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Santosh Shukla

Drama

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Santosh Shukla

Drama

रेलयात्रा

रेलयात्रा

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काफी मशक्कत के बाद भी उस टिकिट के मिलने कि सारी सम्भवनाएं खत्म हो गयी जिसे सब कहते हैं कन्फर्म। उम्मीद कि आखिरी किरण भी एजेंट के फोन के बाद बुझ गयी। बिल्कुल उस लाल बल्ब कि तरह जो फिल्मों में ऑपरेशन थिएटर के बाहर लगा होता है और ऑपरेशन खत्म होने पर बुझ जाता है। इंजीनीयर साहब के लिये भी ऑपरेशन “कन्फर्म रेल टिकिट” खत्म हो चुका था।

दुर्भाग्य की काली परछाईं तो इंजीनियर साहब को तभी दिखाई देने लगी थी, जब मैनेजर ने उनके केबिन में आकर आदेश जारी किया था "अरुण ये प्रेजेंटेशन तुम्हें ले जाकर लखनऊ ब्रान्च में देना है।"

इंजीनीयर साहब "पर सर, अगर मैं अगले हफ्ते चला जाऊँ तो।"

मैनेजर, चेहरे के परिदृश्य को कठोर करते हुए, "नहीं हमें ये प्रोजेक्ट अगले हफ्ते तक सभी ब्रान्चेस में शुरु करना है और क्योंकि इस प्रोजेक्ट के बनाने में तुम शामिल थे इसलिये तुम्हें भेजा जा रहा है। फिर उत्तरप्रदेश में तुम्हारा घर है तो वहाँ के बारे में तुम ज्यादा जानते हो।"

इंजीनियर साहब "पर सर"

मैनेजर "अरुण, दिस इस फाइनल और मैं कुछ नहीं सुनना चाहता।"

इंजीनियर साहब घर जाने के लिये यूँ तो समय समय पर छुट्टी लिया करते थे। पर अभी वो नहीं जाना चाहते थे क्योंकि परसों ही उनकी काफी सब्र और "भाग दौड़" के बाद मिली गर्लफ्रेंड रेणू का उनके साथ जन्मदिन का प्रोग्राम था। उस मस्तानी के कई बाजीराव इन्तजार में थे। एक गया नहीं के दूसरा तैयार। अगर जन्मदिन इंजीनियर साहब ने साथ नहीं मनाया तो मामला गया हाथ से। पर क्या करें, प्रोजेक्ट एक बार हाथ से गया तो "इन्क्रीमेन्ट" के सारे आसार खत्म। रेणू को तो इन्क्रीमेन्ट के बाद की एक तन्ख्वाह लूटा के फिर मना लेंगे। इन सारे बिंदुओं पर गौर करके इंजीनियर साहब ने जाने का मन बनाया और अपनी मस्तानी को न बताने का भी। किश्तों में उलाहने कौन सुने। एक बार जाने के पहले, फिर आने के बाद। आकर ही देखा जायेगा ।

एक मुसीबत से तो पार पाने का तरीका मिल गया, पर अब दूसरी सामने खड़ी है। इंजीनियर साहब कभी बिना स्लीपर के तो क्या बिना एसी के यात्रा नहीं किये थे। अपनी सीट पर जाते हुए उन्होने दूसरे दर्जे कि मारामारी देखी थी, और मन ही मन फैसला भी कर चुके थे कि कभी भी दूसरे दर्जे में यात्रा नहीं करेंगे। पर उनकी प्रतिज्ञा भी नेताओं की जनसेवा करने की प्रतिज्ञा की तरह निकली, वैसे भी वो कोई भीष्म तो हैं नहीं, केवल इंजीनियर हैं वो भी सॉफ्टवेयर। हार्डवेयर इंजीनियर होते तो शायद किस्मत भी उनकी हार्ड प्रतिज्ञा के आगे झुक जाती।

शहादत का दिन आ गया। इंजीनियर साहब रेलवे स्टेशन के टिकट काउंटर पर लगी लम्बी लाइन में लगे थे। उनके आगे खड़े, तेल से लथपथ, चुटिया लहराते, सहटिकिटार्थी के सिर से कोई गन्ध आ रही थी। शायद चमेली के तेल की। उसपर वो अपना सिर स्थिर रखने में अक्षम प्रतीत होता था। शहर की “अ”बलाओँ को शायद पहली बार देख रहा था। किसी को भी बच के जाने न देना चाहता था।

