गहरे घाव

गहरे घाव

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 रात काफी हो गई पर नींद तो मानो रूठ कर कोसों दूर चली गई है, नींद आये भी तो कैसे गुजरा हुआ कल जो हावी हो गया था। वो दिन कभी नहीं भूलता जब मेरी भतीजी मेरी बगिया उजाड़ डाली थी। ना मैं बीमार पड़ती, ना वो आती ना ही कुछ ऐसा-वैसा होता लेकिन मेरी किस्मत ही खराब थी तभी तो सब कुछ विपरीत गति से चल रहा था, आयी तो थी मेरी सेवा करने को पर ऐसी घाव दे गई कि वो अब नासूर बनकर टिसती रहती है। ना जाने कब मेरे पति पर अपना आधिपत्य जमा ली। उसे ही क्यो कोसूं मेरे पति ही कौन दूध के धुले थे। वो घड़ी याद आते ही मेरे बदन में कम्पन होने लगती है जब दोनों को शरीरिक सम्बन्धो में उलझे हुये देखा था। पूरे बदन में बिजली सी कौंध गयी थी। करती भी तो क्या पर जब भतीजी विनीता से सामना हुआ तो उसे बहुत डांटा जो नहीं कहना चाहिए था, वो भी बोलती गई और चुपचाप रोती और सुनती रही, फिर मेरा पैर पकड़ कर कहने लगी, मुझे माफ़ कर दो। इतनी बड़ी ग़लती और माफ़ कर दूँ ऐसा भी होता है। मैं बोलती क्या मेरी तो ज़ुबान बेचारी बोले तो क्या बोले जब अपने ही पति इस पाप में भागीदार थे। इनकी तो मेरे सामने आने की हिम्मत ही नहीं थी आखिर किस मुँह से मुख़ातिभ होते। बड़े ही तनाव की विकट स्थिति थी। जी चाहता था कही चली जाऊँ पर कहाँ ? जाकर भी किसी को क्या बोलूंगी। एक तरफ पति दूसरी तरफ अपनी ही भतीजी, ऐसी बदनामी होगी कि समाज में सबों को मुँह दिखाना भी मुश्किल हो जाएगा।

 ना जाने मुझ में इतनी सहनशक्ति कहाँ से आ गई थी, सब कुछ भूल जाने की दिखावा करती रही, मन ही मन जहर की घूंट पीती रही तभी एक और तूफान दस्तक देने लगी विनीता को उल्टियाँ होने लगी मैं समझ गई वो पेट से है, फिर मैने जहर की एक और कड़वा घूंट पीने का फैसला लिया दोनो को मंदिर ले गई और भगवान के सामने दोनो की शादी कर दी। पति के इनकार करने पर भी मैं नहीं मानी। अपने सारे ख़ुशियों की आहुति दे डाली। सीने में इतनी भरी बोझ को ढ़ोती रही सिर्फ़ अपने परिवार की खुशी के लिए। जीती रही जिंदा लाश की तरह। अपराधबोध ने पति को कमरे में मेरे समक्ष आने की अनुमति नहीं दी। मेरी घृणा की ताप भी इतनी तीव्र थी कि वो शायद मेरे समक्ष आ कर भस्म हो जाता।

जी तो चाहता था कि सब को भस्म ही कर डालूँ। दिल ने कहा उसे भी मार डालूँ जो उस चरित्रहीन के कोख में आ चुका था, उसे नष्ट करके पाप की भोगी क्यो बनूं।  

अचानक चिड़ियों की आवाज़ से चौक गई, सवेरा होने ही वाला था, सोची सब कुछ भूल कर घण्टे दो घण्टे सो लूँ । मानसिक चिंतन और तनाव से बहुत थक चुकी थी,ना जाने आँखे कब झपक गई।

    


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