हिंदी में आत्मविश्वास

हिंदी में आत्मविश्वास

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हर इंसान का जीवन अपनेआप में संघर्षों से भरी हुई एक कहानी है। और हर किसी के सफलता का मायने अलग अलग होते हैं। विद्यार्थी जीवन अगर भाग्य से मिलता है तो मान लीजिए के वह हर व्यक्ति वो सुनहरा दौर होता है जो कभी वापस नहीं आता है। बस याद करके ख़ुशी का एहसास हो सकता है। ऐसे ही एक सुनहरे वक़्त की कहानी आगे आप पढ़ने वाले हैं जिसमे कैसे एक विद्यार्थी ने मेहनत करके हिंदी विषय और भाषा बोलने में एवं लिखने में अपना आत्मा विश्वास बढ़ाया है।


बात १९८० और १९९० दशक की है। ओड़िशा राज्य की राजधानी नगरी भुबनेश्वर में शेखर नाम एक विद्यार्थी एक निजी विद्यालय में पढ़ता था। विद्यालय में कई विषय थे पढ़ने के लिए। दोस्तों के साथ खेलना, मज़ाक करना , खाना पीना और कभी कभी पढ़ाई के बारे में बात करना भी होता था। उसके पिताजी आंध्र प्रदेश के पार्वतीपुरम नगर से केंद्र सरकार (भारत सरकार) की नौकरी के तहत भुबनेश्वर आए थे। शेखर की मातृभाषा तेलुगु थी। घर में माता पिता के साथ तेलुगु में बात होती थी और पिताजी कभी कभी अंग्रेजी समझा देते थे। और घर के बाहर ओड़िआ बोला जाता था क्योंकि ओड़िशा में ओड़िआ भाषी लोग अधिक हैं और ओड़िशा राज्य का राजभाषा ओड़िआ है। विद्यालय में सारे विषय जैसे अंग्रेजी, अंकगणित, विज्ञान, साधारण ज्ञान,इतिहास,भूगोल,सामाजिक शिक्षा,धर्म शिक्षा आदि अंग्रेजी भाषा के माध्यम में पढ़ाया जाता था। और हिंदी भाषा एक और विषय के तहत पढ़ाया जाता था। शुरुआती सालों में कक्षा ४ तक शेखर को हिंदी एक विषय की तरह ही लगता था। क्योंकि विद्यालय में अध्यापक अध्यापिका अंग्रेजी या फिर ओड़िआ में बात करते। और शेखर की कक्षा का अनुभाग "डी" जहाँ लगभग अलग अलग भाषाएं बोलने वाले बच्चे थे। तो आप सोच सकते हैं की वह सब हिंदी कैसे बोल पाते होंगे। इसमें कोई अचरज नहीं है क्योंकि किसी की भी मातृभाषा हिंदी नहीं थी सिवाय कुछ गिने चुने बच्चों के जैसे रिंकी शर्मा, अम्बर सरावगी। किसी भी भाषा में मज़बूत पकड़ तब आती है जब आप अपने आस पास हर दिन उस भाषा को सुनते हों। कक्षा में सिवाय अपने अध्यापिका के अलावा हिंदी का व्यवहार उतना था नहीं। इसी के चलते हिंदी परीक्षा में अंक ज़्यादा नहीं आते थे। १०० (सौ) में से कभी ६० ( साठ) या ४४ ( चौरालीस) अंक किसी परीक्षा में आते थे। और आज्ञापन परीक्षा में लगभग कई भूल। कक्षा पांचवी का वक़्त आया जो १९८७-८८ का शैक्षिक वर्ष था। उन दिनों दूरदर्शन और आकाशवाणी का बहुत प्रचलन था जिसमें हिंदी भाषा के कार्यक्रम ज़्यादा दिखाए जाते थे। हिंदी चलचित्र , चित्रहार