इंजीनियर साहब उसकी स्थिति के अनुसार अपने को एडजस्ट कर रहे थे। वो दाएँ तो ये बाएँ, वो बाएँ तो ये दाएँ । पीछे हटने पर पीछे के सहटिकिटार्थियोँ ने निर्बन्ध लगा रखा था। उस दुर्गन्धकर्ता को सिर सीधा रखने को कहने पर जवाब मिला "सीधा ही तो रखे हैं। अब का हियाँ-हुआँ देखें भी नहीं।"

इन जाहिलोँ से तो बात ही करना बेकार है इंजीनियर साहब ने उसकी धृष्टता पर मन ही मन कहा। चोटीधारी कही का।

कुछ चुहलबाजों ने पीछे से एक ज़ोरदार धक्का दिया और चोटीधारी के सिर के पिछवाडे इंजीनियर साहब का मुख्मन्डल घुस गया। चोटीधारी का एंटीना उनकी नाक में चला गया। पीछे धक्का देनेवाले आगेवालों की हालत देखकर अपनी सफलता का जश्न मना रहे थे और एक दूसरे को ताली दे रहे थे ।

कुछ देर शान्ति के बाद आवाज़ का एक हजूम उठा। इंजीनियर साहब ने सोचा शायद ट्रेन जा रही है इसलिये लोग चिल्लाये, पर ट्रेन तो खड़ी है। समझने के लिये आगे पीछे देखा। एक महाशय, लाइन में आगे खड़े किसी को पैसे देकर अपने टिकट निकलने कि चेष्टा में थे। गाड़ी जाने क समय हो चला था। कोई भी एक क्षण नहीं गँवाना चाहता था। लाइन के बाहर से टिकट निकालनेवाले की काफी दुखद हाव भाव के साथ कि गयी चिरौरी जब किसी ने न सुनी तो वो हँसता हुआ लाइन में पीछे जाकर लग गया।

टिकिटघर में एक महिला ने प्रवेश किया। उसके हाथ में, उसके हाथ से निकल जाने कि कवायद करता एक बालक था। जैसे कह रहा हो कि माँ मैं अभी जाके टिकट ले आता हूँ। स्वयँवर में जैसे वधु वर चुनती है वैसे ही उसने लाइन में लगे सारे व्यक्तित्वो को निहारा। फिर इंजीनियर साहब को सबसे उपयुक्त पाकर पास आकर कहा "भैया इसे जरा सम्भालिये। मैं जरा टिकट ले लूँ।"

इंजीनियर साहब का दिमाग दौड़ा। वैसे तो उन्हे बच्चों से एलर्जी है। इन्हे सू-सू और पॉटी का जरा भी भान नहीं होता। चाहे जहाँ टाइम बॉम्ब कि तरह फट पड़ते हैं। फिर भी इंजीनियर साहब की टिकट निकालकर देने कि फरमाइश, जब महिला ने मान ली, तो वो इस खतरनाक टाइम बॉम्ब को कुछ देर रखने को राजी हो गये ।

बच्चा उनके हाथ में भी नहीं रहना चाहता था। अब तक जिस माँ से दूर भाग रहा था, एक अजनबी के मुकाबले वो उसी के पास रहना ठीक समझता है। बोल तो नहीं सकता पर दोनों हाथ माँ की तरफ दिखाते हुए अपनी मन्शा जाहिर कर रहा है। उधर से माँ भी उसे दिलासा देती जाती है कि "मम्मी आती है बेटा, मम्मी आती है।" पर बच्चे से ज्यादा बेचैनी इंजीनियर साहब को है। माँ के दिलासे से बच्चे से ज्यादा उन्हे राहत मिलती है। एक बार टिकट मिले, तो इस धक्का मुक्की और इस चुटियावाले से छुटकारा मिले।

मम्मी आयी और टिकट इंजीनियर साहब को दिया। दोनों ने एक दूसरे को अपने अपने कार्य में सहायता के लिये धन्यवाद किया। इंजीनियर साहब चुटियावाले और धक्का-मुक्कीवालों की तरफ हास्यपूर्ण दृष्टि से देखते हुए प्लेटफॉर्म की ओर चल दिये।

