Om Prakash Gupta

Others

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शहरों से न्यारा मोरा गांव

शहरों से न्यारा मोरा गांव

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     मनराखन बाबू फर्श पर बिछी चटाई पर बैठे थे और लकड़ी की चौकी पर कांसे की थाली में उनके लिए भोजन परसा जा रहा था। नैसर्गिक और छलहीन प्रेम और बड़े सम्मान के साथ छोटे भाई की पत्नी सुलोचना रसोईघर में चूल्हे पर भोजन बना रही थी और उनकी बिटिया जूही छोटी-छोटी कटोरियों में दो किस्म की सोंधी-सोंधी सब्जियां, एक बड़ी कटोरी में देशी घी से छौंकी दाल ला रही थी ।और दूसरी बिटिया काजल थाली के एक किनारे पर पत्थर के सिल लोंढे से पिसी हरी धनियां,हरा लहसुन और हरी मिर्च की नमकीन चटनी रखी रही थी। गरम गरम रोटियां एक एक कर दी जा रहीं थीं। बाबू जी रोटी का एक एक कौर तोड़कर कभी सब्जी तो कभी दाल या फिर किनारे पर रखी चटनी के साथ लगाकर मुंह में डालकर सबका स्वाद ले रहे थे।ले भी क्यों न? पहली बार अपने गांव के पुरखों वाले घर गये थे और घर में बने देसी तरीके से बने भोजन को खाने से उन्हें अपने स्वर्गीय मां और बचपन की खूब याद आई क्योंकि उनकी मां उन्हें ऐसा ही भोजन देती थी । सो सोचने से उनका दिल भर आया और खाने से मन भी। असीम प्यार, आनन्द और पुरानी याद से उनके आंखों से आंसुओं की धार बह चली।

      बाबू जी का ज्यादातर जीवन बम्बई शहर में बीता ।अभी वे कुछ समय के लिए अपनी पत्नी,बेटे और बहुओं को छोड़कर अपने बचपना याद करने के लिए जन्म भूमि (पैतृक गांव) आये थे। पुराने प्रतीकों के रूप खेत,बाग और पास की नदी ही दिखी। घर के एक कोने पर विरासत के रूप में प्तथर की चकिया दिखी , उन्होंने सोचा कि हमारी मां इसी हाथ वाली चकिया में सुबह सुबह मुंह अंधेरे गेहूं पीस कर आंटा बनाती रहीं होगी।शेष सब बदला हुआ दिखा। पगडंडी की जगह सड़क, मिट्टी के घरों की जगह ईंटों के पक्के घर, मिट्टी के तेल ( केरोसिन आयल) के कुप्पी की जगह बिजली के बल्ब, मिट्टी के चूल्हे और लकड़ियों की जगह गैस चूल्हा इत्यादि दिखे।‌उन्हें घर के ईंटों की दीवार में वो मिट्टी नदारद मिली जिसमें उन्हें कई पीढ़ी के पुरखों के हाथ का सोंधापन बसा महसूस करते थे ,बिजली के बल्बों पर मकड़ी के जाले जरूर दिखे पर चूंकि तेल की कुप्पी नहीं तो उन्हें उस पर जमीं तेल की काली पर्त का अहसास कैसे लगता जो उनकी दादी के झूर्रियों वाले उंगलियों,(जो कुप्पी को पकड़ कर हमारे खटिया के पास रखें लकड़ी के स्टूल पर रखने तक) का अहसास दिलाता और वो मिट्टी का लम्बा दो छेद वाला चूल्हा जिस पर हमारी दादी और मां दाल भात खाना बनाती और आम या महुए की लम्बी चिरी हुई लकडियां लगाती जिसके न जलने पर आधे घंटे या पन्द्रह मिनट तक लोहे या बांस की बनी फुंकनी से फूंकती और जल जाने पर उसकी आग में गेहूं की रोटियां सेंकतीं और मक्के तथा बाजरे की हथपोइया मोटी मोटी रोटियां बनातीं और गर्म गर्म और मोटी रोटियां खाने के लिए उन्हें देतीं।यह सब जब सोचता तो पुरानी दुनियां में खो जाते, पर जब उबरते तो पछताते कि इस गांव में मेरा बचपना खो गया।

     बाबू जी के चचेरे भाई कहते हैं कि हमारे घर से चार पांच घर छोड़ रमई काका का घर है गांव के सबसे पुरनियां मनईं है, कभी कभी घर आते हैं तो पुरानी बातें और किस्से सुनाते हैं कहते हैं कि तुम जिस जगह पर जो गोरू बांधते हो वहां तुम्हारे बाबा देवी परसाद का दालान था, चूंकि गांव के जमींदार थे तो गांव के तमाम लोगों का जमावड़ा लगा रहता था । घर के पिछवाड़े जो बेल और पपीते का पेड़ लगा रखे हैं वहां कुंआ होता था बहुत मीठा पानी था,जाड़े के दिनों में सबेरे पाँच बजे देवी साव जी कुएं का ताज़ा ताज़ा गरम पानी निकालते और उससे वैसे ही नहाते थे। जहां तुम पुआल का ढेर लगाये हो वहां घूर होता था जानवरों का गोबर उसी पर डाल दिया जाता था। मनराखन जब छ: सात महीने के थे तो उनकी मां घूर के पास जामुन के पेड़ के नीचे पुरानी कथरी बिछाकर सुला देती थी।

