घर, मुझमें हम ढूंढ रहा है
घर, मुझमें हम ढूंढ रहा है
मुझमें आखिर वो बात कहाँ रह गई है कि घर को मुझमें खोजना पड रहा है।पहले हम अपने "हम " से भरपूर थे और घर अपने "शब्द की सनातनी सार्थकता" और तर्क की शाश्वता में मशगूल था।हमको यह विचार करना चाहिए कि घर अवयक्त जरूर है पर मूक और जड होने के बावजूद वह वो अर्थ वाला जीवन क्यों खोज रहा है जो मनुष्य को मनुष्य की प्रेरणा दे ? वह अनवरत जीवन में वह संवेदना उकेरने में क्यों जुटा है जिससे बडी से बडी जंग जीत ली जाती थी।यहाॅ तक कि घर का दरवाजा वह थपकी पाने को लालायित है जो हर टकटकी को सुबह के मिलने पर आत्मसात कर लेता था।
घर के छत वाले पंखे में वह बात पता नहीं, कहाँ गुम गई जो घंटे गिनता था और माॅ के फिक्र की तरह चीजें बैचैन रहती थी। जरूर अब हम घर और मकान के बीच का फर्क भूल गये हैं।कहीँ यह सच तो नहीं कि हमें अब हम इनके बीज बोने का वक्त ही नहीं तलाश पा रहे।निश्चित ही इसकी खेती खुशियों की फसल लेकर आती है लेकिन उसके लिए पारस्परिक विश्वास की जमीन और अपनत्व की उष्णता के बीज पास में होना आवश्यक है।घरौदें में रहकर फिर वही दादी की कहानियाँ सुनने और बरसात में बाहर निकलकर कागज की किश्तियाॅ तैराने की माद्दा पैदा करनी होगी जिसके प्रति वह संवेदनशील है।