड़ी हो जाती हैं जिसके दुष्परिणाम दिन दुर्बलों को भोगना पड़ते है I “          

“ व्यवस्था ? “ भ्रष्टाचार को जोर की हंसी आगयी , “ व्यवस्था के कारण ही तो मेरी और सबकी मौज हैं I जिस व्यवस्था में रूपये पैसों के पहाड़े के सिवा कुछ भी नहीं होता उस व्यवस्था में गुन्हा और अपराध ही मिलेंगे ? संस्कार कहाँ से होंगे ? तुम्हें पता हैं क्या कि तुम्हारी व्यवस्था में पैसों का महत्व कितना बढ़ा कर रखा गया हैं ? तुम्हारे यहाँ इसे खुली अर्थव्यवस्था कहते हैं I वैश्वीकरण की मजबूरी भी कहते हैं और मेरे लिए यह सब व्यवस्था तो जीवनदायनी ही होती हैं , पर बड़ेबड़े शब्दों वाली यह व्यवस्था दिन दुर्बलों को कुचल कर रख देती हैं I ऊपर से आपका पूंजीवाद ? पैसा ....पैसा ....पैसा ... क्या कहते हो तुम लोग , पैसा खुदा तो नहीं पर खुदा से कम भी नहीं I हकीकत में पैसों को खुदा से ज्यादा बड़ा दर्जा दे कर रखा हैं इस व्यवस्था में I पैसों की तुलना खुदा से ? जब सभी पैसों को भगवान से बड़ा मानेंगे तो मेरी मदत तो सब को लेनी ही पड़ेगी ना ? सच तो यह हैं कि अर्थशास्त्र की परिभाषा , ‘ पैसा सब कुछ नहीं , पर कुछ तो भी हैं ‘ इसको कितनी आसानी से तुम्हारे यहाँ भगवान से भी बड़ा कर दिया ? और राष्ट्रीय और सामजिक मूल्य ? क्या हुआ इनका ? नैतिकता , प्रमाणिकता , संस्कार , अनुशासन , स्वाभिमान , सह्द्र्यता , संवेदनशीलता , नाते-रिश्तों की महक , प्रेम , आत्मीयता , राष्ट्रप्रेम , राष्ट्रभक्ति ये सारे के सारे मूल्य रुपयों के पैरों तले कबके कुचले जा रहे हैं I अब इन मूल्यों की वापसी कैसे हो सकती हैं ? “   

लोकतंत्र निरुत्तर हो चुका था I भीड़ में सबके सामने एक ही प्रश्न था कि लोकतंत्र और भष्टाचार की इस बहस में कौन बाजी जीतेगा ? लोकतंत्र भ्रष्टाचार को देश से बेदखल कर पायेगा क्या ? यहीं सवाल सभी जोर जोर से लोकतंत्र से पूछने लगे I भ्रष्टाचार ने बेतहाशा विकराल रूप धरण कर लिया हो पर लोकतंत्र भी मजबूत ही था , परन्तु अब एक दूसरे के कारण एक दूसरे के अस्तित्व पर ही संकट के बादल मंडराने लगे थे I लोकतंत्र अपने भ्रष्ट नागरिकों के आचरण के कारण बहुत व्यथित हो गया था परन्तु अब लोकतंत्र के लिए भी कुछ कठोर निर्णय लेने का निर्णायक समय आ गया था I उसने भ्रष्टाचार को धमकी भरे स्वर में चेतावनी दी , “ तुम यहाँ से तुरंत चले जाओं नहीं तो मेरे यें नागरिक तुम्हारे प्राण ले लेंगे I “                        

 “ मुझे ऐसा नहीं लगता I भ्रष्टाचार ने बिना विचलित हुए शांतता से कहाँ , “ ऊपर ऊपर से कह रहें हो तो भी अन्दर ही अन्दर मुझे सभी दिलों जान से चाहते हैं I मानवीय दुर्बलता जब तक हैं , जब तक यह स्वार्थ ज़िंदा हैं और जब तक स्वार्थपूर्ति के साधन उपलब्ध हैं तब तक मेरे प्राणों को कोई खतरा नहीं हैं I और फिर जिस तरह लोगों ने अपनी अवास्तविक और गैरजरुरी जरूरतें बहुत ज्यादा मात्रा में बढ़ाकर रखी हैं मुझे नहीं लगता कि लोगों की मानसिकता में कोई बदल लाया जा सकता हैं I इस हवस का और इस विकृत वृत्ती का तो आने वाली सदियों में भी शायद ही इलाज मिले I “ भ्रष्टाचार ने एक दीर्घ श्वास लिया फिर बोला , “ जहाँ लोभ वहां मैं I जहाँ मोह वहां मैं I जहाँ स्वार्थ वहां मैं I जहाँ द्वेष वहां मैं I जहाँ प्रतिशोध वहां भी मैं I समझे ? “ 

