एस टी डी

एस टी डी

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बड़ी बेचैनी से मैं एसटीडी बूथ के बाहर खड़ा था। अन्दर एसटीडी मे केवल एक ही फोन है। जिससे एसटीडी कॉल किया जा सकता है और पूरे बस स्टेंड मे एक ही एसटीडी बूथ है। उस दिन पहली बार मुझे पता चला कि छोटे शहर का क्या मतलब होता है। कम से कम एक एसटीडी बूथ तो और होना चाहिये था, जो उस दिन दुनिया में सबसे ज्यादा जरूरी चीज थी मेरे लिये।

आधुनिक युग मे इजाद किया गया, मनुष्य के शरीर का नया अंग, जिसे सब मोबाइल कहते हैं, किसी हृदयरोगी के दिल की तरह मुझे अचानक धोखा दे गया। आज ही उसे हार्ट अटैक आ गया और उसका बेलेंस जिन्दगी कि तरह खत्म हो गया।

काउंटर पर बैठा मरियल लड़का, काले कलर से कुछ मेल खाती जींस और एक टाइट टी-शर्ट जो उसकी जिम मे की गयी मेहनत के अवशेषोँ को सम्भाले हुए है और जो एक कुर्सी पर बैठा है और दूसरी कुर्सी पर दोनो जूते, जो शायद सफ़ेद खरीदे होंगे लेकिन अब पीलेपन कि ओर बढ़ चले थे, रखकर आराम फरमा रहा है। उसका मुँह गुटखा चबाने की मशीन लग रहा है और ये मशीन पूरी क्षमता से चल रही है। मशीन मे आये किसी कचरे की आवाज के जैसे वो मुझे एक बार बता चुका है कि "पह्ले दादाजी का हो जाये फिर आप लगा लेना।" ये बताते समय उसके चेहरे पर वही भाव थे, जो सरकारी हॉस्पिटल के कर्मचारियोँ के चेहरे पर होते हैं जब उनके आराम में कोई खलल डालता है।

बूथ के इकलौते एसटीडी फोन पर स्टिकर की तरह चिपककर, अपनी जिन्दगी से पूरी तरह हार चुका सा आदमी, ढीली ढाली स्वेटर और गले में मफ़लर डाले है और पेंट के साथ स्लीपर पहने हुए है। उसके सफेद बाल देखकर ये बताना मुश्किल है कि वो बदहवासी में ऐसा हो गया है या वो सीधा ही नींद से उठकर आ रहा है, फोन पर किसी को शायद कुछ समझाने की कोशिश कर रहा था। उसकी उम्र कुछ ६५ से ७० के आस पास होगी। इस उम्र में समझाने के लिये कुछ गिनती के ही लोग बचते हैं। पहले तो बच्चे जिनसे अभी भी माँ बाप कि उम्मीद पूरी तरह से खत्म नहीं हुई होँ। दूसरे, पेंशन ऑफ़िस के क्लर्क या अफ़सरान जो उनकी दूसरी उम्मीद होते हैं।

अपनी शरीक-ए-हयात को समझाने के लिये ये उम्र नहीं होती, क्योँकि या तो दोनोँ में से एक गंगाजी का आब-ए-हयात पी चुके होते हैं और परलोक मे अगले जन्म के लिये पंजीयन करवा रहे होते हैं, या फिर दोनोँ मे से एक अनुगामी हो जाता है और अधिकतर ये पति ही होता है, या फिर दोनोँ एक दूसरे को इतनी अच्छी तरह से समझ चुके होते हैं कि हर काम एक अनकहे समझौते के तहत होता है, जिसका फलसफा होता है "क्या फ़र्क पड़ता है यार।"

ये दादाजी शायद अपने बच्चोँ से ही बात कर रहे थे, क्लर्कोँ से नहीं, क्योँकि वो केबिन का दरवाजा बन्द होने के बावजूद इतना ध्यान रखे हुए थे कि आवाज बाहर नहीं जाना चाहिये। क्युंकि वो एक भारतीय हैं और भारत में कहा जाता है कि घर की बात बाहर नहीं जाना चाहिये। ऑफ़िस की बातोँ के बाहर जाने पर कोई प्रतिबंध नहीं है।