भारतीय रेलवे का प्लेटफार्म। दुनिया की सबसे अधिक विविधतावाला स्थान। यहाँ विविधता है लोगोँ मे, प्रक्रियाओं में, आवाज़ों में, गन्ध-दुर्गन्धोँ मे, समाजिक स्तरों में । इन सबके अलावा और भी कई श्रेणियाँ हैं। भीख माँगती निर्जीव और अस्पृश्य महसूस होती महिला, एक आधुनिक महिला जो बार बार घड़ी देखने के साथ ये भी देखती है कि उसकी साज सज्जा कोई देख रहा है य नहीँ। अगर कोई देख रहा है, तो नजर मिलते ही नजर चुरा लेती है। अतिविश्वासपूर्ण कदमों से प्लेटफार्म पर एक दिशा से दूसरी दिशा में जाते अफसर और हाथगाडी खींचता छद्म आत्मविश्वासवाला मैला कुचैला व्यक्ति। खैनी मसलते लोगों से लेकर, ब्राण्डेड सिगरेट पीनेवाले। इन्ही सब लोगों और प्रक्रियाओं के बीच कभी सिगरेट की तो कभी गरमा गरम समोसे की, कभी किसी के लगाये इत्र की तो कभी पटरी पर किये गये मानवीय उत्सर्जनों आदी की गंधों से सारा प्लेटफार्म महकता रहता है।


इंजीनियर साहब इस अतिविविध स्थान पर पहुँचे। हर बार तो एसी के गर्व के साथ आते थे पर इस बार जनरल के भय से काँपते हुए, प्लेटफार्म पर द्वितीय श्रेणी के लिये लगी लाइन को देख रहे थे। एक तरफ के सामान्य डब्बे से दूसरे तक जाती लाइन के दो मुख थे। किसी एक के पीछे खडे होने के लिये उसकी दुम तलाशना आवश्यक था। दो बार पुलिसवालों से जलील होने के बाद आखिर दोनो लाइनो के पिछ्ले सिरे पा लिये गये जो आपस में मिल चुके थे और पहचानना मुश्किल था कि कौन सा सिरा किसका है। पर इंजीनियर साहब अपनी कुशाग्र बुद्धी से पिछला सिरा ढूंढ कर उसके पीछे खड़े हो गये।

लाइन को अव्यवस्थित करनेवालों में से दो-एक को डंडे पड़ने पर लाइन एकदम सीधी हो गयी। एक पुलिसवाला सबको बारी बारी अन्दर भेज रहा था। स्लीपर क्लास के लोग, अपना नाश्ता आदि करते हुए इस लाइन में लगे लोगों को देखकर, इनपर और देश के हालात पर खेद जता रहे थे। इंजीनियर साहब को इन निगाहो का पहली बार सामना करना पड रहा था।

डिब्बे के अन्दर पहुँचते ही हर कोई बैठने की जगह पर इस तरह टूट रहा था जैसे कोई भूखा शेर अपने शिकार पर टूटता है। इंजीनियर साहब इसे असभ्यता समझते हुए सुसान्स्कृतिक तरीके से सीट पर बैठना चाहते थे, जैसे वो एसी में किया करते थे। पर अन्त में पूर्णतया असभ्यता करने पर ही उन्हे एक सीट मिल पायी। ये सीट उन्हे उतनी सुभीते की नहीं लगी। वो खिड़की वाली सीट चाहते थे। पर अब बीच में फँसे सेंडविच की तरह सफर होगा। काश कि थोड़ी जल्दी असभ्य हो गये होते।

ट्रेन ने इन्तजार के चावल पक जाने कि सीटी बजाई। फिर वो चली केलों के साम्राज्य से गन्नों के शासन की ओर।