और रंगोली कार्यक्रम में हिंदी चलचित्र के गीत, हिंदी धारावाहिक जैसे विक्रम और बेताल , दादा दादी की कहानियां आदि कुछ बच्चों के कार्यक्रम प्रसारित किये जाते थे। बुनियाद, हमलोग, गणदेवता, करमचंद, कथा साग , नुक्कड़ और "यह जो है ज़िन्दगी" कुछ गिने चुने साप्ताहिक धारावाहिक थे। वर्ष १९८७ जनवरी के महीने में दूरदर्शन में शुरू हुई श्री रामानंद सागर द्वारा निर्मित "रामायण" धारावाहिक जो हर रविवार सुबह नौ बजे देखने को मिलता था। उस धारावाहिक का प्रभाव बहुत पड़ा। क्योंकि उसमे नीति शिक्षा भी था और हिंदी भाषा बहुत ऊँचे स्तर पर था। समझना थोड़ा मुश्किल ही था। लेकिन अगर सौ शब्द सुने हों तो काम से काम दस शब्द तो याद ही रहेंगे। शेखर के पिताजी से डाँट मिलती थी और वो तो सरकारी दौरे पे रहते थे। माँ को हिंदी मालूम नहीं था। तो पिताजी ने कहा की ध्यान से कक्षा में सुना करो और घर में दूरदर्शन के हिंदी समाचार जो हर रात ८.४० को प्रसारित होता है , उसे सुना जाए। शुरू में तो शेखर को मुश्किल होता था। लेकिन उसे अपने कक्षा में सर्वश्रेस्थ ३ स्थानों में अपना स्थान भी पाना था परीक्षा में जिसे हम अंग्रेजी में रैंक कहते हैं। तो अब उसने ध्यान से हिंदी में लिखने का अभ्यास आरम्भ किया। वैसे कक्षा पांचवी तक श्रीमती मंजू हंस पढ़ाती थीं। और साल के शुरुवात में वह विद्यालय से चली गयीं अपने निजी कारणों के वजह से। और १० (दस ) साल की उम्र में बच्चों को क्या समझ होता है की किसी के बारे में पता करें। और ऐसे कोई अलग अध्यापिका कुछ महीने अस्थायी तौर पर पढ़ाती रहीं। वैसे उससे कुछ प्रभाव नहीं पड़ा शेखर पर। न व्याकरण पर कुछ रूचि था और ना ही साहित्य पर। रिंकी शर्मा हमेशा हिंदी में सबसे अधिक अंक इख़्तियार कर लेती थीं। जैसे तैसे कक्षा पांचवी ख़त्म हुआ जिसमें हिंदी में अंक आगे से बेहतर ही थे। अब आया कक्षा छठी का दौर। १९८८-१९८९ का वह वर्ष कहा जा सकता है जो शेखर के जीवन में और हिंदी में आत्म-विश्वास का नया मोड़ लाया। इस कक्षा में हिंदी का मानक थोड़ा अधिक होता है क्योंकि अब शेखर को मूल विषय के तहत "किशोर-भारती" किताब, गैर-विस्तृत के तहत "संक्षिप्त रामायण" और व्याकरण पढ़ना था। उनके लिए नई अध्यापिका "श्रीमती शाहबानू अज़ीम" पढ़ाने आयीं। आप पढ़ाई के मामले में बहुत सख्त थीं। हिंदी शब्दों में उच्चारण , वर्णयोग और व्याकरण के उचित प्रयोग पर बहुत ध्यान देती थीं। अच्छी बात यह थीं की कक्षा में ४० बच्चे होने के बावजूद, २० बच्चों को अज़ीम मिस पढ़ाती थीं और २० बच्चों को एक और अध्यापिका श्रीमती नीलिमा कुमार पढ़ाती थीं। उनके बारे में बाद में बताया जाएगा क्योंकि शेखर को उनसे भी हिंदी में तालीम कक्षा नौ और दसवीं में मिली थी।