इसके अलावा कोई भी व्यक्ति किसी बाबु या अफ़सर से हुई बेइज्जती को सार्वजनिक रूप से एक बार सहन कर सकता है, पर अपने स्वजनोँ के द्वारा किये गये निरादर को नहीं, क्योँकि तिरस्कार करनेवाला और तिरस्कृत होने वाला दोनोँ की ही बदनामी में सारे खानदान की बदनामी है। और हमें रहना भी तो समाज में ही है, भले ही समाज हमारे इस एक फोन कॉल का भी बिल न दे।

इसी बीच लगता है मेरा मोबाईल फिर से वाइब्रेट होकर कॉल करने वाले की बेचैनी को मुझ तक पहुँचाने की भरसक कोशिश कर रहा है। मैंने उसे जेब से निकाला तो उसकी कंपकंपी आवाज में बदल गयी और वो अपनी रिंगटोन गाने लगा।

फोन उठाने पर उधर से आवाज आयी ”हलो ! कौन।“

मैं “हाँ ! मैं रोहित।”

सामने से “कहाँ हैं आप।”

“बस स्टैंड पर।”

“बस आ गयी क्या ?”

”नहीं अभी नहीं आयी। पर आने में ही होगी।”

“मैं किसी को भेजती हूँ वहाँ।”

“नहीं मैं घर आकर दे जाऊँगा।”

“अरे आप कहाँ परेशान होंगे, वैसे गाड़ी का नम्बर क्या है।”

“वैसे तो मैं आकर दे ही जाता पर अब जैसा तुम कहो गाड़ी का नम्बर है एमपी ०९ केजी ९०९०”

“ओके ! थैंक्स।”

मुझे अपने आप पर आश्चर्य हुआ। आज तक मैंने अपने पिताजी की बात भी इतनी जल्दी नहीं मानी जितनी जल्दी इसकी बात मान गया। माँ को भी जैसे तैसे अपनी बात मानने पर मजबूर कर ही देता हूँ पर आज क्या हो गया। इसे मैं जानता ही कबसे हूँ। केवल एक हफ्ते से। पर ऐसा लगता है वो मेरे सबसे अच्छे दोस्त से भी ज्यादा जानी पहचानी है। जबकि वो मुझे हफ्तेभर पहले तब मिली थी जब मैं अपने क्लासमेट और बेस्ट फ्रेंड जितेन्द्र ठक्कर उर्फ जीतु के घर पहली बार*****

मैं और जीतु हमारे कॉलेज के बीएससी(बायो) की क्लास में एकसाथ पढ़ते हैं। वैसे कॉलेज में पढ़ाई की दशा या कहूँ दुर्दशा को देखते हुए उसे पढ़ते हैं की जगह हम कह सकते हैं कि हमारा नाम उस क्लास में साथ में लिखा हुआ है और इसलिये हम क्लासमेट्स हैं।

अब बीएससी के स्टुदेंट्स होने के नाते हमारा ये कर्त्तव्य बनता है कि अपने मुख्य कार्य याने अपने शहर की गलियोँ की खाक छानने पर पूरा ध्यान केन्द्रित करेँ और प्रोजेक्ट फाइल्स, नोट्स आदी जैसे दीगर कामोँ को येन केन प्रकरेण पूरा कर लेँ। इसी में सबका कल्याण है। वरना बुढ़ापे में कहाँ आवारागर्दी का मौका मिलता है।

ये दिव्यज्ञान हमारे जैसे होनहार छात्रोँ को जन्म से ही प्राप्त हो जाता है। परन्तु ऐसे स्टुडेंट जो इस ज्ञान से अनभिज्ञ हैं और अपना सारा समय व्यर्थ की पढ़ाई में लगाते हैं। उन्हे हम कभी निराश नहीं करते और प्रेक्टिकल फ़ाइल आदि के बहाने उनके घर जाकर अपने पदार्पण से उनका जीवन धन्य कर देते हैं।

जीतु भी उन अनन्य भक्तोँ में से एक है और ऐसे ही उसके जीवन को धन्य करने के उद्देश्य से मैं एक दिन उसके घर अपनी शान की सवारी(हीरो रेंजर) लेकर पहुंचा। सायकल इसलिये कि पापा को मेरी मोटरसाइकलिंग पर पूरा भरोसा है, और इसी विश्वास के चलते वो मुझे कभी भी इतनी आसानी से उनकी मोटरबाइक देते नहीं हैं। लेकिन परमार्थ के काम को ये लोग क्या समझेंगे इसलिये मैंने अपने भक्त के घर हीरो रेंजर से जाने का निर्णय लिया।

