द्वंद्व युद्ध - 15.1

द्वंद्व युद्ध - 15.1

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पहली मई को कम्पनी कैम्प में गई, जो कई सालों से एक ही जगह पर स्थित था, शहर से दो मील दूर, रेल पथ के दूसरी ओर। जूनियर अफ़सरों को कैम्प के दौरान अपनी अपनी रेजिमेंट के निकट लकड़ी की बैरेक्स में रहना पड़ता था, मगर रमाशोव अपने शहरी फ्लैट में ही रुका रहा क्योंकि छठी रेजिमेंट के अफसरों का आवास बुरी तरह जर्जर हो चुका था और उसके कभी भी धराशायी होने की आशंका थी, और उसकी मरम्मत के लिए आवश्यक धनराशि उपलब्ध नहीं थी। दिन में चार चक्कर लगाना पड़ता था: सुबह की क्लासेज़ के लिए, फिर वापस मेस में– लंच के लिए, फिर शाम की ट्रेनिंग के लिए और उसके बाद वापस शहर में। इससे रमाशोव थक गया था और चिड़चिड़ा हो गया था। पहले पन्द्रह दिनों में ही वह दुबला हो गया, काला पड़ गया और उसकी आँखें बाहर निकल आईं।

मगर सभी के लिए यह समय कष्टप्रद था: अफ़सरों के लिए भी और सिपाहियों के लिए भी। मई की इन्स्पेक्शन परेड़ की तैयारी हो रही थी, और किसी तरह की दया, किसी तरह की थकावट की गुंजाइश नहीं थी। रेजिमेंट कमांडर अपनी अपनी रेजिमेंट्स को ग्राऊंड पर दो-तीन घंटे ज़्यादा बेज़ार कर रहे थे। ट्रेनिंग के समय सभी तरफ़ से, सभी मुखों से और सभी टुकड़ियों से लगातार थप्पड़ों की आवाज़ें सुनाई पड़ती थीं। अक्सर दूर से, क़रीब बीस क़दम की दूरी से, रमाशोव निरीक्षण करता कि कैसे कोई रेजिमेंट कमांडर तैश में आकर अपने सभी सिपाहियों को क्रम से बाँए बाज़ू से दाहिने बाज़ू तक कोड़े मारता। पहले हाथ की नि:शब्द हलचल और – सिर्फ़ एक सेकंद बाद – आघात की सूखी चटचटाहट, दुबारा, दुबारा, दुबारा।।।इसमें बहुत कुछ दहलाने वाला, वीभत्स और घृणास्पद था। अंडर ऑफ़िसर्स अपने मातहतों को भाषा की कक्षा में छोटी से छोटी ग़लती करने पर बड़ी बेरहमी से मारते; मार्च करते समय कदम ग़लत पड़ने पर – ख़ून निकलने तक मारते, दाँत तोड़ देते, कानों पर मार मार के कानों के परदे फाड़ देते, मुक्कों से मार मार के उन्हें ज़मीन पर गिरा देते। शिकायत करने की बात किसी के भी दिमाग में नहीं आई: जैसे चारों ओर एक राक्षसी, मनहूस हौआ विद्यमान था, जैसे एक बेढंगा सम्मोहन पूरी कम्पनी पर छाया था। और भयानक गर्मी के कारण यह सब और भी गहराता जा रहा था, इस साल मई का महीना असाधारण रूप से उमस भरा था।

सभी का मानसिक तनाव चरम सीमा तक पहुँच चुका था। ऑफ़िसर्स मेस में दोपहर के और रात के भोजन के समय अक्सर बेहूदगी भरी बहस, बेवजह का अपमान, झगड़े हो जाते थे। सिपाहियों के गाल पिचक गए थे और वे बेवकूफ़ नज़र आते थे। मुश्किल से मिले फुर्सत के क्षणों में उनके तंबुओं से न तो कोई चुटकुले सुनाई देते, न ही हँसी। मगर फिर भी उन्हें शाम को रोल कॉल के बाद मनोरंजन करने का आदेश दिया जाता। और वे एक झुंड में इकट्ठे होकर भावहीन चेहरों से उदासीनतापूर्वक भौंकते :