इंजीनियर साहब के साथ सामने की सीट पर तीन और उनकी सीट पर उन्हे मिलाकर चार लोग थे। सामने की सीट पर एक बुढ़िया ने खिड़की की सीट सम्भाल ली थी, जिसके आषाढ़ के बादलोँ के जैसे काले-सफेद बाल थे ,शायद इन्ही से हुई बारिश के कारण उसके चेहरे पर नालियों जैसी धारियाँ थी। उसके पास एक बड़ी-बड़ी दाढी मूंछोवाला, काला कुरता और चौकडीदार लुंगी पहने अधेड़ बैठा था। उसके गले में कई मालाएँ थी। कुछ बड़े मोतियोंवाली, कुछ छोटे और कुछ बहुत छोटे मोतियोंवाली। सब रंग-बिरंगे मोती। सिर पर कपड़ा बाँध रखा था। शायद कोई साधु या मलंग होगा, इंजीनियर साहब ने सोचा। उनके बगल में एक लड़की फूल पत्तियोवाला सलवार सूट पहने बैठी थी। चोटियों में लाल रिबन लगाये, खूबसूरती के सभी मानकों पर खरी। इंजीनियर साहब को घूरते जाती थी।

इंजीनियर साहब कि खुद कि सीट पर पाउच खाता एक डेढ पसली का नौजवान, जो सामने की बजाय बायें मुँह करके बैठा था। शायद थूकने के लिये खिडकी का निशाना ले रख था। उसके गले में पड़े लाल गमछे से वो थुकने के बाद बार बार मुँह पोछ्ता था। दूसरे थे एक बकरे जैसी दाढीवाले बुजुर्ग। चश्में के कारण विद्वान नजर आते थे। उनके दाएं खिड़की के पास एक बुर्कानशीन। शायद दाढीवाले बुजुर्ग की बेगम हो। ऊपर की बर्थ पर भी कोई दो लोग अपना सामान तकिया बनाकर लेट गये हैं। पर इंजीनियर साहब को इन सबसे कोई लेना देना नहीं। उनका तो सारा ध्यान उस फूलों वाली सलवार सूट पहनी कमिनी पर है। आखिर वह उनके दिल के मोबाइल पर लगातार कॉल जो कर रही थी।

अब शुरु हुआ परिचय का दौर, जो सारे सफर में होने वाले वार्तालाप की शुरुआत का पहला चरण होता है। सबसे पहले शुरुआत कि बकरी दाढी ने "भाईजान ये कब पहुँचती है बनारस?"

सामने बैठा मलंग वेशवाला शान्त भाव के साथ "परसों सुबह सुबह्"।

बकरी दाढ़ी "इतना टाइम लेगी ?" बेगम की ओर देखते हुए "क्या पता समय पर पहुँच भी पाते हैं या नहीं?"

मलंग "क्या कही जल्दी जाना है?"

बकरी दाढ़ी "हाँ कुछ जरूरी काम था। और आप ?"

मलंग "हम? हम भी इन माताजी के साथ बनारस जा रहे है। बेचारी बहुत परेशान हैं। अब हमारा तो काम ही है अल्लाह के बन्दों के काम आना, सो चले आये।"

बकरी दाढ़ी "क्यूँ? क्या हुआ बड़ी बी को?" यात्रा में रिश्तेदारी के उत्पादन की दर बहुत तेज होती है। जिसे लगता है कि दुनिया में उसका कोई नहीं। उसे यात्रा करना चाहिये। कई रिश्तेदार आकस्मात पैदा हो जायेंगे। जैसे बैठे बिठाये बड़ी बी का रिश्ता पैदा हो गया।

मलंग "इन्हें नहीं, इनकी लड़की को आफत ने घेर रखा है।"

बकरी दाढ़ी "कैसी आफत?"

मलंग "बाहरी आफत। हवा बयार। आप तो जानते ही हो, ये सब जिन्नाद और रूहें खूबसूरत बच्कोचियों कितने जल्दी घेरते हैं । दिन दिन भर खाना नहीं खाती, फिर दौरा आने पर ५ - ७ लोगोँ से भी काबू में नहीं आती। जहाँ देखती है मुकम्मल देखा करती है। अलग अलग आवाज़ में चिल्लाती है। कभी जो खाने बैठे तो १० आदमी का खाना अकेले खा जाती है। जन्ज़ीर से बान्धकर रखना पड़ता है।"

मलंग की बात सुनकर इंजीनियर साहब समझ गये कि जिसे वे कॉल समझ रहे थे, वो राँग नम्बर था। इसके तो नेटवर्क में ही खराबी है। हम आशिक हुए ये देख के कि वो क्या खूब जवाँ हुए, उन्हे जानने कि हसरत की, तो कुछ और ही किस्से बयाँ हुए। इंजीनियर साहब ने मन में शेर पढ़ा और मन में ही अपने आपको दाद दी और किस्मत को लानत भेजी। अभी जिस कॉल के कारण सभी लाइनेँ व्यस्त थीँ, उसे काटकर लोगोँ की बातोँ पर ध्यान लगाया।