उसके घर पहुँचते ही उसने मेरा कॉलेज मे मेरी रेपोटेशन के हिसाब से स्वागत किया और उसके घर के बरांडे से ही, आस पास के लोगोँ को सूचना देने के हिसाब से कि कितने बडे ज्ञानी उसके घर पधारे हैं, आवाज लगाई “आओ रोहित भाई।“ आस पास से तो कोई नहीं आया, शायद दोपहर की नींद हो रही हो।

वैसे भी भारतीय समाज में महिलाओँ के पास अपने प्राणनाथोँ को ऑफ़िस पहुँचाने के बाद तीन ही रुचिकर कार्य होते हैं। पहला परनिंदा करना, दूसरा नींद लेना और तीसरा जो आधुनिक समय मे नया नया जुड़ा है वो है टेलीविज़न के डेली सोप्स से निन्दारस की प्राप्ति। मतलब महिलाओँ को सर्वाधिक जिस चीज से मतलब होता है वो चीज है 'नींद' और ‘निंदा’। अब वो जहाँ से भी मिले उसे सेल य छूट के सामान की तरह लपक लो।

खैर, इस बिजली बस्ती यानि एमपीईबी कॉलोन्री की महिलायेँ तो मेरे दर्शन का लाभ न उठा सकीँ, पर मुझे जीतु के घर मे जाते ही एक अद्भुत्, अपूर्व और बेहद खूबसूरत अबला के दर्शन हुए। क्या पता महिलाओँ को अबला क्युँ कहा जाता है। परंतु जब जीतु ने उसे मेरे अन्दर आते ही कहा “अन्दर जा मेरा दोस्त आया है।” तब आधी नींद में उठकर जाते हुए वो मुझे अबला ही लग रही थी।

पहली बार जीतु के यहाँ गया था इसलिये उसकी मम्मी ने भी मेरे “नमस्ते ऑन्टी” का जवाब बड़ी विनम्रता से दिया और अपना टेलीविज़न के द्वारा प्राप्त होने वाला महत्वपूर्ण निंदा का कोटा बीच मे ही छोड़कर अन्दर चली गयीँ। जीतु मुझे कुछ बता रहा था, पर मेरे कान अन्दर लगे हुए थे, शायद ऑन्टी उस बला को बाहर पानी देने के लिये कह रहीँ थी और वो अभी तक नींद के नशे मे ही थी

कुछ देर बाद वो पानी लेकर आयी और मुझे देते हुए बोली “नमस्ते भैया।” कोई दूसरा होता तो यहीँ हिम्मत हार जाता पर मेरे बड़े भाइयोँ के अनुभवोँ के वृतांत से मैं जानता हूँ कि हमारे हिन्दीभाषी प्रदेशोँ मे शुरुआत 'भैया' से ही करना पड़ती है वर्ना शुरुआत भी नहीं हो पाती।

मैंने भी उसी बात को ध्यान में रखते हुए उसे कहा “नमस्ते ! नमस्ते।“

इसके बाद वो एमपीईबी क्वार्टर के किचन के दरवाजे पर जाकर उसके परदे के साइड से देखने लगी, और मैं बार बार किसी बात को उसे सुनाने के बहाने से उसकी तरफ़ थोड़ी थोड़ी देर में देखता रहा। सारी बात में मैं ये तो भूल ही गया था कि मैं यहाँ आया किसलिये था। वो मुझे जीतु ने प्रेक्टिकल फ़ाइल देकर याद दिलाया और ये भी सिग्नल दे दिया कि अब जाओ महामना।

वो तो भला हो ऑन्टी का जिन्होने चाय का बोलकर मुझे रोक लिया फिर वो अबला चाय के साथ आयी। इस बार चाय की खुश्बु के साथ उसके टेलकम पावडर की खुश्बु भी थी। चाय में दूध तो शायद गलती से गिर गया था, वरना ऑन्टी की कोशिश मुझे शुद्ध रूप में चाय पिलाने की थी। यानि बिना दूध की मिलावट के। पर उस टेल्कम पाउडर की खुश्बु के बाद तो चाय मे दूध है या नहीं मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ता, क्युँकि अगर यहाँ देर तक बैठना है तो पूरी चाय पीकर ही बैठा जा सकता है।