र्बम-गोले कुछ भी नहीं,रूसी सिपाही के लिए, नसे तो है उसकी यारी, मामूली है उसके लिए।

इसके बाद ऑर्गन पर नृत्य की धुन बजाई जाती और अंडर ऑफ़िसर आदेश देता, “ ग्रिगोराश, स्क्वोर्त्सव, गोल में! नाचो, सुअर के बच्चों ! ख़ुशी मनाओ !”

वे नाचते, मगर इस नृत्य में, वैसे ही जैसे कि गाने में, कुछ काठ जैसा, मुर्दे जैसा था जिससे रोने का मन करता।

बस अकेली पाँचवी रेजिमेंट मस्ती में जी रही थी– आसानी से और आज़ादी से। वह औरों की अपेक्षा एक घंटा देर से ट्रेनिंग के लिए निकलती और एक घंटा पहले वापस लौट जाती। उसके लोग जैसे चुन चुन कर रखे गए थे: खाए-पिए, जोशीले, हर अफ़सर की आँखों में विचारपूर्वक और निर्भयता से देखते हुए; उनके कोट और कमीज़ें भी उन पर अन्य रेजिमेंटों के मुक़ाबले में बढ़िया बैठते थे। इस रेजिमेंट का कमांडर था कैप्टेन स्तेल्कोव्स्की, विचित्र व्यक्ति: कुँआरा, कम्पनी के हिसाब से काफ़ी पैसे वाला, - उसे हर महीने कहीं से क़रीब दो सौ रुबल्स प्राप्त होते थे, - बड़ी आज़ाद तबीयत का, रूखा बर्ताव करता, अपने आप में सिमटा हुआ, साथियों से दूरी बनाकर रखता और इसके अलावा व्यभिचारी भी था। वह ग़रीब घर की कच्ची उम्र की लड़कियों को अपने यहाँ नौकरानियों के रूप में रखकर उन्हें फुसलाता और एक महीने बाद उन्हें भरपूर पैसा देकर वापस भेज देता। और यह सालों से, इतने व्यवस्थित ढंग से चल रहा था कि उसे समझ पाना मुश्किल था। उसकी रेजिमेंट में न तो कोई किसी से लड़ता था और न ही ग़ुस्सा करता था। हाँलाकि उनका विशेष लाड़ भी नहीं किया जाता था, मगर फिर भी उसकी रेजिमेंट बड़ी शानदार दिखाई देती थी और पढ़ाई में भी वह गारद के किसी भी भाग से पीछे नहीं थी। उसमें सहनशील, ठंड़े दिमाग़ से सोची-समझी, आत्मविश्वासपूर्ण दृढ़ता थी जिसे वह अपने अंडर ऑफ़िसर्स को सफ़लता से संप्रेषित करता था। अन्य रेजिमेंटों में जो मार पीट, सज़ा, चिल्ला-चोट और भगदड़ के द्वारा एक हफ़्ते में हासिल किया जाता था, उसे वह आराम से एक दिन में कर लेता था। ऐसा करते समय वह बहुत कम बोलता और आवाज़ भी कभी-कभार ही ऊँची करता, मगर जब वह बोलता तो सिपाही मानो बुत बन जाते। उसके साथी उससे बुरा बर्ताव करते, सिपाही वाक़ई में उससे प्यार करते: शायद, यह पूरी रूसी सेना में एक ही आदर्श उदाहरण था।

