द्वंद्व युद्ध - 21.1

द्वंद्व युद्ध - 21.1

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हमेशा की ही तरह नज़ान्स्की घर पर ही था। एक बोझिल, नशीली नींद के बाद वह अभी अभी जागा था और अपने हाथों को सिर के नीचे रखे, सिर्फ निचले अंतर्वस्त्रों में पलंग पर लेटा था। उसकी आँखों में एक उदासीन, थकानभरा धुँधलापन था। उसके चेहरे का उनींदापन ज़रा भी नहीं बदला, जब रमाशोव ने उसके ऊपर झुकते हुए अविश्वास और उत्तेजना से पूछा, “नमस्ते, वासिली नीलिच, मैंने आपको परेशान तो नहीं किया ?”

 “नमस्ते,” नज़ान्स्की ने भर्राई, कमज़ोर आवाज़ में जवाब दिया। “क्या ख़ुशख़बर है ? बैठिए।”

उसने रमाशोव की ओर अपना गर्म, नम हाथ बढ़ाया, मगर देखा उसकी तरफ़ इस तरह, जैसे उसके सामने उसका प्यारा, दिलचस्प साथी नहीं; बल्कि बीत चुके, उबाऊ सपने का परिचित दृश्य हो।

 “आपकी तबियत ठीक नहीं है ?” उसके पैरों के निकट पलंग पर बैठते हुए रमाशोव ने सकुचाहट से पूछा, “तो मैं आपको परेशान नहीं करूँगा। मैं जा रहा हूँ।”

नज़ान्स्की ने सिर तकिये से कुछ ऊपर को उठाया और आँखें पूरी तरह सिकोड़ते हुए, प्रयत्नपूर्वक रमाशोव की ओर देखा।

 “नहीं,,,रुकिए, आह, सिर कितना दुख रहा है ! सुनिए, गिओर्गी अलेक्सेयेविच, आपके पास कुछ है। कुछ असाधारण बात है। ठहरिए, मैं ख़्यालों को समेट नहीं पा रहा हूँ। आपको क्या हो रहा है ?”

रमाशोव ने उसकी ओर ख़ामोश सहानुभूति से देखा। रमाशोव ने ग़ौर किया कि पिछली मुलाक़ात के बाद से नज़ान्स्की का पूरा चेहरा अजीब तरह से बदल गया था: उसकी आँखें गहरे धँस गईं थीं और उनके चारों ओर काले घेरे पड़ गए थे; कनपटियाँ पीली पड़ गई थीं; और असमान गंदी त्वचा वाले गाल धँस गए थे, नीचे की ओर चीकट हो रहे थे; और उन पर बड़े भद्दे तरीक़े से बालों के विरले खूँट उग आए थे।

 “कोई ख़ास बात नहीं है, सिर्फ आपको देखना चाहता था,” लापरवाही से रमाशोव ने कहा। “कल मैं निकोलाएव के साथ द्वन्द्व-युद्ध कर रहा हूँ। घर जाने का मन नहीं हो रहा है। और हाँ, ख़ैर, सब एक ही बात है। फिर मिलेंगे। मुझे, जानते हैं न, बात करने के लिए कोई नहीं मिल रहा था। आत्मा पर बोझ महसूस हो रहा है।

नज़ान्स्की ने आँखें बन्द कर लीं, और पीड़ा से उसका चेहरा विकृत हो गया। ज़ाहिर था कि इच्छा शक्ति के कृत्रिम तनाव से वह अपनी चेतना को वापस ला रहा था। जब उसने आँखें खोलीं, तो उनमें एकाग्र, गर्माहटभरी चिंगारियाँ चमक रही थीं।

 “नहीं, रुकिए।।।हम ऐसा करते हैं,” नज़ान्स्की ने मुश्किल से करवट ली और कोहनी के बल उठा। “वहाँ, उस अल्मारी से लाइये। आप जानते हैं। नहीं, सेब की ज़रूरत नहीं है। वहाँ पेपरमिंट की गोलियाँ हैं। शुक्रिया, मेरे अपने। हम ऐसा करते हैं। फू। कैसा घिनौनापन है ! मुझे खुली हवा में कहीं ले चलिए – यहाँ बड़ा घिनौना है, और मुझे यहाँ डर लगता है।।।हमेशा ऐसे डरावने भ्रम होते हैं। जाएँगे, नाव में सैर करेंगे और बातें करेंगे। ठीक है ?”