अब तक अन्धेरा हो चला था। खिड़की के बाहर पेड़ घर जाने कि जल्दी में दौड़ लगाते दिखते थे। केले, कपास और गेहूँ के खेतों से आती ठंडी आर्द्र हवा ने रात कि ठंड का अन्दाज़ा करवा दिया था। पर अभी हवा बड़ी सुहावनी लगती थी, अनेकानेक सुगन्धोँ से भरी। इंजीनियर साहब ने ये सब एसी में से देखा था, पर वहाँ ये एहसास और खुश्बू नहीँ मिलते थे। केवल एसी की अनुकूलित वायु होती थी। बकरी दाढ़ी ने फिर पूछा "तो बनारस ले जाकर क्या होगा?"

मलंग "वहाँ हमारे उस्ताद हैं। उन्हीँ ने हमें ये इल्म सिखाया। तीन महीने से हम इलाज कर रहे हैं, पर कुछ फ़ायदा नहीँ। शायद कोई बड़ा भयानक साया पीछे लगा है। तो हमने वहाँ ले जाने का सोचा।"

ऊपर की बर्थ के एक व्यक्ति ने अपने ज्ञान का प्रदर्शन करने के उद्देश्य से नीचे देखते हुए सलाह दी "अरे अगर वहाँ बला सिर से न हटे तो कल्कत्ता ले जाना। वहाँ पर हमने अपनी बुआ की लड़की को दिखाया था। बंगाली जादू से तो कोई भी भूत भाग जाता है।"

तभी बुढ़िया "मेरी बच्ची" करते हुए रो दी। बेटी को लगे भूत को बद्दुआ देती और बेटी के लिये दुआ मांगती अपनी साड़ी से आँसू पोछ्ती जाती थी। सब उसे समझाने लगे, मलंग, बकरी दाढ़ी और उनकी बेगम। एक दुखियारिन को देख दूसरी का दुख भी उबाल पर आ गया। बकरी दाढ़ी कि बेगम बोली "रोने से क्या होगा बड़ी बी। कोई भी मसला रोने से तो हल नहीँ होता। अब हमको देखो। अच्छे भले खुशी से दिन कट रहे थे। हमसे शायद सुकुन कि रोटी नहीँ खायी गयी। लड़के की शादी कर दी। वो भी नसीब फूटे बनारस में जाकर। अब हर पेशी पर जाओ। अभी भी वहीँ जा रहे हैं। कोई चैन से नहीँ है दुनिय मे। क्या हम क्य तुम।"

अब बुढ़िया ने देखा कि कोई और भी दुखी है तो उसका दुख कुछ हल्का हुआ। बोली "क्या, बहु ने परेशान कर रखा है?"

बेगम "अरे परेशान तो क्या करेगी हमे। हमने हमारी ५ बेटियाँ बड़ी करके निकाह कर दिया। मजाल है कि आँख उठाकर बात कर ले। बहु को काफ़ी आज़ादी थी, पर कानून कायदा भी कुछ होता है या नहीं। इसी बहस में एक दिन उसके शौहर ने जरा उसपर हाथ छोड़ दिया। उसी दिन घर छोड़कर अपने घर चली गयी। मेरा लड़का उसे वापस लाने के लिये उसके कहने से पाँच महीने वहाँ रहा। जब वापस आने लगा तो कहने लगी कि तुम भी यहीं रहो। अरे जिसने ये जहाँ दिखाया, उसे छोड़ दे, और तेरे पल्लु से बन्धा पड़ा रहे। ख़ुदकुशी की धमकी देने लगी। मेरे लड़के ने भी एक नहीं सुनी और वहाँ से रवाना हो गया।" बकरी दाढ़ी भावशून्य आँखो से लगातार फर्श की ओर देख रहा था। दोनों जबड़ों को बंद किये, गहरी सोच में डूबा हुआ।

बुढ़िया ने कहा "ठीक किया। ऐसी औरत के साथ तो ऐसा ही होना चाहिये। फिर आप लोग पेशी पर क्यूँ जा रहे हो। दहेज का केस चल रहा है क्या।"