आख़िरकार पन्द्रह मई का दिन आ गया, जब, कोर कमांडर के आदेशानुसार, इंस्पेक्शन होना था। इस दिन, पाँचवी रेजिमेंट को छोड़कर, अन्य सभी रेजिमेंटों में अंडर ऑफ़िसर्स ने सिपाहियों को चार बजे उठा दिया। गर्माहट भरी सुबह के बावजूद, आधी नींद से जागे हुए, उबासियाँ लेते हुए सिपाही अपनी लिनन की कमीज़ों में भी थरथर काँप रहे थे। मेघरहित सुबह के गुलाबी रंग में उनके चेहरे भूरे मटमैले और दयनीय लग रहे थे।

छह बजे ऑफ़िसर्स रेजिमेंटों के पास आए। पूरी कम्पनी को दस बजे इकट्ठा होना था, मगर एक भी रेजिमेंट कमांडर के, स्तेल्कोव्स्की को छोड़कर, दिमाग़ में यह ख़याल नहीं आया कि इंस्पेक्शन से पूर्व लोगों को नींद पूरी करने का और आराम करने का मौक़ा दें। उल्टे, इस सुबह तो विशेष ईर्ष्या और परेशानी से उनके दिमाग़ों में भाषा और शूटिंग के नियम ठूँस ठूँस के भरे गए, हवा गाली-गलौज, डाँट-डपट से दूषित हो गई थी और आम तौर से ज़्यादा मुक्के मारे जा रहे थे, दाँतों पर घूँसे चलाए जा रहे थे।

नौ बजे रेजिमेंट्स कैम्प से पाँच सौ क़दम दूर परेड ग्राऊँड पर खड़ी हो गईं। वहाँ आधा मील लंबी सीधी लाईन में पहले से ही सोलह रेजिमेंट ध्वजवाहक अपनी अपनी बंदूकों पर विभिन्न रंगों के झंडे लगाए खड़े थे। ध्वजवाहक ऑफ़िसर, लेफ्टिनेंट कवाका, आज के दिन का प्रमुख नायक, सिर पर कैप लगाए, श्रम के कारण पूरा लाल और पसीने से लथपथ, लगाम ढीली छोड़े अपनी घोड़ी पर इस लाईन को ठीक करते हुए आगे-पीछे जा रहा था, तैश में चीख़ रहा था। उसकी तलवार ख़तरनाक ढंग़ से घोड़ी की पसलियों पर मार किए जा रही थी, और सफ़ेद मरियल घोड़ी, जो बुढ़ापे के कारण सफ़ेद झाँई से ढँक गई थी और जिसकी दाहिनी आँख में फूल पड़ गया था, कँपकँपा कर अपनी छोटी सी पूँछ घुमाती और अपनी बेतरतीब सरपट चाल के साथ साथ रुक रुक कर बन्दूक की आवाज़ जैसी तेज़ आवाज़ करती जा रही थी। आज लेफ्टिनेंट कोवाका पर बहुत कुछ निर्भर करता था: उसके ध्वजवाहकों के अनुसार कम्पनी की सभी सोलह रेजिमेंट्स को मानो एक धागे में, बग़ैर किसी त्रुटि के ‘फ़ालिन’ होना था।

दस बजने में ठीक दस मिनट थे जब पाँचवी रेजिमेंट कैम्प से बाहर निकली। दृढ़तापूर्वक, बड़े बड़े तेज़ क़दमों से, जिनके कारण ज़मीन एक ताल में थरथरा रही थी, पूरी कम्पनी के सामने से गुज़रे ये सौ व्यक्ति; मानो एक एक को चुन चुन के रखा गया हो: फ़ुर्तीले, शानदार, सीधे तने हुए, ताज़ा तरीन चेहरे लिए, दाहिने कान पर खिंची टोपियाँ लगाए। कैप्टेन स्तेल्कोव्स्की, छोटा सा, दुबला-पतला व्यक्ति, अति चौड़ी पतलून में लापरवाही से, बग़ैर मार्च की आम चाल से चल रहा था, दाहिने पार्श्व के किनारे, पाँच क़दम दूर और प्रसन्नता से आँखें बारीक किए, सिर झुकाए, कभी एक तो कभी दूसरे किनारे को देखते हुए, पंक्ति की सीध को देखते हुए। बटालियन कमांडर लेफ्टिनेंट कर्नल लेख, जो अन्य अफ़सरों की भाँति सुबह से ही वहाँ था, बड़ा नर्व्हस और फ़ालतू में ही उत्तेजित, उस पर हमला ही बोलने वाला था परेड ग्राऊँड पर देर से आने के लिए, मगर स्तेल्कोव्स्की ने बड़े ठंड़ेपन से घड़ी निकाली, उसे देखा और रुखाई से, लगभग लापरवाही से जवाब दिया:

