एक वाकया

एक वाकया

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खाने से जुड़ी स्मृति बडी ही निराली। मुझे याद है मैं करीबन १३ या १४ साल की थी और मैंने पहली बार लौकी की सब्ज़ी और चावल के आटे की रोटी बनाई थी।


उस दिन मम्मी घर पर नहीं थी और पापा का मन था की चावल के आटे की रोटी खाने का, तो मैंने चावल भीगा कर सिल बट्टे पे पीस कर रोटी बना कर पापा को बना कर खाने के लिए दे दी। पापा बहुत खुश हुए, और घर पे जो कोई भी आता था सबके सामने मेरी तारीफ़ करते रहते थे।


मजे की बात यह हुई कि सब्ज़ी में नमक थोड़ा ज्यादा हो गया था और भाई लोग बोलने लगे कि खाना-वाना बनाना नहीं आता और बनाने लग जाती है। तब पापा ने भाइयों की क्लास लगा दी, बोले, “बना बनाया मिल रहा है चुप कर के खा लो। ज्यादा दिक्कत आ रही है तो खुद किचन में जा कर बना लो और खाओ किसी के नाम पर नहीं लिखा है कि ये काम इसका है या उसका।” एक वो दिन था और एक आज का भाइयों ने दोबारा कभी भी नहीं मुंह खोला।


आज जब मेरे बच्चे खाने में नखरे दिखाते है, तो मेरा भी यही डायलॉग होता है खाना है तो खाओ नहीं तो मर्ज़ी आपकी!


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