बेगम "दहेज का केस क्या चलेगा, हम लोगों ने दहेज लिया ही नहीं। वो तो हमारे बेटे के वहाँ से निकलते ही उसने, ख़ुदा उसे जहन्नम नसीब करे, जहर खा लिया और लिख गयी कि मेरी मौत के जिम्मेदार मेरे ससुराल वाले हैं। बस यहँ स्टेशन पर से ही मेरे बेटे को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया और थाने में बन्द कर दिया। बाद में उसे बनारस से पुलिसवाले आकर ले गये। ख़ुदा गारत करे नासमिटो ने घर कि सूरत भी नहीं देखने दी। पाँच महीने बाद कम से कम घर तो आ जाता, फिर भले ही ले जाते। देखना बड़ी बी सबको जहन्नम में भी जगह नहीं मिलेगी। मेरा जमील।" अश्रुधार का स्रोत बदलकर बेगम के पास चला गया। अब वहाँ से गंगा जमुना बहने लगी और बुढ़िया उन्हे समझाने लगी।

बकरी दाढ़ी बोला "बस अब फिर से शुरु मत करो। जो होना था हो गया। अब अल्लाह की जो मर्जी। वो हमरे नसीब में जितने लिखता है उतने तो गम देखना ही होंगे। चुप करो अब।"

बेगम अपनी आँखें पोछते हुए "हाँ तुम्हें तो अपनी औलाद की ज़रा भी फ़िक्र नहीं है। न जाने कैसे वालिद हो। पता भी है वहाँ क्या होता है?"

बकरी दाढ़ी कुछ नहीं बोले शायद ये सब वो रोज़ ही सुनते होंगे। पर इस बार इंजीनियर साहब की रुची जागृत हुई। वो जेल कभी न गये थे और न जाना चाहते थे। ऐसी ही जगह के नाम से मनुष्य का रोमांच जाग उठता है। वो जानना चाहते थे कि आखिर ऐसा क्या है जो इतना खास है। उन्होने पूछा "क्या होता है आँटी वहाँ पर?"

बेगम ने अपना रुख मियाँ साहब से हटाकर कुछ और झुककर इंजीनियर साहब की ओर किया और बोली "कुछ दिन पहले हमारे पड़ोस की मोहसिना ने मुझे बताया था। उसका पति तो आता जाता रहता है जेल मे। चोरी चमारी करनेवालोँ का अब और कहाँ ठिकाना। पर उससे मुझे पता चला कि जेल में बहुत मारा जाता है कैदियोँ को। और वहाँ जो लम्बी सजा काट रहा होता है उसे बदिया कर दिया जाता है। फिर उसके कभी बच्चे नहीं होते। हमारा जमील जल्दी छूट के आ जाये तो अच्छा, वरना उसे भी..." बेगम कि आवाज़ फिर भारी हो गई।

इस बार इंजीनियर साहब ने समझाया "अरे आँटी, ऐसा कुछ नहीं होता है। जब तक कोई सबूत नहीं होता तब तक कोई जुर्म साबित नहीं होता। आपके लड़के को कोई कुछ नहीँ कर सकता। और जब आपने कुछ किया ही नहीं तो डर काहेका।" इंजीनियर साहब की बात को सभी बड़े ध्यान से सुन रहे थे। उन सबमेँ वेशभूषा, भाषाशैली से एक अकेले वो ही कुछ आधुनिक और समझदार नज़र आ रहे थे।

कुछ देर तक आँसुओं की बाढ़ थमने के बाद शान्ति रही। सबने अपने साथ लाया खाना खोलकर पंगत जमायी। लड़की और बुढ़िया नीचे ही बैठ गये। पाउचप्रेमी मलंगवाली सीट पर बैठ गया और इंजीनियर साहब ने उनका टिफिन खोला जिसमें शायद चार से ज्यादा रोटियाँ न थीँ। उसे कही रखने की भी आवश्यकता नहीं पड़ी। हाथ में ही शुरू हो गये। बकरी दाढ़ी और बेगम ने बीच में अपना टिफिन जमाया और शुरु हो गये। बातोँ का सिलसिला भी चलता रहा। ऊपर का वो बंगाली जादुगरोँ का मुरीद भी शायद खाना खा रहा था। सबके खाना खा लेने के बाद मलंग ने अपनी थैली में से मिठाई का डब्बा निकाला। ये उस मजार का प्रसाद था, जिन बाबा का उसके उस्ताद और उसपर नज़र-ए-करम था, ऐसा मलंग ने बताया। सभी को उसने एक एक मिठाई दी। आस पास के कम्पार्टमेंटोँ में भी बँटवा दी। अब रखी रहेगी तो खराब हो जयेगी ।