 “आदेश में दस बजे इकट्ठा होने के लिए कहा गया है। अभी दस बजने में तीन मिनट हैं। मैं समझता हूँ कि मुझे बेकार में लोगों को सताने का कोई हक़ नहीं है।”

 “ बा..आ...आ....त नहीं करने का !” हाथ हिलाते और घोड़े को रोकते हुए लेख चिंघाड़ने लगा। “बरखुरदार, गुज़ारिश है कि जब से-ए-ए-ना में डाँटा जाए तो ख़ामोश रहिए।”

मगर फिर भी वह समझ गया कि वह सही नहीं है और इसीलिए फ़ौरन वहाँ से चला गया, बड़ी क्रूरता से आठवीं रेजिमेंट पर झपट पड़ा, जहाँ अफ़सर सिपाहियों की ‘किट्स’ का निरीक्षण कर रहे थे।

 “बरखुरदार, ये क्या गड़बड़ है! बरखुरदार, क्या बाज़ार लगा रखा है ? छोटी मोटी चीज़ों की दुकान ? बरखुरदार, शिकार पर जाओ, तभी कुत्तों को खिलाओ ? पहले क्या कर रहे थे! ड्रे-ए-ए-स अ-अ-अ-प !”

सवा दस बजे रेजिमेंट्स को सीधी पंक्ति में खड़ा किया जाने लगा। यह एक लंबा, काफ़ी मेहनत का और दर्दनाक काम था। एक ध्वजवाहक से दूसरे ध्वजवाहक तक खूँटों पर लम्बी रस्सियाँ तानी गई थीं। पहली पंक्ति के हर सैनिक को गणितीय अचूकता से इन रस्सियों को पंजों की बिलकुल नोक से छूते हुए खड़ा होना पड़ता था - यह संरचना की विशिष्ट स्टाइल थी। मगर यह भी कम था: इस बात की माँग की जाती थी कि दोनों पंजों के बीच में बंदूक का ‘बट’ रखा जाए और यह भी कि सभी सैनिकों के शरीरों का झुकाव बिलकुल एक सा हो, और रेजिमेंट कमांडर्स चिल्लाते हुए अपना आपा खो रहे थे: “इवानोव, धड़ आगे करो! बूर्चेन्का, दाहिना कंधा मैदान की ओर मोड़ो ! बाँया पंजा पीछे! और !”

साढ़े दस बजे कम्पनी कमांडर आया। वह भारी भरकम काली पूँछ और काली ग्रीवा वाले, लाल भूरे खस्सी किए हुए कुमैत घोड़े पर बैठा था, जिसके शरीर पर काले काले गोले थे, और चारों पैर घुटनों तक सफ़ेद थे। घोड़े पर बैठा शूल्गविच बड़ा प्रभावशाली और शानदार लग रहा था। और वह मज़बूती से बैठा था, हाँलाकि बहुत ज़्यादा इन्फैंट्री वालों जैसा, बहुत छोटी रकाबों में पैर रखे। कम्पनी का स्वागत करते हुए वह जोश से ख़ुशनुमा आवाज़ में चिल्लाया, “स्वागत है, ख़ूबसूरत जवानों-ओ-ओ-ओ !”