वह माथे पर बल डालते हुए, बड़ी अरुचि दर्शाते हुए पेग पर पेग पीता रहा और रमाशोव देख रहा था कि उसकी नीली आँखों में कैसे धीरे धीरे जीवन की ज्योति और चमक प्रकट हो रही है; और वे कैसे फिर से ख़ूबसूरत हो गई हैं।

घर से निकल कर उन्होंने किराए पर गाड़ी ली और शहर के छोर की ओर गए, नदी की ओर। वहाँ, डॅम के एक ओर यहूदियों की पनचक्की थी – बड़ी लाल इमारत; और दूसरे ओर – स्नानगृह थे, और वहीं पर किराए पर नौकाएँ दी जाती थीं। रमाशोव चप्पुओं की ओर बैठा, और नज़ान्स्की सिरे की ओर अधलेटा बैठ गया, अपने आप को ओवरकोट में लपेटे।

बाँध द्वारा रोकी गई नदी चौड़ी और निश्चल थी, जैसे कोई बड़ा तालाब हो। उसके दोनों ओर के किनारे समतल और एक सा ऊपर की ओर जाते थे। उन पर लगी घास इतनी एक सी, इतनी चमकीली और रसभरी थी, कि दूर से उसे हाथ से छूने का मन करता। किनारों के नीचे, पानी में हरे हरे सरकंडे दिखाई दे रहे थे और घनी, काली गोल-गोल पत्तियों के बीच वाटर-लिली की बड़ी बड़ी सफ़ेद कलियाँ झाँक रही थीं।

रमाशोव ने निकोलाएव के साथ हुई झड़प का विस्तार से वर्णन किया। नज़ान्स्की ने उसे सुना सोच में डूबे हुए, सिर झुकाए, नीचे पानी की ओर देखते हुए, जो नाव की नोक से दूर तक और चौड़ाई में, द्रवित काँच की तरह सुस्त गहरी धाराओं में इधर से उधर बिखर रहा था।

 “सच बताना, आप डर तो नहीं रहे हैं, रमाशोव ?” नज़ान्स्की ने हौले से पूछा।

 “द्वन्द्व-युद्ध से ? नहीं, नहीं डरता,” रमाशोव ने जल्दी से जवाब दिया। मगर वह फ़ौरन चुप हो गया और एक सेकंड के लिए उसने सजीव कल्पना की कि वह कैसे निकोलाएव के सामने, बिल्कुल नज़दीक, खड़ा होगा, और उसके फैले हुए हाथ में रिवाल्वर का नीचे की ओर झुकता हुआ हत्था देखेगा, - “नहीं, नहीं,” रमाशोव ने शीघ्रता से आगे कहा। “मैं झूठ नहीं बोलूँगा, कि नहीं डरता। बेशक, ये डरावना है। मगर मैं जानता हूँ कि मैं कायरता नहीं दिखाऊँगा; भाग नहीं जाऊँगा; माफ़ी नहीं मांगूँगा।”

नज़ान्स्की ने शाम के, हौले-हौले कुलकुलाहट करते, कुछ गर्माहट भरे पानी में अपनी उंगलियों के पोर डाले और धीरे धीरे, निर्बल आवाज़ में, हर पल खाँसते हुए कहना शुरू किया, “आह, मेरे प्यारे, प्यारे रमाशोव , तुम ऐसा क्यों करना चाहते हो ? सोचिये ! अगर आपको पक्का मालूम है कि आप कायरता नहीं दिखाएँगे, - अगर पूरी तरह पक्का यक़ीन है,- तो इससे कितना अधिक साहसी कार्य होगा इनकार कर देना।”

 “उसने मुझे मारा। चेहरे पर !” रमाशोव ने ज़िद्दीपन से कहा, और उसके भीतर फिर से, सुलगते हुए क्रोध की बोझिल लपटें उठने लगीं।