सब खा पीकर वापस अपनी अपनी जगह पर आ गये। वार्तालाप चालू था, पर किसी की भी अब जागने इच्छा नहीं थी। इंजीनियर साहब को तो आज कुछ ज्यादा ही तेज़ नींद आ रही थी। बार बार आँखें बन्द हुए जाती थीँ। बड़ी बी बीच बीच में उनसे मुखातिब होकर कुछ कहती तो उन्हे आँख खोलना पड़ती। कुछ देर बाद वो भी शान्त हो गयीँ। सभी आवाज़ें आना बन्द हो गयी। कुछ ही आवाज़ेँ थोड़ी देर तक सुनाई देती रहीँ। ट्रेन के चलने की धड़ धड़। किसी स्टेशन पर गाड़ी के पहुँचने की घोषणा, कुत्ते का भौकना, चाय और वड़ापाव की आवाजें, लोगों की अपना रिज़र्वेशन सीट ढूँढने कि हड़बड़ाहट में भागदौड़। फिर वो आवाज़ें भी बन्द हो गयीँ और नयी आवाज़ें आने लगीं।

इंजीनियर साहब ने देखा, रेणु प्लेटफॉर्म पर खड़ी है। उनके सबसे पसंदीदा ड्रेस बैंगनी टी-शर्ट और आसमानी जींस मे। एक कागज़ उसके हाथ में है। आँखों के इशारे के साथ उन्हे बाहर बुला रही है। वो बाहर उसके पास पहुंचे और पूछा "तुम यहाँ क्या कर रही हो?"

रेणु "मैं तो तुम्हें टिकट देने आयी थी। ये कंफ़र्म टिकट है। वो भी एसी का।"

इंजीनियर साहब "ये तुम्हें कैसे मिला।"

रेणु "अपने वालों के लिये तो हम कुछ भी कर सकते हैं। पर तुमने तो मुझे बताना भी ठीक नहीं समझा। ऐसे ही चले आये।"

इंजीनियर साहब "सॉरी रेणु। पर मुझे लगा कि तुम गुस्सा करोगी।"

रेणु "मैं क्या इतनी बेवकूफ़ हूँ जो तुम पर गुस्सा करूँगी। आई लव यू यार।"

इंजीनियर साहब "आई लव यू टू रेणु।" कहकर जैसे ही इंजीनियर साहब उसके चेहरे के पास अपना चेहरा ले जाने लगे, रेणु ने पीछे हटते हुए मुस्कुराकर कहा "अब जल्दी ट्रेन में बैठो। चलनेवाली है। तुम्हे सामान भी जनरल से एसी में ले जाना है।"

इंजीनियर साहब आज़ादी का परवाना लहराते एसी डिब्बे की ओर चले "बाय रेणु!" कहते हुए।

डिब्बे तक पहुँचने के पहले ही वो टिकट हाथ से छूटकर हवा के एक झोंके में उड़ चला। वो उसके पीछे भागने ही वाले थे कि टीसी और रेल्वे के दो जवानों ने उन्हे पकड़ लिया।

टीसी "टिकट बताओ।"

इंजीनियर साहब "मेरा टिकट वो उड़ा जा रहा है सर।"

एक पुलिसवाला "हमें बेवकूफ समझता है क्या। टिकट निकाल।"

इंजीनियर साहब "आप उस लड़की से पूछ लो", उन्होने उस तरफ इशारा किया जहाँ रेणु खड़ी थी। पर अब वहाँ कोई नहीं था।

टीसी "कौन सी लड़की ?"

इंजीनियर साहब "अभी तो यहीं थी। कहाँ चली गयी?"