रमाशोव को अपनी चौथी टुकक्या कहने ! अच्छे हैं ख़ूबसूरत जवान फ़ौजी बैंड़ की आवाज़ के बीच जो ‘मुलाक़ात’ की धुन बजा रहा था, झंडे बाहर लाए गए। एक थकाने वाला इंतज़ार शुरू हुआ। आगे, बहुत दूर, ठीक रेल्वे स्टेशन तक, जहाँ से कोर-कमांडर का इंतज़ार हो रहा था, हाथ हिलाने वालों की एक श्रृंखला फैली हुई थी, जो अफ़सरों के आगमन की सूचना संकेतों से देने वाले थे। कई बार झूठ-मूठ की वार्निंग दी गई। फ़ौरन रस्से बंधे खूँटों को खींचा गया, कम्पनी सीधी लाईन में खड़ी हो गई, ‘अटेंशन’ में खड़ी हो गई, उनकी प्रतीक्षा में जम गई – मगर कुछेक बोझिल पल बीतते और लोगों को फिर से ‘आराम से’ की स्थिति में आने की इजाज़त दी जाती, सिर्फ पंजों की स्थिति बदले बिना। आगे, संरचना से क़रीब तीन सौ क़दम दूर, महिलाओं की रंग बिरंगी पोषाकें, छतरियाँ और टोपियाँ चमक रही थीं: वहाँ कम्पनी की महिलाएँ खड़ी थीं, जो परेड़ देखने के लिए एकत्रित हुई थीं। रमाशोव को अच्छी तरह मालूम था कि इस रंग बिरंगी, उत्सव जैसी भीड़ में शूरच्का नहीं है, मगर जब वह उस ओर देखता तो हर बार दिल के निकट उसे मीठी सी चुभन महसूस होती, और एक विचित्र, बेवजह उत्तेजना को साँस के साथ भीतर खींचने का मन होता। 

 अचानक, मानो हवा के समान, एक डरा डरा सा, संक्षिप्त शब्द जल्दी से पंक्तियों में तैर गया: “आ रहा है, आ रहा है!”

सभी को मानो फ़ौरन एहसास हो गया कि वास्तविक, संजीदा घड़ी आ पहुँची है। सिपाही, जो सुबह से खिंचे-तने थे और मानसिक तनाव के कारण कस गए थे, खुद ब ख़ुद, बिना किसी आदेश के, जल्दी जल्दी लाईन में आ गए, तन कर खड़े हो गए और परेशानी से खाँसने लगे।

 “अटेन्शन! ध्वजवाहक, अपनी अपनी जगह प--र!” शूल्गविच ने आदेश दिया।

बाईं ओर आँखें घुमाकर रमाशोव ने दूर, मैदान के बिलकुल छोर पर, एक छोटा सा घुड़सवारों का झुंड़ देखा, जो पीली पीली धूल के हल्के ग़ुबार के बीच शीघ्रता से संरचना के निकट आ रहा था। कठोर और उत्तेजित चेहरे से शूल्गविच कम्पनी के मध्य से आवश्यकता से कम से कम चार गुना ज़्यादा दूर हटा। अपनी गतिविधियों की भारी भरकम खूबसूरती से इतराते हुए, अपनी रुपहली दाढ़ी ऊपर उठाए, कम्पनी के काले अविचल समूह को बेपरवाह नज़र से देखते हुए, गरजती, प्रसन्न और पूरे मैदान पर लहराती आवाज़ को खींचते हुए बोला, “कम्-म्पनी, अ-टे-ए-ए न्शन! सला-आ-आ।।।”

उसने जानबूझकर आवाज़ को खूब देर तक खींचे रखा, मानो इन सैंकड़ों व्यक्तियों पर अपनी हुक़ूमत का लुत्फ उठा रहा हो और इस क्षणिक आनन्द को कुछ और देर बनाए रखना चाहता हो; और अचानक इस प्रयत्न के फलस्वरूप पूरी तरह लाल होकर, गले की तनी हुई नसों से, सीने से पूरी साँस छोड़ते हुए गरजा, “।।।मी दे!”