इसी विचार के साथ मैंने काफी धीरे धीरे चाय खत्म नहीं करने की कोशिश की पर कम्बख्त हर चीज का अन्त आता है और उसका भी आ गया। सत्यनाश हो अंग्रेज़ोँ का उनके चक्कर में इतनी कम चाय हम कप में पीते हैं। लोटे या ग्लास का उपयोग नहीं कर पाते और इसी सभ्यता के कारण ये भी नहीं बोल सकते कि ऑन्टी ! चाय और मिलेगी।

खैर मैंने अपना कॉलेज बैग उठाया, जो मुझे अब काफी भारी लग रहा था और अपनी सायकल की ओर बढ़ा, जो इस क्वार्टर के आँगन में लगे बगीचे मे खड़ी थी। सायकल के पास पहुँचकर उसे उठाकर उसका रुख बगीचे के गेट की तरफ किया और पलटकर देखा तो जितु और वो बला दोनोँ बाहर खड़े थे, मैंने जीतु को बाय कहा और उसे भी। जीतु के साथ उसने भी हँसते हुए हाथ हिलाया, वो भी वो लड़कियोँवाली स्टाइल में।

मैं उधर ही देखता रहा और सायकल चलने लगी। तभी सामने से आती एक स्प्लेंडर पर सवार आदमी ने मुझे बचाते हुए बाइक निकाली और रोड पर चलने का प्रथम नियम बताते हुए कहा “अबे सामने देख के चल।” मैंने भी उसका कहा मान लेने मे ही अपनी भलाई समझी और घर की ओर जाती सड़क पर आधा ध्यान लगाया क्युँकि आधा ध्यान तो अब।

अगले ही दिन मैं जीतु की फ़ाइल लौटाने उसके घर पहुँचा, तो उसने घोर आश्चर्य से पूछा, “इतनी जल्दी लिख लिया। सब तो कहते हैं कि तुम जब भी उनकी फ़ाइल ले जाते हो तो कम से कम एक हफ़्ता तो जरूर लग जाता है।“

अब उसे क्या पता कि कई बार उद्देश्य दूसरे होते हैं और काम दूसरे उद्देश्योँ से सम्बद्ध करना पड़ते हैं। सारी रात जागकर मैंने उस फ़ाइल को कम्प्लीट किया था। सुबह सुबह नींद किसी अनुभवी और अपने काम में पारंगत जिस्म्फरोश की तरह मुझे बिस्तर पर पटकने के सारे प्रयास कर रही थी और इससे पहले अगर कोई दिन होता तो शायद मैं उसकी बातोँ में आ भी गया होता, पर आज नहीं। इस बात का मेरी नींद और मुझे दोनोँ को ही बहुत आश्चर्य हुआ एवम मैं उसे आश्चर्यचकित दशा में घर पर छोड़कर ही सीधा बिजलीबस्ती चला आया। और ये मुझे फ़ाइल जल्दी लौटाने के लिये थेंक यू बोलने की जगह मेरी प्रवृत्ति सम्बन्धी प्रश्न कर रहा है।

मैंने कहा “हाँ भई, असल में मुझे तुम्हारा भी तो ख्याल है। तुम मेरे इतने अच्छे दोस्त जो हो तुम्हारी पढा‌ई का हर्जा थोड़ी न होने दे सकता हूँ।” जीतु से मुझे मिले तीन ही महीने हुए हैं, पर ये इतने अच्छे दोस्त वाली बात उसके घर एक बार हो आने के बाद ही मैंने कही।

“ऑन्टी और तुम्हारी बहन कहाँ है।” अपने स्वविवेक से मैंने ये अन्दाज़ा लगा लिया था कि वो इसकी बहन ही होगी।

“वो स्कूल गयी है।” जीतु ने ऑन्टी के बारे में कुछ नहीं कहा, जबकि मैंने दोनो के बारे मे पूछा था। ये लड़कियोँ के भाई और बाप हमेशा इतने समझदार क्योँ होते हैं। हमारे, केवल पहनावे से आधुनिक समाज का सच ये है कि असल में वो समझदार नहीं होते उनकी हर लड़के के बारे में यही सोच होती है कि वो लड़का उनकी बहन या बेटी के पीछे लगा है। ये भाई भी उसी छद्म आधुनिक समाज का हिस्सा है।