 -लोकतंत्र अब कुछ ज्यादा ही अस्वस्थ हो गया I विचलित हो गया I भ्रष्टाचार तो उसे जड़ से ही उखाड़ने पर तुला था I भ्रष्टाचार ख़त्म करने हेतु देश में आन्दोलन हो रहे थे I चारों और भ्रष्टाचार को मृत्युदंड देने के संकल्प किये जा रहे थे और लोग इस संकल्प में अपनी आहुति देने हेतु अपने अपने नाम भी लिखवा रहे थे और राजनैतिक दल इन आंदोलनों के जरिये अपना अपना स्वार्थ सिद्ध करने हेतु आमजन को भड़का भी रहे थे I आश्चर्यजनक यह था कि भ्रष्टाचार अब भस्मासुर हो चुका था और उसके मरने के कोई भी लक्षण दिखाई नहीं दे रहे थे I भ्रष्टाचार जिस पर भी हाथ रखता वह अपनी जान से हाथ धो बैठता , और जितनी बार भ्रष्टाचार को मारा जाता वह दुगनी ताकद से फिर से जीवित हो जाता I यह सब देख कर लोकतंत्र घबरा गया I   

“ भ्रष्टाचार ऐसे जाने वाला नहीं हैं I और नाही ऐसे मरने वाला हैं I “ लोकतंत्र ने वहां सबसे कहाँ , “ रावण के दस मुंह थे परन्तु इस भ्रष्टाचार के तो हजारों मुंह हैं I कोई सबूत कोई कानून उसे मृत्युदंड देने के लिए अपर्याप्त ही हैं I किसी व्यवस्था से भी उसका खात्मा नहीं होने वाला I परन्तु तुम सब अगर तय करो तो भ्रष्टाचार को ख़त्म किया जा सकता हैं I ”           

  “ हम सब तैयार हैं I “ भीड़ में से हर एक ने हाथ उठाकर जोर से चिल्लाकर कहाँ I                                

-प्रजाजनों का यह जोश देख कर लोकतंत्र भावुक हो गया I उसने कहाँ , “ प्रजाजन हो ! सबसे पहले हमें अपने नैतिक मूल्यों को सहेज कर रखना होगा I आज हम सभी यहाँ शपथ ले कि खुद के स्वार्थ के लिए किसी दूसरे किसी का , या समाज का , या देश का अहित नहीं करेंगे I नैतिक मूल्यों को हम अपने आचरण विचरण में अमल में लायेंगे I महत्वपूर्ण यह कि इसके लिए हम सब एक आदर्श परिवार , आदर्श समाज और आदर्श राष्ट्र की संकल्पना मन में रख तदनुसार उसकी रचना अपने जीजान से करेंगे I हम आदर्श और इमानदारी की परम्परा स्थापित करेंगे I और महत्वपूर्ण यह कि सबसे पहले हम अपनी अवास्तविक और गैर जरुरी जरूरतों को नियंत्रित करेंगे , कम करेंगे I इसलिए हम में से हर एक शपथ ले कि जरूरतें पूर्ण करने हेतु हम किसी भी गलत मार्ग का उपयोग नहीं करेंगे I यह संकल्प अगर हर एक लेगा तो ही भ्रष्टाचार को देश निकाला देना संभव हो सकेगा I                 

लोकतंत्र के कहें अनुसार सबने शपथ ली और भ्रष्टाचार को देश निकाले के संकल्प के साथ उसे अकेला छोड़ लोकतंत्र के साथ सब ने वापसी की राह पकड ली I वापसी की राह में हरएक एक दूसरे से एक ही सवाल पूछ रहा था , “ ये जरूरतें कम करना यानि क्या करना ? जरूरतें कैसे कम की जा सकती है ? “ परन्तु कोई भी सच बोलकर खुद को संकट में डालना नहीं चाहता था इसलिए सब को इसका उत्तर मालूम होने के बावजूद भी कोई इस बारें में बोलना नहीं चाहता था I सभी ने मौन व्रत ले लिया था I शांत भीड़ का प्रवाह लोकतंत्र के पीछे पीछे वापसी की राह पर था I              

इस सब शांत कोलाहल से दूर बेफिक्र भ्रष्टाचार जरुर शांति से गहरी नींद में सो रहा था I  


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