 “तो ठीक है, न; मारा तो मारा,” नज़ान्स्की ने स्नेहपूर्वक प्रतिवाद किया और दुखी, प्यारभरी आँखों से रमाशोव की ओर देखा। “क्या वाक़ई में ख़ास बात यही है ? दुनिया में हर चीज़ गुज़र जाती है, आपका दर्द और आपकी नफ़रत भी गुज़र जाएगी। और आप ख़ुद भी इस बारे में भूल जाएँगे। मगर उस आदमी को, जिसे आपने मार डाला है; आप कभी नहीं भूल पाएँगे। वह आपके साथ आपके बिस्तर पर होगा, मेज़ पर होगा, तनहाई में होगा और भीड़ में भी होगा। बकवास करने वाले, छँटे हुए बेवकूफ़, ठस दिमाग़, रंगबिरंगे तोते यक़ीन दिलाते हैं कि द्वन्द्व-युद्ध में की गई हत्या – हत्या नहीं होती। क्या बकवास है ! मगर वे बड़ी भावुकता से विश्वास करते हैं कि डाकुओं को अपने शिकारों के दिमाग़ों और खून के सपने आते हैं। नहीं; हत्या – हमेशा हत्या ही होती है। और यहाँ महत्वपूर्ण है, न दर्द, न मौत, न अत्याचार, न खून और लाश के प्रति अतीव घृणा, - नहीं सबसे भयानक बात यह है कि आप एक आदमी से उसकी ज़िन्दगी की ख़ुशी छीनते हैं। ज़िन्दगी की महान ख़ुशी !” – अचानक नज़ान्स्की ने ज़ोर से अपनी बात दोहराई, आवाज़ आँसुओं से सराबोर थी। “क्योंकि कोई भी – न आप, न मैं; आह, सीधी सादी बात कहूँ, तो दुनिया में एक भी आदमी मृत्योपरांत के किसी भी जीवन में विश्वास नहीं करता है। इसीलिए सब मौत से डरते हैं। मगर कमज़ोर दिल वाले बेवकूफ़ अपने आप को फुसलाते हैं दमकते रंगीन बागों की, नपुंसकों के मीठे गीतों की कल्पना से; और मज़बूत इन्सान – चुपचाप आवश्यकता की सीमा पार कर जाते हैं। हम – मज़बूत दिल वाले नहीं हैं। जब हम सोचते हैं कि हमारी मृत्यु के बाद क्या होगा, तो कल्पना करते हैं एक ख़ाली, ठंडे और अंधेरे तहख़ाने की। नहीं, प्यारे, ये सब झूठी बातें हैं: तहख़ाना एक सुखदायी धोखा होता; ख़ुशनुमा दिलासा होता; मगर कल्पना कीजिए उस ख़याल की पूरी भयंकरता की कि बिल्कुल, बिल्कुल कुछ भी नहीं होगा; न अंधेरा, न ख़ालीपन, न ठंडक।।।इस बारे में कोई ख़याल भी नहीं होगा, भय भी नहीं बचेगा ! कम से कम भय ! सोचिये !”

रमाशोव ने चप्पू नाव के किनारों पर फेंक दिए। नाव पानी पर मुश्किल से हिल रही थी, और यह सिर्फ इसी बात से प्रतीत होता था कि हरे हरे किनारे कितने हौले हौले विरुद्ध दिशा में जा रहे हैं।

 “हाँ, कुछ भी नहीं होगा,” रमाशोव ने सोच में डूबे डूबे कहा।

 “और देखिए, नहीं, सिर्फ देखिए, कितनी ख़ूबसूरत, कितनी आकर्षक है ज़िन्दगी !” नज़ान्स्की चहका, अपने चारों ओर हाथ फैलाकर घुमाते हुए, “ओह, ख़ुशी ! ओह, स्वर्गीय सौन्दर्य ज़िन्दगी का ! देखिए: नीला आसमान, शाम का सूरज, ख़ामोश पानी – उल्लास से थरथराने लगते हो, जब इनकी ओर देखते हो, - वो वहाँ, दूर, पवनचक्कियाँ अपने पंख फड़फड़ा रही हैं; हरी छोटी-छोटी घास, किनारे के निकट पानी – गुलाबी, डूबते सूरज की रोशनी में गुलाबी; आह, कितना विचित्र है ये सब, कितना नाज़ुक, कितना सुख से परिपूर्ण !”