मैंने अपनी नींद को मुझपर हँसता महसूस किया और जीतु के घर अगली बार आने के बहाने की तैयारी के लिये उससे केमेस्ट्री की फ़ाइल मांगी। उसने टालने के लिये कुछ बहाने बनाये पर मेरे तर्कोँ के आगे उसने अंत में फ़ाइल को मेरे हवाले कर दिया।

इसी तरह पाँच दिनोँ तक किसी न किसी बहाने बिजली बस्ती में हाजिरी बनी रही। अब तो कॉलोनी के लोग भी मुझे पहचानने लगे थे। महापुरूषोँ के व्यक्तित्व के प्रकाश से आखिर कब तक कोई बच सकता है। इसी प्रकाश से बचने के लिये मेरे कॉलोनी में दिखते ही लोग अपनी बेटियोँ को अन्दर भेज देते थे। लगता है मेरी प्रतिभा की तूती जीतु यहाँ बजा चुका था।

ऐसे तो उस अबला से घर आने जाने पर कुछ न कुछ बात हो ही जाती है। उसकी आंखेँ कुछ और कहती हैं और वो कुछ और। यहीँ से हमे प्यार या कहेँ खुशफ़हमी हो गयी। तब से हम उसके और भी निकटमित्र या क्लोज़ फ़्रेंड बनने के प्रयास करने लगे। परसोँ के दिन उसने बातोँ ही बातोँ में बताया कि वो नर्सिंग की तैयारी कर रही है और उसे कुछ किताबेँ नहीं मिल रही हैं।

अंधा क्या चाहे दो आँखेँ। अपने पूर्वानुभवी अग्रज सहोदरोँ से मैंने सुना है कि लड़कियोँ को उनकी सहायता करने वाले लड़के पसंद होते हैं। मैंने अपनी बड़े शहर मे पहचान का रौब जमाते हुए कहा “अरे मेरे पहचानवाले हैं ना बड़े शहर में। वहाँ से बुलवा देता हूँ।“

थोड़ी नानुकुर के बाद मे उसने हामी भर दी, और मैं ऑर्डर लेकर ही उतना खुश हो गया जितना कि वेटर टि..

आज उसी ऑर्डर के पूरा करने का दिन है। दादाजी निकल ही नहीं रहे हैं, उनकी जगह मैं ही कह देता हूँ “भगवान, ऐसी औलाद तो दुश्मन को भी न दे या फिर ऐसी औलाद से तो मैं बेऔलाद ही रह जाता तो अच्छा था।”

तभी वो गुटखा चबाने की मशीन अपनी जगह से उठी और भागते हुए अपने गुटखे का बाईप्रोडक्ट एक बस के पीछे उड़ेल दिया, फिर दीवार पर लिखे ‘पीने का पानी’ के नीचे लगे दो नलोँ मे से एक के नीचे अपनी मशीन का प्रवेश द्वार लगाकर उसे जोर से खंगाला और नल के २ फीट नीचे बनी कुन्डी मे थूक दिया, इसी प्रक्रिया को दो बार और दोहरा के उसने रुमाल से अपना मुँह पोछा और अपना मोबाइल निकालकर नम्बर डायल किया और बूथ कि तरफ बढ़ा।

उसके बात करने के तरीके से लग रहा था कि सामने उसकी कोई कन्यामित्र यानी गर्लफ्रेंड ही होगी। बात करने के इस तरीके से ही हम जैसा सर्वज्ञानी अन्दाज लगा लेता है कि सामने कौन है और इस स्पेशल तरीके के तो हम फ़िंगरप्रिंट एक्सपर्ट हैं।

किस प्रकार की लड़की होगी जो इस जैसे तम्बाकू क्रशर को अपना बॉयफ़्रेंड बना लिया। शक्ल मे तो इसका कोई`सानी आस पास नजर नहीं आ रहा था, जिसपर गुटखा चबा चबा के सड़े हुए दाँत बत्तीस चांद लगा रहे हैं, साथ ही पहनावे और बात करने के तरीके से इसकी अकल का भी अन्दाज़ा लगाया जा सकता है। इससे बात करने वाली लड़की की अक्ल का हिसाब भी उस लड़की कि चॉइस के हिसाब से लगाया जा सकता है। मुझे उस लड़की की अकल पर तरस आ गया।