एक, दो! बंदूकों के पट्टों पर हाथ नाचने लगे, कमर के बैजेस पर बोल्ट्स की खड़खड़ाहट होने लगी। दाँए बाज़ू से स्वागत मार्च की तीखी, ख़ुशनुमा और स्पष्ट आवाज़ें सुनाई दीं, मानो बांसुरियाँ और क्लेरोनेट शरारती और मुस्कुराते बच्चों जैसी, झुंड बनाती हुई तेज़ी से दौड़ पड़ी हों; ऊँचे ऊँचे तांबे के बिगुल समारोहपूर्वक विजयोल्लास से गाने लगे; ड्रम्स के गहरे गहरे आघात उनकी शानदार दौड़ को तेज़ करते जा रहे थे, और उनका साथ देने में असमर्थ भारी भारी तुरहियाँ गहरी, शांत, मखमली आवाज़ों में प्यार से बुदबुदा रही थीं। स्टेशन पर इंजिन ने लम्बी, पतली और स्पष्ट सीटी बजाई, और यह नई, मुलायम आवाज़ ऑर्केस्ट्रा की शानदार तांबे की आवाज़ों में गुँथते हुए, उनमें घुल कर एक विचित्र, प्रसन्न स्वर-संयोग बनाने लगी। एक उत्साहपूर्ण, साहसी लहर ने अचानक रमाशोव को हौले से, मिठास के साथ ऊपर उठाकर पकड़ लिया। एक प्रसन्न और तीक्ष्ण स्पष्टता से उसने अचानक देखी गर्मी से निस्तेज पड़ गई आसमान की नीलाभा, और हवा में थरथराता सूरज का सुनहरा रंग, और दूर के खेत की गर्माहटभरी हरियाली, - जैसे उसने पहले कभी उन्हें देखा ही नहीं था, - और अचानक उसने स्वयँ को युवा, ताक़तवर, चुस्त, गर्वीला महसूस किया, इस एहसास के कारण कि वह भी लोगों के इस विशाल, सुगठित, निश्चल समूह का एक हिस्सा है जो एक अदृश्य शक्ति द्वारा एक रहस्यमय रूप से बाँधे गए हैं।

शूल्गविच नंगी तलवार को चेहरे के बिल्कुल नज़दीक रखकर घोड़े को सरपट दौड़ाते हुए स्वागत के लिए चल पड़ा।

संगीत के फ़ूहड-ख़ुशनुमा फ़ौजी स्वरों के बीच जनरल की शांत, भारी-भरकम आवाज़ सुनाई दी: “नमस्ते, पहली रेजिमेंट !”

सिपाही दोस्ताना अंदाज़ में, जी लगाकर और ज़ोर से चिल्लाए और स्टेशन पर इंजिन ने फिर से सीटी बजाई – इस बार रुक-रुक कर, संक्षिप्त सी, और जैसे पूरे जोश में। एक के बाद एक एक रेजिमेंट का अभिवादन करते हुए कोर-कमांडर धीरे धीरे फ्रंट से गुज़र रहा था। रमाशोव ने स्पष्टता से उसकी भारी-भरकम, सूजी सूजी आकृति देखी; सीने पर और फूले हुए पेट पर बन्द गले की ट्यूनिक की चौड़ी-चौड़ी क्रॉस करती हुई सलवटें, सिपाहियों से मुख़ातिब होता हुआ बड़ा चौकोर चेहरा; भूरे घोड़े पर कसा लाल आद्याक्षर जड़ा सजावटी आवरण, और फ्लैट, चमचमाते जूते में छोटा सा पैर हाथी दाँत की रिकाब में।

 “नमस्ते, छठी रेजिमेंट !”

