गुरुकुल और बाबूजी

गुरुकुल और बाबूजी

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गुरुकुल और बाबूजी..

बात १९४७ की है ,विभाजन के समय की ।
मुज़फ्फरनगर का एक गाँव विरालसी की पूर्व दिशा में एक बड़ा सा कल्लर था जहाँ पर बहुत सारे बबूल के पेड़ थे जिनके बीच में एक प्राचीन भवन में गुरुकुल की स्थापना की गई थी।
मैंने जब इस गुरूकुल में दाखिला लिया तब मात्र १५ छात्र वहाँ पर थे और सिर्फ दो  गुरुजी थे। एक संस्कृत के प्रधानाध्यापक शास्त्री जी तथा दूसरे उनके सहायक अध्यापक प्रवासी जी ।
****** बहुत सख्त और कठोर नियम थे गुरूकल के। प्रात: चार बजे उठना रात को दस बजे सोना ।सुबह जल्दी ना उठने पर कठोर सजा मिलती ।कठोर सर्दी के दिनों में होज के ठन्डे बर्फीले पानी में नहाना पड़ता था।
रात को दस बजे तक एक दीपक के चारों तरफ बैठ कर जोर जोर से बोलकर हम अपना पाठ याद किया करते । हमारी रखवाली के लिये गुरूजी एक तख्त पर बैठे रहते कि कोई सो ना जाए।
एक दिन एक मजेदार घटना हो गई । गुरुजी को ही एक नींद का झटका आ गया और गुरु जी अपनी रजाई समेत धड़ाम से तख्त से नीचे गिर पड़े़। हम सब डर गये ।एक बच्चा चिल्लाया ," अरे गुरुजी बेहोश हो गये। "
गुरु जी ने ही बताया था कि बेहोश व्यक्ति पर पानी छिड़कना चाहिये होश में आ जाता हैं। बस हमने आव देखा ना ताव पास में रखी ठन्डे पानी की बाल्टी गुरु जी के ऊपर उडेल दी । इस भलाई की सजा में गुलाब की पतली कम्मच से जो धुनाई हुई वो आज तक याद है .
उम्र होगी कोई सात साल के करीब.!गुरुकुल के नियम बहुत कड़े थे !भरी सर्दी में देर से उठने वाले विद्यार्थियों को रातभर खुले में रखी ठंडे पानी की बाल्टी  से नहला दिया जाता था ,पिटाई भी खूब होती थी !
रोज की तरह उस दिन भी सभी बच्चे अपने अपने लोटे लेकर जंगल में शौच के लिये  जा रहे थे ! तभी वहां पेड़ पर एक लम्बा पतला सांप दिखायी दिया जो थोड़ी देर में तेजी से उछला और हवा में तेजी से उड़ता हुआ दूसरे पेड़ पर लटक गया ! पहले बच्चों को डर लगा पर बाद में यह सब देख कर मजा आने लगा ! तभी एक लड़के को शरारत सूझी और उसने अपना लोटा साँप की ओर फेंक दिया ! शरारत के लिये मशहूर लड़कों को खेल मिल गया बस बारी बारी से  सभी ने अपने अपने लोटे साँप की ओर उछालने शुरु कर दिये ओर तालियां बजा कर खुश होने लगे!  पहले तो साँप को कुछ समझ नही आया ,वो बचने की कोशिश करने लगा ! बच्चे खेल खेल में भूल गये कि वो खिलौना नहीं सांप है ! अब तक साँप नाराज हो चुका था अतः वह अब जो कोई बच्चा लोटा फेंकता उसी की ओर लपकता ! अब डरने की बारी बच्चों की थी ,वो डर कर भागना चाहते लेकिन किसी ना किसी के पीछे सांप होता ! अब इतने चतुर बच्चे उस जमाने में नही थे कि किसी एक को मुसीबत में छोड़ भाग खड़े होते ! पर समझ में किसी को कुछ नही आ रहा था कि करें तो क्या करें ! बस अब सभी अपने लोटे या जो भी ईंट पत्थर हाथ लगता