     मनराखन उसकी बात को ध्यान से सुनते और उसकी किस्सों में कुछ सोचते और खो से जाते । हमारे समझ में आ जाता कि इन्हें बीते समय की परिस्थितियों से बहुत लगाव है प्राकृतिक कठिनाइयां दुस्साध्य भी होंगी,पर उनको भली ही लगती।हो भी क्यों न? ये संवेदनाओं से भरे प्रेम के कच्चे धागे जरूर हैं परन्तु अगर यदि इनके पाश में मानवीय भावनाओं और अव्यक्त प्रेम की भाषाओं का प्यासा आदमी ऐसा फंसता है कि छुड़ाना नामुमकिन , ये बिल्कुल लोहे के जंजीरों से भी पक्के हो जाते हैं।समय के बदलाव के साथ सब दृश्य भी धीरे-धीरे स्वभावत: बदल जाता है पर बाबू जी में देखा कि वे इसको हज़म नहीं कर पाते और इस बदलाव को देख तड़प से उठते।

     पता नहीं कौन सा चुम्बक यहां की मिट्टी और माहौल में नजर आया जो अपनी आकर्षण शक्ति से उनके दिल दिमाग को सम्मोहित करता था। वे अक्सर कहते कि दिनेश बाबू ! जाने क्यों, शहरों से ज्यादा आनन्द हमको यहां मिलता है बस इतना समझो, यहां के लोगों का साफ दिलों से मिलना अथवा झगड़ना इतना प्यारा लगता है कि महसूस होता कि ईश्वरीय आत्मा का सच्चा बसाव यहीं है। हमें शहरों में बने फ्लैटों की ए०सी० की हवा अच्छी नहीं लगती। हमें लगता है कि यहां की मूंज और बान से बुनी खाली खटिया पर सोना ,स्लीपवेल के मोटे गद्दे पर आराम करने से बेहतर है।खाली खटिया में सोने से इसके नीचे से गांव की शीतल और सोंधी हवा जब शरीर को छूती है वह हमारे शरीर को आनन्द देने के साथ हमारी मां की तरह पोसती भी है । ए०सी की हवा में और मोटे गद्दे पर आराम करने से पीठ अकड़ जाता है।मन ही नहीं, आत्मा से टीस होती है कि काश हमारे इस गांव की रीत और रहवासियों का जीवन संगीत की तरह कृत्रिम सुख सुविधाओं से भरपूर ये शहर भी हो जायें।

      मनराखन बाबू अपने पिता के साथ दूसरे शहर में तीन साल से भी कम आयु में ही चले गये थे अब उनको किराए के मकान का वो दिन याद आ रहा जब वे अबोध बालक थे ।उस समय इसी गांव की जमुना बाई अपने पति के साथ उसी शहर में हमारे किराए के घर में आती तो हमारी अम्मा उसके पास बैठ जाती और मनराखन भी लगातार पढ़ाई से ऊबकर उन दोनों के पास बैठ जाते तो अपने मायके और इसी गांव की पारिवारिक किस्सों में बड़ी आत्मीयता से डूब जाते,भावुक होकर मां कहती कि इस शहर में आकर हमने अपना देश दुनियां और रिश्तों से भरापुरा छोड़ दिया और गांव के बीती बातों को सुध करके रोतीं। उस समय जमुना बाई भी मनराखन बाबू से कहती कि बाबू! चला ,अपने गांव । अपने परिवार के लोगन से मिल ल्या । वहां तुम्हारी जन्मभूमि है, पुरखों के लगाये बाग और खेत हैं। गाय, बैल,सुन्दर बंसवारी, आम ,बेल,पपीता और जामुन के पुराने पुराने पेड़ हैं। तुम तो पूरे गांव के लाड़ले हो, तुमको कोई कुछ नहीं कहेगा। पूरा गांव तुम्हारे इंतज़ार में पलक बिछाए बैठा है। तुम जाओ तो सही, सुबह-सुबह ताजा ताजा दूध, मौसम आने पर गन्ने का रस, दशहरी आम, जामुन, भुट्टा सभी मिलता है। अबोधता के कारण उस समय मनराखन को समझ में नहीं आता कि मां किसकी सुध करके रोती है और क्यों रोती है? और तो और,वो जमुना बाई इस तरह की संवेदनाओं वाली बात क्यों कहती हैं जिसकी गम्भीरता का उस समय उसके जीवन से कोई लेना देना नहीं।

    अब मनराखन को भी रोना आता कि उस समय के लोगों की भावनात्मक मूल्य क्या था और कितना था। यह समझ में भी आने लगा कि जरूर इन लोगों में ऐसी शक्ति है जिसके कारण इतने दुरावस्था में रहने के बावजूद निश्छल प्रेम भावना से जुट हैं और उन लोगों में बड़ा विश्वास हैं कि हम इससे जीवन की बड़ी से बड़ी जंग जीत लेंगे। शहरों में तो भावशून्यता इस तरह गहराई है कि भीड़ में होने के बावजूद हर व्यक्ति और परिवार तन्हा महसूस करता है और मूक होकर दिल से कहता नज़र आता है कि इन शहरों से प्यारा मेरा गांव है।कितनी विडम्बना है कि एक तरफ असुविधाओं से परिपूर्ण वातावरण है पर इनसे संघर्ष के बावजूद शांति ,आनन्द और संतोष का जीवन है,दूसरी ओर सुविधाओं का अंबार है,इनसे कोई संघर्ष न होने पर भी जीवन अशांत और असंतुष्ट हैं। काश ये दोनों एक दूसरे के आत्मसंतुष्टि के पूरक बन जायें और वर्जनाओं से परहेज़ करें।

      

       


       


       


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