दूसरा पुलिसवाला "अभी निकलवाता हूँ इससे सच्चाई। क्यूँ बे यहाँ सुनसान जंगल में क्या कर रहा है। बता, बता जल्दी। वो बनारसवाली लड़की को जिसने मारा उसका हुलिया ऐसा ही बताया गया था। तू वही है ना, है कि नहीं, बोल, बोल जल्दी। यहाँ उसे गाड़ने आया होगा। बता, नहीं तो देता हूँ रखके।" कहते हुए उसने हाथ उठाया।

इंजीनियर साहब "सर मैं आपको सही बता रहा हूँ। यहाँ मैं एक प्लेटफ़ॉर्म पर उतरा और ये जंगल कहाँ से आ गया मुझे नहीं समझ आ रहा। और उस बनारसवाली लड़की ने तो आत्महत्या की थी। मैनें उसे नहीं मारा। मैने मेरी दोस्त से टिकट लिया था। अभी यहीं से। उसका नाम रेणु है।"

पहला पुलिसवाला "अरे अब क्या किसी रेणु को भी मार के गाड़ दिया क्या रे। अब तो तुझे सबक सिखाना ही पड़ेगा।" ऐसा कहते हुए पुलिसवाले ने उन्हे एक झापड़ रसीद कर दिया। फिर दूसरा फिर तीसरा। वो रेणु रेणु चिल्लाते रहे, चिल्लाते रहे।

तभी उन्हेँ महसूस हुआ कि वो कम्पार्टमेंट में बैठे हैं और बकरी दाढ़ी उन्हें गाल पर थपकाकर उठाने का प्रयास कर रहा है।

इंजीनियर साहब, एका-एक "रेणु कहाँ है। रेणु! रेणु!" पूछ्ते हुए खड़े हो गये। बकरी दाढ़ी बोला "अरे कौन सी रेणु कहाँ की रेणु। यहाँ कितना बड़ा हादसा हो गया। पता है कुछ, कि तुम भी हमारी तरह बेहोशी में सो रहे थे?"

इंजीनियर साहब को समझ में आया कि वो सपना देख रहे थे। कितना प्यारा सपना था। रेणु और टिकट दोनों उनके पास थे। इस कमीने ने जबरन उन्हे उठा दिया। पर अच्छा भी है। नहीं उठता तो और डंडे पड़ते पुलिसवालों के। उन्होने देखा बेगम सामने की सीट पर खिड़की पकड़ के रो रही थी। उन्होने बकरी दाढ़ी से पूछा "अब आँटी को क्या हुआ?"

अब बकरी दाढ़ी को यकीन आ गया कि ये होश में आ गया है तो उसने बताया "अरे रात को वो बुढ़िया खातून्, उसकी बेटी और वो एक शैतान की औलाद जो उनके साथ था उसने शायद हमें मिठाई में कुछ खिला दिया था। जब सुबह आँख खुली तो सारा सामान जा चुका था। आस पास के भी दो कम्पार्टमेंट से सामान चोरी हुआ है। मैनें और बेगम ने बहुत ढूँढा पर लाहौल विला कूवत, नहीं मिले तो नहीं मिले।"

अब इंजीनियर साहब के आये हुए होश उड़ गये। उनका बैग भी गायब था। लेपटॉप और उस लेपटॉप में रखे प्रोजेक्ट सहित। जेब में हाथ डाला तो कुछ नहीं निकला, जनरल के टिकट के अलावा। उनके चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। 70000 का चूना और प्रेज़ेंटेशन भी नहीं हो पायेगी, वो ब्याज मे।

बकरी दाढ़ी "अब अगले स्टेशन पर उतरकर इसकी शिकायत थाने में की जाए।"

इंजीनियर साहब "जी! हाँ। हाँ। शिकायत। हाँ। करना पड़ेगी।"

अगला स्टेशन आया। शिकायत करने पर पता चला कि चार का गिरोह है। दो महिलाएँ, दो पुरुष। तब उनके ध्यान में वो पाउच प्रेमी भी आया। कई वारदाते कर चुके हाँ । पुलिस को उनकी तलाश है।

इंजीनियर साहब के समझ में कुछ नहीं आ रहा था। अभी तक वो वास्तविकता और सपने में ही अन्तर नहीं कर पा रहे थे। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि ये सपना हो और वो हक़ीकत, जो उन्होनें सपने में देखा था। पता करने के लिये उन्होने अपने आपको जोरदार चिकोटी काटी। सच्चाई वहीं पता चल गया। बहुत जोर से चिल्लाये और हाथ का उतना हिस्सा लाल हो गया।


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