गली का कुत्ता
गली का कुत्ता


उसके दूध से भरे स्तनों को देखती हूँ तो गला भर आता है....
कॉलोनी की ऐसी कौन सी नाली या गली होगी...जहां उसने अपने दो महीने के दुधमुंहों को ना ढूंंढा हो।
पिछले कई दिनों से, कुछ खाया भी नहीं और अपने निर्धारित जगह पर बैठना भी बंद कर दिया।
दिन भर टकटकी सी लगाए उसी गली को निहारती रहती है....
जहां उसके छोटे-छोटे बच्चे दिन भर इधर से उधर भागा करते थे।
सुबह से शाम और शाम से फिर सुबह.....
पर बच्चे नहीं आए, शायद वो जान चुकी थी कि अब वे वापस नहीं आएँगे।
मैनें जब उसके स
िर पर हाथ फिराया तो उसकी आँखो से गिरते आँसू मानो कह रहे हों...क्या कसूर था मेरे बच्चों का??
क्या इन संवेदनहीन इंसानों को मेरे बच्चों पर जरा भी तरस नहीं आया??
उनका कसूर सिर्फ इतना सा था कि लोगों के घर के बाहर पड़े सामानों को उठाकर खेला करते थे।
और फूलों की क्यारियों को अपने पंजों से खोद डालते थे।
इतनी सी बात पर कोई ज़हर देता है भला...इंसानों को शायद हम जानवरों से अधिक बुद्धिमान इसीलिए कहा गया है,
''आखिर हम गली के कुत्ते ही तो हैं।''