रमाशोव के चारों ओर लोग बढ़ चढ़ कर चिल्लाए जैसे अपनी ही चीख़ से उनके गले फ़ट गए हों। जनरल आत्मविश्वासपूर्ण लापरवाही से घोड़े पर बैठा था, जो ख़ून जैसी लाल, सहृदय आँखों से, ख़ूबसूरती से गर्दन बाहर निकाले, अपने मुँह में फिट लोहे के छल्ले को चबाते हुए और उसके कल्ले सफ़ेद हैं और मूँछें काली, शायद रंग लगाया हो,रमाशोव के दिमाग़ में तेज़ी से ख़याल कौंध गया।

सुनहरे चश्मे की ओट से अपनी काली, एकदम जवान, बुद्धिमत्तापूर्ण और व्यंगात्मक आँखों से कोर कमांडर अपनी ओर देखती हुई आँख की हर जोड़ी को ग़ौर से देख रहा था। अब वह रमाशोव के निकट आया और उसने कैप के फुंदे पर हाथ रखा। रमाशोव खड़ा था, पूरी तरह तनकर, पैरों के स्नायुओं को कसकर, दर्द होने तक खींचे हुए, नीचे की ओर लटकती हुई तलवार की मूठ को कस कर पकड़े हुए। एक वफ़ादार, प्रसन्न जोश अचानक उसके हाथों-पैरों के बाहरी हिस्से में ठंडी लहर की तरह दौड़ गया, उसके रोंगटे खड़े कर गया। और एकटक कोर-कमांडर के चेहरे की ओर देखते हुए वह अपनी बचकानी आदत के अनुसार सफ़ौजी जनरल की आँखें प्रसन्नता से नौजवान सेकंड लेफ्टिनेंट की शानदार, दुबली-पतली आकृति पर ठहर गईं।

कोर-कमांडर ने एक के बाद एक सभी रेजिमेंट्स को देखा, हरेक का अभिवादन करते हुए। उसके पीछे उसके शानदार साथियों का झुंड चल रहा था: ख़ूबसूरत, चुस्त घोड़ों पर लगभग पन्द्रह स्टाफ़ ऑफ़िसर्स थे। रमाशोव ने उनकी ओर भी वैसी ही वफ़ादार आँखों से देखा, मगर इन साथियों में से किसी ने भी मुड़कर सेकंड लेफ्टिनेंट की ओर नहीं देखा। ये सारी परेड्स, संगीतमय स्वागत, पैदल सेना के छोटे छोटे अफ़सरों की उत्तेजना – उनके लिए परिचित था, काफ़ी पहले से एक बड़ा उकताने वाला काम था और रमाशोव एक अस्पष्ट ईर्ष्या से और दुष्टता से महसूस कर रहा था कि ये ‘बड़े’ लोग कोई ख़ास, ख़ूबसूरत ज़िन्दगी जीते हैं, जो उसके लिए अप्राप्य है। एक ऊँची ज़िन्दगी।

किसी ने दूर से संगीत को रोकने का इशारा किया। कोर कमांडर घोड़े पर सरपट चाल से कम्पनी की रेखा के समांतर दाहिनी ओर आया, और उसके पीछे विभिन्न प्रकार से परेशान होता हुआ उसका काफ़िला, शोख़, सजी धजी कतार में बिखर गया। कर्नल शूल्गविच पहली रेजिमेंट की ओर चला। अपने खस्सी कुमैत की लगाम खींचते हुए, अपने भारी बदन को पीछे झुकाते हुए वह कृत्रिम तैश से परिपूर्ण, ऐसी डरी डरी और भर्राई आवाज़ में चिल्लाया जैसे आग लगने पर अग्निशामक दल के अफ़सर चिल्लाते हैं:

 “कैप्टेन असाद्ची! अपनी रेजिमेंट से बाहर आओ! फुर्ती—ई से!”