नज़ान्स्की ने अचानक हाथों से आँखें बन्द कर लीं और रो पड़ा, मगर उसने फौरन अपने आप पर काबू कर लिया और अपने आँसुओं से लज्जित न होते हुए, रमाशोव की ओर गीली, चमकीली आँखों से देखते हुए कहने लगा, “ नहीं, अगर मैं रेलगाड़ी के नीचे आ जाऊँ, और अगर मेरा पेट कट जाता है, और मेरे आंतरिक अंग रेत में मिल जाते हैं और पहियों पर चिपक कर घूमने लगते हैं; और यदि इस अंतिम क्षण में मुझसे पूछा जाता है: “तो, क्या, क्या अभी भी ज़िन्दगी ख़ूबसूरत है ?” तो मैं एहसानभरे धन्यवादयुक्त उल्लास से कहूँगा, “आह, कितनी ख़ूबसूरत है वो !” कितनी ख़ुशी मिलती है हमें सिर्फ देखने से ! और अगर साथ में संगीत, फूलों की ख़ुशबू, मीठा मीठा प्रियतमा का प्यार भी हों और एक है अपरिमित आनन्द – जीवन का सुनहरा सूरज, मानवीय विचार ! मेरे अपने यूरोच्का ! माफ़ कीजिए कि मैंने आपको इस तरह पुकारा,” नज़ान्स्की ने जैसे क्षमायाचना करते हुए दूर से ही अपना थरथराता हाथ उसकी ओर बढ़ा दिया। “मान लो, कि आपको जेल में डाल दिया जाता है। हमेशा, हमेशा के लिए; और ज़िन्दगी भर आप एक झिरी से सिर्फ दो पुराने कबेलू ही देख सकते हैं। नहीं, ये भी नहीं; मान लीजिए कि आपकी जेल में रोशनी की एक किरण भी नहीं आती है, कोई आवाज़ भी नहीं पहुँचती है – कोई बात नहीं ! फिर भी क्या इसकी तुलना मौत के अजीब से ख़ौफ़ से की जा सकती है ? आपके पास ख़याल तो बचे हैं, कल्पना है, यादें हैं, सृजन है – तो इस सब के सहारे भी जिया जा सकता है। और आपके पास जीवन के आनन्द से उल्लास के क्षण भी हो सकते हैं।”

 “हाँ, ज़िन्दगी ख़ूबसूरत है,” रमाशोव ने कहा।

 “ख़ूबसूरत !” फट पड़ा नज़ान्स्की। “और, अब दो आदमी, इसलिए कि, उनमें से एक ने दूसरे को मारा, या उसकी पत्नी का चुंबन लिया, या सिर्फ। नज़दीक से गुज़रते हुए अपनी मूँछों पर ताव देते हुए उसकी ओर मग़रूरियत से देखा – ये दो आदमी एक दूसरे पर गोली चलाते हैं; एक दूसरे को मार डालते हैं। आह, नहीं, उनके ज़ख़्म, उनके दुख, उनकी मृत्यु – ये सब जहन्नुम में ! असल में वह स्वयँ की हत्या कर रहा है – दयनीय घूमता फिरता स्नायुओं का गोला; जो इन्सान कहलाता है ? वह हत्या करता है सूरज की; गर्म, प्यारे सूरज की; साफ़ आसमान की; प्रकृति की, - जीवन की विभिन्न प्रकार की ख़ूबसूरती की, मार डालता है आनन्द को और आत्माभिमान को – मानवीय विचार को ! वह उसे मार डालता है, जिसे कभी भी, कभी भी, कभी भी वापस नहीं लौटाया जा सकता। आह, बेवकूफ़, बेवकूफ़ !”


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