साँप की तरफ फेंकने लगे ! अब संगठन की शक्ति और अकेले की लाचारी यहां प्रत्यक्ष काम कर रही थी पुनः बच्चों का हौंसला बढ़ने लगा  और सांप थकने लगा तभी भगवान ने भी बच्चो का साथ दिया ! हुआ यूं कि दो तरफ से दो पीतल के लोटे एक साथ आये तथा संयोगवश सांप उन दोंनो के बीच में कुचल गया तथा मर गया! तब बड़ी मुश्किल से बच्चे संकट से उबर पाये और अपने अपने लोटे उठा वापस गुरुकुल लौटे!हर शरारत का पता भी लगता धुनाई भी खूब होती । वही हुआ जहाँ अनहोनी के डर से गुरुजी डर गये वहीं छात्रों की मूर्खता से गुस्सा भी बहुत आया । सो जी भर पिटाई हुई ।
पिटाई से से जहाँ शरीर में पीड़ा हुई ,वहीं मन भी बहुत दुखी हो गया । मन ने कहा अब यहाँ नहीं रहना । यहाँ से छुटकारा पाने के लिये मन ने भागने की एक योजना बना ली । एक साथी और मिल गया और अपनी योजनानुसार प्रात: मुँह अंधेरें हम दोनों वहां से भाग निकले ।सुबह हाजिरी हुई; हम अनुपस्थित पाये गये । तेजी से खोज खबर शुरु हो गई। चार दल बनाकर संभावित स्थानों पर खोजा गया। हमें इतनी अक्ल नहीं थी उस वक्त कि हमारे भागने के बाद हमें कोई ढू़ंढने भी आयेगा ,उम्र ही कितनी थी ..,। हमें पकड़ कर वापिस गुरुकुल लाया गया । रस्सी से दोंनो हाथ बांध कर  जी भर धुनाई की गई तथा संकल्प कराया गया कि कि आगे से ऐसा नहीं करेंगे । हम तन मन से अपार दुख के साथ अपने कमरे में चले गये ।मन ने बेहद दुखी होकर ईश्वर से प्रार्थना की कि  ",हे प्रभु ! हमें यहां से मुक्ति दिला दो ,अब हमें यहां नहीं रहना ।बस अब तो कोई आये और हमें यहां से ले जाएँ।                                                  
अब गुरुकुल में बिल्कुल भी मन नहीं लगता था। बस एक ही मन था कि कोई आए और हमें यहाँ से ले जाए । एक दिन पता चला कि हमारे पिताजी और मौसी हमसे मिलने गुरुकुल आ रहे हैं। हमारी खुशी का ठिकाना ना रहा ।मन ने संकल्प कर लिया कि हम अब यहां नहीं रहेंगे ,उनके साथ ही चले जाएंगे।वो आए लेकिन अन्दर नहीं आने दिया गया। मुख्य दरवाजे पर मुझे मिलने के लिए भेजा गया।मैं पिताजी से लिपट कर खूब रोया।साथ चलने के लिए कहा बहुत जिद की ,लेकिन मेरी एक ना चली ।उन्होंने कहा ,"यहीं रहना है ,यहाँ पढ़ाई अच्छी होती है।"
वो मेरे लिए घी,मिठाई और गाजर का हलवा लेकर आए थे ।पर मैंने यह कह कर लौटा दिया सब ले जाओ ,यहाँ कोई कुछ नही खाने देगा ,सब छीन कर खा जाएंगे। तब उन्होंने कहा कि ठीक है जितना खा सकता हो यहीं खालो । तब मैंने गाजर का हलवा ले लिया तथा दोंनो हाथों से जितना खा सकता था ठूंस ठूंस कर खाया बाकि वापिस कर दिया। बहुत कहने पर घी मैंने रख लिया। और इस तरह से मुझ मायूस को भारी मन से पिताजी फिर उस जेल में रहने के लिए छोड़ गए। मैं दुखी और निराश मन से फिर गुरुकुल के उसी मुख्य दरवाजे से वापिस अन्दर चला गयी जहाँ से भाग जाने के लिए मैं रोज क्रान्तिकारियों की तरह नई नई योजनाएं बनाता। .