इतने मे दादाजी बाहर आ गये, उससे भी ज़्यादा परेशान होकर जितना कि वो बात करते वक्त थे। स्वेटर की कॉलर में हाथ डालकर शर्ट की जेब तक पहुंचाये और पैसे निकालकर उस लड़के को देते, कुछ बुदबुदाते हुए चलते बने। अब मेरा नम्बर था, बूथ को हथियाने का। पर तभी एसटीडी वाला लड़का मेरे पास आकर बोला,

“भैया ! मैं अभी आता हूँ, जरा दुकान देखना।“

“हाँ, पर जल्दी आना।”

“बस अभी १० मिनट मे आया।”

“ठीक है।”

छोटे शहरोँ मे ही ऐसे चमत्कार होते हैं, जहाँ दुकान मालिक आपको पूरी दुकान का मालिक बना देता है, चाहे थोड़ी देर के लिये ही सही। बड़े शहरोँ मे भरोसे को एक बेवकूफी माना जाता है और भरोसा करनेवाले को बेवकूफ।

मैंने भी उस फोन से बस कंडक्टर को फोन लगाकर पूछा

“भैया ! बस कब तक आ जायेगी, बहुत लेट हो गयी।“

“अरे भाईजान रास्ते मे टायर पंचर हो गया था। बस १५ मिनट मे पहुँच जायेंगे।“

“मेरा एक पार्सल आ रहा है किताबों का। आपके पास है ?”

“हाँजी है। है मेरे पास।”

“ठीक है। ओके।”

काम तो मेरा हो चुका, पर अब ये एसटीडी भी मेरी हो चुकी थी, तो में अब दो मशीनोँ का रास्ता देख रहा था एक थी एक शहर से दूसरे शहर ले जाने वाली। दूसरी थी तम्बाकू चबानेवाली । देखना था पहले कौन आता है, क्योँकि एक ने समय दिया था १५ मिनट, दूसरी ने १० मिनट।

पर आज १० मिनट, १५ मिनट से ज्यादा लम्बे हो गये और बस पहले आ गयी। मैंने कंडक्टर से किताबेँ ली और उसे इस सेवा के लिये चाय पानी के पैसे देकर वापस एसटीडी पर आ गया और उस लड़के का रास्ता देखने लगा।

तभी उस अबला का फोन आया ”कहाँ हैँ आप।”

“बस स्टेंड के एसटीडी बूथ पर।”

“ठीक है।”

इससे पहले कि और बात हो पाती फोन कट गया। मैं फिर रास्ता देखने के काम मे लग गया।

कुछ देर बाद वो लड़का आया और बोला ”थेंक्यू यार !”

“कोई बात नहीं”

“अच्छा अभी एसटीडी पर कोई आया था क्या।”

“नहीं तो। मैं तो तब से यहीँ हूँ।” मैंने एक अच्छा टेम्पोररी नौकर होने का सबूत देने की कोशिश की।

“तुम्हारा नाम रोहित है क्या।”

“हाँ, तुम्हे कैसे पता।”

“नहीं, वो विभा ने कहा कि तुमने उसकी किताबेँ बड़े शहर से बुलवाई हैं। उसने मुझे ये पैसे देकर भेजा है। किताबेँ आ गयीँ क्या ?”

एक पल के लिये तो मैं सकपका ही गया, पर फिर सोचा कि कोई रिश्तेदार होगा।

“हाँ, आ गयी। ये लो।”

“कितने पैसे हुए ?”

“अरे पैसे मैं घर जाकर ले लूँगा।”

“अरे उसी ने तो मुझे दिये हैं तुम्हे देने को। घर जाने कि क्या जरूरत है। बताओ कितने हुए।”

कुछ देर के लिये मुझे लगा इसमे विभा के भाई कि आत्मा आ गयी है शायद, इसीलिये मुझे घर जाने से रोक रहा है, तो मैंने बताना ही उचित समझा क्योँकि माँ को कल शाम तक पैसे वापस करने का कहकर पैसे लिये थे। बाल बच्चेदार आदमी नहीं भी हो तो भी सब तरफ देखकर चलना पड़ता है।

“५०० रूपये।” मैंने बताया।

“ये लो, ठीक।” उसने गिनकर मुझे पकड़ा दिये।

“ओके” मैंने आभार प्रकट किया।

फिर आखिर उससे मैंने पूछ ही लिया।

“विभा तुम्हारी रिश्तेदार है क्या।”

“नहीं फ़्रेंड है।”

जिज्ञासा के बढ़े हुए स्तर के वशीभूत होकर और थोड़ा अंदाज़ मे दोस्ताना तरीका बढ़ाकर उससे फिर पूछा “केवल फ़्रेंड या.....”