पहले आते हैं कक्षा छठीं पर।अपने परिचय लेने के बाद , अज़ीम मिस ने साफ़ कह दिया की कोई भी कक्षा में पढ़ते समय बात नहीं करेगा। जहाँ भी मुश्किल लगे, अवश्य पूछना। कभी डरना नहीं। लेकिन बच्चे सभी उनसे डरते थे। क्योंकि उनका एक वाक्य था " एक खींच के देंगे तो दस दिन तक असपतम में पड़े रहोगे " वैसे आज तक उन्होंने कभी किसी भी बच्चे को हाथ तक नहीं लगाया। बस आँखों से ही सारे इशारे किये जाते थे। किशोर भारती किताब का पहला सबक था "अंगुलिमाल"। उस सबक को जिस जीवंत ढंग से मिस ने पढ़ाया, शेखर को हिंदी पढ़ने में रूचि आने लगी। फिर एक के बाद एक और सबक पढ़ाए गए। अब यह होने लगे की शेखर हिंदी कक्षा का इंतज़ार करने लगा। उसमे फिर संक्षिप रामायण का किताब। पहला वाक्य "त्रेता युग की बात है और फिर सरयू नदी के किनारे .. कहकर हिंदी अध्यापिका रामायण को विस्तार से समझनी लगीं। हफ्ते बीतते गए। सितम्बर १९८८ का महीना आया जब त्रैमासिक परीक्षाएं हुई थीं। हिंदी में शेखर ने ढंग से परीक्षा लिखा था। ६३.५ आंका आए थे सौ अंकों से। मिस ने सबको अपने अपने उत्तर पत्र दिए। शेखर की बार जब आई तो कहा " यह राजशेखर कौन है भाई ? " तो शेखर उठा और फिर मिस ने कहा की "तुम्हारे अंक वैसे ठीक हैं लेकिन तुम अगर ज़्यादा मेहनत करोगे तो और अच्छे अंक मिलेंगे। ग्राम्मर (व्याकरण ) में फुल मार्क्स (सारे अंक) मिल मिल सकते हैं अगर तुम चाहो तो ! बस सारे जवाब सही सही दो और मार्क्स अगली परीक्षा में ज़्यादा लाओ ! " शेखर के लिए यह बहुत बड़ी बात थी क्योंकि आज तक उसे कोई भी हिंदी अध्यापिका पांचवी कक्षा तक ऐसे समझाए नहीं थे। फिर क्या था ! आहिस्ता आहिस्ता शेखर अपने कक्षा में अध्यापिका जो पढ़तीं, वह सुनता। संत कवि तिरुवल्लुवर, फूलवालों की सैर , डब्ली बाबू जैसे पाठ बहुत यादगार थे। इस तरह मार्च १९८९ का वक़्त आ गया। व्याकरण में संधि का विषय आया और अज़ीम मिस ने समझाने का जो तरीक़ा अपनाया, वह याद करने लायक था। हर शब्द को कैसे विच्छेद करना है और कैसे जोड़ना है, यह सब समझाया गया। वार्षिक परीक्षाएं ख़त्म हुईं और अब शेखर का अपनेआप पर भरोसा बढ़ता गया। कैसे शब्दों का प्रयोग करना है और व्याकरण को किस तरह से पढ़ा जाए। यह सब अज़ीम मिस के बदौलत संभव हुआ था। फिर आया कक्षा सातवीं १९८९-१९९० शैक्षिक वर्ष। एक नए हिंदी अध्यापक आए थे। वैसे इन पर अब शेखर ज़्यादा निर्भर नहीं था क्योंकि हिंदी सीखने का नींव अज़ीम मिस पहले दे चुकी थीं। साल के बीच में श्रीमती नीलिमा कुमार आयीं। उनका पढ़ाने का ढंग अलग था। वह गद्य और कविताएं बहुत उछलदार जानदार तरीक़े से समझती थीं। शेखर