यहां कुछ अन्य बात बतानी आवश्यक हैं  वो ये कि गुरूकुल में गलती पर सजा भी मिलती थी तो प्यार भी मिलता था ।हम सभी बच्चे छोटे थे,शास्त्री जी हमें अपने बच्चों की तरह प्यार करते थे  ।बहुत शान्त जीवन था ।संस्कृत भाषा का विशेष अध्ययन होता,अंग्रेजी भी पढ़ाई जाती ।संस्कृत व्याकरण की दो पुस्तकें थी 'वृहद कौमुदी' और 'लघु कौमुदी'। संस्कृत के श्लोकों को अच्छे से रटना अनिवार्य था ।सब कुछ बहुत अच्छा चल रहा था कि एक दिन अचानक खबर आई कि झेलम गुरुकुल जो कि पंजाब में थाऔर अब पाकिस्तान में, के सभी छात्र और अध्यापक तथा कुछ अन्य लोग हमारे गुरुकुल मेंआ रहे हैं रहने के लिये।
यह बात है 1947में देश की आजादी के बाद भयंकर त्रासदी भारत पाक विभाजन की। भयंकर दृश्य, दर्दनाक कहांनियाँ ,बिछडे़ माता पिता,खोये हुए बच्चे ,सभी उदास और दुखी।अनिश्चय की स्थिति में भूखे प्यासे, तन पर वही कपड़े जो पहन कर चले थे,ना कोई बक्सा ना कोई सामान जिसे वो अपना कह सकें। हमारा शान्त गुरुकुल विरालसी शरणार्थियों की शरणस्थली बन गया।पढ़ाई लिखाई बन्द हो गयी,बस एक ही काम कि इन सबके लिये जो लगभग 70-80 की संख्या में थे , भोजन ,कपड़े,अन्य जरूरी आवश्यकताये कैसे पूरी हों। प्रात: काल की प्रार्थना जरूर करते थे लेकिन उसके बाद विभिन्न दिशाओं में टोली बनाकर गाँव गाँव ,घर घर पहुंचते और लोगों से याचना करते कि शरणार्थियों के लिये कपड़े ,भोजन पैसे जो कुछ भी दे सकते हो दे दो..
व्यक्ति के अन्दर भाव सम्वेदनाऐं कम नही होती । जिसने सुना उसी ने परिस्थितियों को समझा,अहसास किया और मुक्त हाथों से लुटा दिया।पहले कुछ दिन ऐसे ही चलता रहा ,हमें कुछ असुविधा हुई पर बाद में तो ये नियम ही बन गया ।
ये जीवन बड़ा विचित्र है ,अपार दुख में भी सुख न जाने कहां से निकल आता है ।निपट खाली हाथ ये लोग एक चीज अपने साथ ले आये थे जिसे ये लोग  'मैजिक लैन्टर्न ' कहते थे। वह एकछोटा सा स्लाइड दिखाने वाला उपकरण था जो कार्बाइड की गैस से लैम्प जलाकर प्रोजैक्ट के परदे पर चित्र दिखाता था । यह हम सबके लिये बड़े ही मनोरंजन और आकर्षण का केन्द्र बन गया था।उन दिनों सिनेमा देखना भी लोगों के लिए एक स्वप्न सा ही था अत: हमारे साथ साथ आस पास के गांव के लोंगों को भी यह बहुत पसन्द आया।क्योंकि हम लोग स्लाइड तैयार करते उस पर विभिन्न स्लोगन लिखते ,अपनी बात कहते तथा लोगों को इस विषय में बताते। बस  कौतुहलवश रात में उसे देखने के लिए देहात से लोग बहुत से लोग इकट्ठा हो जाते ।और इस तरह से इस मैज़िक लैन्टर्न के जरिये बहुत दिनों तक हमने शरणार्थियों के लिए आवश्यक सामान जुटाया।