“पहले आप बताओ। आप उसको कैसे जानते हो।”

“मेरे दोस्त की बहन है वो।”

“अब आप जीतु को नहीं बोलो तो बताऊँ।”

अभी हफ्तेभर पहले जिसे मैंने सबसे अच्छा दोस्त कहा था, आज उसके बारे मे मेरी राय बदलते हुए मैंने कहा “अरे वो कोई मेरा इतना बड़ा दोस्त भी नहीं है, वो तो हम कॉलेज मे साथ पढ़ते हैं बस। अब बता ही दो यार।”

उसने अपने तम्बाकु से सुसज्जित दाँत दिखाते हुए लगभग शर्माते हुए कहा “अरे यार तुम तो अपनेवाले हो, तुमसे क्या छुपाना। अपनी तो गर्लफ्रेंड है वो दो साल से। अभी थोड़ी देर पहले उसी का तो फोन आया था, उसने मुझे पैसे लेने के लिये घर बुलाया था। उसी के घर से आ रहा हूँ। उसके घरवाले भी मुझे तब से जानते हैं, जब मेरे पापा ट्रान्सफ़र होकर एमपीईबी कॉलोनी मे आये थे।”

आगे उसने क्या क्या विवरण दिया। मुझे शायद ही कुछ समझ मे आ रहा था। सब तरफ सन्नाटा था, और अब मुझे उसकी आवाज भी किसी बस के भोँपू की तरह कर्कश और कान फ़ाड़नेवाली लग रही थी। उसके तम्बाकु वाले दाँत मुझे अपनी गर्दन पर किसी ड्रेकुला के दाँतोँ की तरह गड़े महसूस हो रहे थे।

मैंने सुना था कि ड्रेकुला खूबसूरत लड़कियोँ का खून पीता है। मैंने दिल ही दिल मे दुआ मांगी कि ये ड्रेकुला भी उस बला का खून पी जाए और न जाने क्या-क्या। तभी उसने मुझे हाथ लगाकर कहा “क्या हुआ ?”

“कुछ नहीं।” विचारोँ से जागकर मैंने कहा।

“चलो चाय पीते हैं।”

“नहीं। मुझे घर जाना है जल्दी।”

“अरे यार अब तो हम भी तुम्हारे दोस्त बन गये हैं। इस खुशी मे चाय पी लेते हैं।आओ।” वैसे भी मैं विरोध करने की हालत मे नहीं था, तो हम होटल की तरफ चल दिये। वो बोले ही चला जा रहा था, भले ही मैं नहीं सुन रहा था। होटल पर दो कट चाय का ऑर्डर देकर हम बैठ गये। उसका प्रसारण जारी था।

तभी चाय आ गयी। दो कट ठंड मे कुछ ज्यादा ही धुएँ के साथ। धुएँ के कारण दोनोँ धुंधली थी, उसने अपनी चाय उठायी और उसमें फ़ूँक मारी और उसका धुआँ छट गया। उसे देख कर मुझे लगा कि मेरे ही ग्लास को उस फूँक की ज़रूरत है जो धूँधलेपन को खत्म कर दे। मैंने भी अपना ग्लास उठकर उसमें फूंका और सबकुछ साफ हो गया। अब दोनो के ग्लास साफ थे। मुझे अब उसकी बातेँ सुनाई देने लगी थी और वो हँसी जिसे वो बहुत देर से मेरे चेहरे पर देखना चाहता था। अब लौट आयी थी।

मैंने उससे पूछा “मैंने सुना है चाय नशा उतार देती है।”

“हाँ भाई ! सच ही सुना है।”

मैंने मन मे कहा काश ऐसा ही हो। और उसके किसी जोक पर हँसते हुए उस धुंधरहित चाय की पहली चुस्की ली।


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