को कविताएं एक सबक के तौर पर समझ में आता था। लेकिन कविताओं के मज़ा लेने का सोच श्रीमती नीलिमा जी से मिली। वैसे सातवीं कक्षा में छोटे छोटे कवितायेँ होती थीं। और संक्षिप्त महाभारत का किताब भी था। सौभाग्य यह था की १९८८-८९ और १९९० तक महाभारत धारावाहिक हर रविवार दूरदर्शन पर आता था। शीर्षक गीत शेखर को सुनते सुनते ज़बानी याद था। और ऊपर से हिंदी गाने बड़े अच्छे थे।

महाभारत धारावाहिक से बहुत अछि हिंदी सीखने को मिली। खासकर "मैं समय हूँ "। १२ - १३ साल की उम्र में इतनी गहरी समझ नहीं आती है। लेकिन शब्द ज्ञान अवश्य बढ़ जाता है। सातवीं कक्षा में शेखर को अम्बर ने हिंदी में बहुत सहायता किया क्योंकी उसके साथ हिंदी में बातचीत जो होती थी। अर्धवार्षिक परीक्षा में शेखर हिंदी में सबसे अधिक अंक १०० में से ७५ मिले। फिर आया १९९०-१९९१ का शैक्षिक वर्ष। इस बार श्रीमती अज़ीम फिर कक्षा आठवीं में आईं। अब किताब बदल चुका था। इस बार किताब का नाम था "आलोक-भारती"। मिस ने समझाया " अब वह दिन गए जो सबक के पीछे वाले सवाल के जवाब देकर अंक पा लेते थे ! अब सवाल किताब के किसी भी अंश से आ सकता है ! इसलिए आप सबको हर पाठ ध्यान से याद रखना पड़ेगा ! " और यह भी कहा "निबंध, पत्र लेखन, अनुछेद लेखन, व्याकरण का मानक अब बढ़ गया है। इसलिए क्लास में पढ़ाते वक़्त सभी सही तरह से सुनें। " कुछ सबक जैसे "चाचा छक्कन ने केले ख़रीदे", स्वामी दयानन्द सरस्वती , दोहे आदि हमेशा याद रहेंगे। प्रश्न के उत्तर बोल बोलकर ढंग से लिखवातीं। असली बात यह थीं की समास और अलंकार व्याकरण में दो ऐसे मुख्य अध्याय हैं जो आपके साथ सारे जीवन रहेंगे। जिस तरह से बहुव्रीह समास पढ़ाया गया, वो भुलाया नहीं जा सकता। अब आते हैं अलंकार। अज़ीम मिस ने जो अलंकार का विस्तृत ज्ञान दिया , वो जैसे स्थायी स्मरण हों गया। यमक अलंकार हों,अनुप्रास, उत्प्रेक्षा, उपमा , अतिशयोक्ति , रूपक और अन्योक्ति अलंकार। हर अलंकार का उदहारण कई बच्चों को हमेशा याद रह गयीं जैसे पास हीरे हीरे को खान , उसे तू कहाँ खोजता नादान !। " सुबरन को खोजत फिरत , कवि व्यभिचारी चोर !! " तो ऐसे होते होते वार्षिक परीक्षाएं ख़तम हुईं। और शेखर को अच्छे अंक ६८/१०० आ गए। शेखर इससे संतुष्ट नहीं था। अब कक्षा नौंवी और दसवीं शैक्षिक वर्ष १९९१-१९९२ , १९९२-१९९३ आए जिसमें श्रीमती नीलिमा कुमार आयीं। तीन किताब स्वाति (कविताओं के लिए), पराग (गद्य के लिए) और सचित्र हिंदी व्याकरण बोध तथा रचना पढ़ने का वक़्त आ गया। कविताओं का मानक भी अब अधिक था। शेखर को पुराने किताब मिल गए थे जिसमें कविताओं का व्याख्या पहले से थोड़ा लिखा जा चुका था। लेकिन उसने तय किया की