प्रकृति स्वयं ही सभी बातों को सामान्य कर देती है।अब गुरुकुल में स्वयं ही लोग दान और सहायता करने के लिए आने लगे।कुछ लोग गुरुकुल के पास की कृषि भूमि पर कुछ शीघ्र उत्पन्न होने वाली सब्जियां उगाने लगे। धीरे धीरे स्थितियाँ सामान्य होने लगीं।
सामान्य कक्षाएं लगने लगीं। दोनों वक्त यज्ञ हवन,पूजा अर्चना आरती आदि गुरुकुल के नियमों के अनुसार होने लगी । लेकिन इस सबके बीच नजाने कब हम गौण हो गये और वो सभी शरणार्थी मुख्य, सम्भवत: सख्याबल के कारण। वो लोग हम सब पर हावी होने लगे ।घटनाएं घटने लगीं। जो प्यार हमारे आचार्य जी से हमें मिलता वो समाप्त हेने लगा। आचार्य जी भी यह सब देख एक समय के बाद गुरुकुल छोड़कर चले गये। बाकि सबकुछ ठीक  होने के बाद भी हम अपने को अनाथ सा महसूस करते।
जीवन और सजाएं पहले सेभी ज्यादा कठोर हो गईं। वही सुबह चार बजे उठना ,दस बजे सोना।भरपूर सर्दी का महीना ।सुबह आँख न खुलने पर रात में भरा हुआ रहट का पानी,रक्त जमा देने वाला। गलती की सजा यही थी कि खुली बर्फीली हवा में उस होज की टोंटी में से टप टप करता हुआ पानी के नीचे नहाने के लिये मजबूर किया जाता....

शरीर लकड़ी की तरह अकड़ जाता ,पर ना कोई रहम ना कोई सुनवाई।डर के मारे रात को नींद भी नहीं आती।फिर भी कईं बार गलती हो जाती ,बचपन की नींद जो थी कभी भी धोखा दे जाती और हम यह सजा भुगतते। काम भी खूब करना पड़ता था।खेत में रहट से पानी देना होता। कभी वो हाथ से चलाना होता ,बैल होने पर उनके साथ साथ चलना होता।कठोर परीश्रम,बालक मन,बढ़ती उम्र ।भूख बहुत लगती थी पर रोटी गिनकर दी जाती थी।दोपहर को चार फुलके और एक सब्जी और शाम को तीन रोटी और एक सब्जी या दाल बस।दिन में कभी कुछ हुआ ते कच्ची गाजर या मूली जो खेत में होती,मिल जाती थी। यही वह समय था जब हम गुरुकुल छोड़कर भागे थे और साथ साथ पकड़भी लिये गये थे ।लेकिन इस भागने की घटना के बाद हमें एक नया नाम मिल गया  और वो था -' सत्याग्रही '...।
अब गुरुकुल में बिल्कुल भी मन नहीं लगता था। बस एक ही मन था कि कोई आए और हमें यहाँ से ले जाए । एक दिन पता चला कि हमारे पिताजी और मौसी हमसे मिलने गुरुकुल आ रहे हैं। हमारी खुशी का ठिकाना ना रहा ।मन ने संकल्प कर लिया कि हम अब यहां नहीं रहेंगे ,उनके साथ ही चले जाएंगे।वो आए लेकिन अन्दर नहीं आने दिया गया। मुख्य दरवाजे पर मुझे मिलने के लिए भेजा गया।मैं पिताजी से लिपट कर खूब रोया।साथ चलने के लिए कहा बहुत जिद की ,लेकिन मेरी एक ना चली ।उन्होंने कहा ,"यहीं रहना है ,यहाँ पढ़ाई अच्छी होती है।"
वो मेरे लिए घी,मिठाई और गाजर का हलवा लेकर आए थे ।पर मैंने यह कह कर लौटा दिया सब ले जाओ ,यहाँ कोई कुछ नही खाने देगा ,सब छीन कर खा जाएंगे। तब उन्होंने कहा कि ठीक है जितना खा सकता हो यहीं खालो । तब मैंने गाजर का हलवा ले लिया तथा दोंनो हाथों से जितना खा सकता था ठूंस ठूंस कर खाया बाकि वापिस कर दिया। बहुत कहने पर घी मैंने रख लिया। और इस तरह से मुझ मायूस को भारी मन से पिताजी फिर उस जेल में रहने के लिए छोड़ गए। मैं दुखी और निराश मन से फिर गुरुकुल के उसी मुख्य दरवाजे से वापिस अन्दर चला गयी जहाँ से भाग जाने के लिए मैं रोज क्रान्तिकारियों की तरह नई नई योजनाएं बनाता।                                                            जब सच्ची लगन हो तो ईश्वर तुम्हारे लिए कोई ना कोई रास्ता निकाल ही देता है । मेरी मनोकामना को भी एक दिन ऐसे ही पंख लग गये। िता जी ने एक दिन एक नौकर को मेरे पास भेजा खैर खबर के लिए । मैंने मौका नहीं छोड़ा किसी तरह बहाने बना उसके साथ गुरूकुल से निकल लिया तथा उससे कहा कि मुझे मेरी नानी के पास छोड़ दे ,वह बहुत डर गया पर ना जाने कैसे बच्चा होने पर भी पूरा तिकड़मबाज था ,मैंने उसे रिश्वत दी ,डर और लालच दोनों ने मुझे नानी के गाँ पंहुचा दिया ,मैंने उसे गाँव के बाहर से ही विदा कर दिया वरना सारी पोल खुल जाती।
नानी ने बिन माँ के बच्चे को देखते ही गले से लगा लिया और घबराकर पूछा " कैसे आया ।"
मैंने सब बताया । हम दोंनो खूब रोये।
मैंने नानी से कहा ," अब मैं कभी गुरुकुल नहीं जाऊंगा।"
नानी ने कलेजे से लगा कर सान्त्वना दी।
सबको पता लग गया बिद्दो का बिरम्हु आया है ,गुरुकुल में पढ़ता है ,बहुत होशियार है।
शाम को चौपाल पर मामा ने बुलाया ।हाल पूछा ।
क्या पढ़ा आदि आदि ।
खुश होके कईं कठिन श्लोक सस्वर सुना दिये अर्थ सहित । सब बहुत खुश हो गये ,बहुत सारी प्रशंसा मिली । मैं फूला ना समाया । नानी ने जब बताया कि अब ये गुरुकुल नहीं जायेगा ।तब नाना मामा ने अच्छी पढ़ाई की दुहाई देकर वापिस गुरुकुल भेजने की बात की । मुझे अपनी मूर्खता पर पछतावा हुआ कि श्लेक क्यूँ सुनाये । लेकिन अब मैंने ठान लिया था कि गुरुकुल नहीं जाऊँगा । जिद करके कह दिया कि जबरदस्ती करोगे तो कहीं और भाग जाऊंगा । बिन माँ के बच्चे का दुख और विद्रोह से नानी डर और ममता से भर गया और मैं नानी के पल्लु के सहारे गुरुकुल की यातनाओं से मुक्त हो गया ।
लेकिन गुरुकुल की पढ़ाई और अनुशासन आज भी ऐसे याद है जैसे कल ही की बात हो।

                                                                                                     

 


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