अब वह अपने अध्यापिका का कहा हर वाक्य ध्यान से सुनेगा और लिख लेगा। क्योंकि घर में कोई हिंदी पढ़ाने वाला नहीं था और कितना हिंदी कार्यक्रम देखेगा। और १३-१५ साल का किशोरावस्था थोड़ा निर्णयात्मक होता है। अध्यापक अध्यापिकाओं का प्रभाव बहुत ज़्यादा होता है। और कविताएं जैसे सतपुड़ा के जंगल तो काफी हंसाने वाले थे। मिस भी हंसती और हंसाती थीं। विषय जैसे गौरा, सोना, कुशीनगर : तथागत का अंतिम दिन, बधाई का चक, कलेण्डर कलाकार आदि को बहुत सहजता से श्रीमती नीलिमा पढ़तीं थीं। और व्याकरण में उपसर्ग , प्रत्यय, पदबंध, वाच्य आदि इन्होने पढ़ाया जो ज़बानी याद था बच्चों को। और पढ़ाते वक़्त शेखर कोशिश करता की हर शब्द लिख ले क्योंकि ऐसे ऐसे अलफ़ाज़ वह सुनता था जो काफी रचनात्मक और काव्यात्मक थे। इन्हीं कुछ सालों में शेखर ने १९९२ में "हमारा देश है महान" नामक कविता अपने विद्यालय पत्रिका में दिया। कई बच्चे सोचने लगे की कहीं से उसने नक़ल किया है। कभी बोलते की अभी के अभी कविता लिखो। इतना आसान नहीं था। एक आड़ और कवितायेँ भी लिखा था शेखर ने "वक़्त" और " इंसान है कर्ज़दार।" कभी कभी तो उसके डॉट पूछते की क्यों इतना लिख ले रहा है जब मिस पढ़ा रही हैं ! क्या तुम हर बात लिख लेगा ! अब उनको क्या मालूम की कौन सा शब्द होगा जिससे अच्छे अंक मिल जाएँ ! इस तरह कक्षा दसवीं पूरी हों गयी और शेखर को हमेशा अपने दोनों हिंदी अध्यापिकाएं श्रीमती शाहबानू अज़ीम जी और श्रीमती नीलिमा कुमार जी से हिंदी में सही समय पर सही शिक्षा मिली जो जीवन भर काम में आई। वह हमेशा इनका आभारी रहा गया और अपने तहे दिल से आदर करता। कुछ दशक बीत गए। शेखर को लगा की वह हिंदी भूल गया है। खुशकिस्मती यह है की आज भी अपने अध्यापिकाओं से कभी कभी बात कर लेता है। उसने कवितायेँ और कहानियां लिखना शुरू किया साल २०१६ से। इसे पूरी तरह से साहित्य में कामयाबी कहा नहीं जा सकता। लेकिन हिंदी में एक आत्म विश्वास मिल गया है जिससे हिंदी बोलने वाले प्रदेशों में उसे कोई कठिनाई नहीं होती है। अपने बच्चों को भी हिंदी खुद पढ़ा पा रहा है। अपने अध्यापिकाओं के बारे जितना भी लिखा जाए कम है। आगे और भी नई मंज़िलें तय करनी हैं। यह तो बस एक पड़ाव है।


नीति शिक्षा : हमेशा अपने अध्यापक अध्यापिकाओं की बात सुनें। उनसे जो ज्ञान मिल सकता है, वह कहीं और नहीं मिलेगा। क्योंकि आप साल दर साल हर दिन ८ घंटे उन्हीं के साथ दिन का सबसे शक्तशाली भाग बिताते हैं। अपने गुरुजनों का आभारी सदैव रहें क्योंकि उनके आशीर्वाद में बहुत अपनापन और जीवन को कामयाबी की ऊँचाइयों तक लेने की ऊर्जा है।


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