कम्पनी कमांडर और असाद्ची की आवाज़ों को हमेशा सभी कक्षाओं में एक दूसरे का मुक़ाबला करने का शौक था। और सोलहवीं रेजिमेंट में भी असाद्ची की छैलेपन से खनखनाती कमांड सुनाई दी, “ रेजिमेंट, बंदूक कंधे पर! सेंटर में एक सीध में! क्विक मार्च!”

उसकी रेजिमेंट में लंबे, निरंतर अभ्यास के कारण मार्च करते समय जवानों के क़दम एक ख़ास, काफ़ी बिरले और मज़बूत तरीके से पड़ते थे, जिसमें सिपाहियों को अपना पैर काफ़ी ऊँचा उठाना पड़ता था। यह बड़ी ज़ोर से और प्रभावशाली ढंग से होता था और दूसरे रेजिमेंट कमांडरों की ईर्ष्या का कारण था।

मगर पहली रेजिमेंट पन्द्रह क़दम भी मार्च नहीं कर पाई थी कि कोर कमांडर की बेसब्र चीख़ सुनाई दी, “ ये क्या हो रहा है ? रेजिमेंट को रोकिए। रोकिए! रेजिमेंट कमांडर मेरे पास आईये। ये आप क्या दिखा रहे हैं ? ये क्या है: अंतिम यात्रा का जुलूस ? मशालों की मार्च ? टीन के सिपाही ? तिगुनी मार्च ? कैप्टेन, अब निकोलायेव का ज़माना नहीं रहा, जब पच्चीस पच्चीस सालों तक काम करते थे। इस तमाशे को करवाने में आपके कितने दिन बरबाद हुए! बेशकीमती दिन!”

असाद्ची उसके सामने खड़ा था: ऊँचा, निश्चल, उदास, नंगी तलवार नीचे किए। जनरल कुछ देर ख़ामोश रहा और अधिक शांत, दुख भरे और व्यंग्यात्मक लहज़े में आगे बोला, “वाक़ई में लोगों को इस ‘मार्च’ की ट्रेनिंग ने पस्त कर दिया है। आह, आप लोग, अनीकि-योद्धाओं। और अगर आपसे पूछा जाए।।।हाँ, ये, माफ़ कीजिए, इस नौजवान का नाम क्या है ?” जनरल ने उंगली से दाहिनी बाज़ू से दूसरे सिपाही की ओर इशारा किया।

 “इग्नाती मिखाईलविच, महामहिम,” असाद्ची ने सिपाहियों जैसी लापरवाह, काष्ठवत्, भारी आवाज़ में जवाब दिया।

 “ अच्छा -, और आप उसके बारे में क्या जानते हैं ? क्या वह कुँआरा है ? शादी शुदा है ? क्या उसके बच्चे हैं ? शायद गाँव में उसे किसी बात का दुख है ? कोई बदकिस्मती ? कोई ज़रूरत ? क्या है ?”

 “जानना संभव नहीं है, महामहिम। सौ आदमी हैं। याद रखना मुश्किल है।”

 “याद रखना मुश्किल है,” अफ़सोस से जनरल ने दुहराया। “आह, महाशय, महाशय! धर्म ग्रंथ में कहा गया है: आत्मा को मत मारो, और आप क्या कर रहे हैं ? ये ही सर्वाधिक पवित्र, भूरे, मवेशी, जब लड़ाई का वक़्त आता है, तो अपने सीने से आपको ढाँक लेते हैं, फ़ायरिंग के बीच से आपको कंधों पर उठा कर ले जाते हैं, बर्फ़बारी में अपनी सनहीं याद रख सकता।”

और पल भर को थरथराते हुए, उदासी से और बेज़रूरत लगाम खींचते हुए असाद्ची के सिर के ऊपर से जनरल कम्पनी कमांडर पर चिल्लाया, “कर्नल, हटाइये इस रेजिमेंट को। देखना भी नहीं चाहता। ले जाईये, फ़ौरन ले जाईये! प्योत्र की औलाद! कार्ड-बोर्ड के जोकर! फ़ौलादी दिमाग़!”

यहीं से कम्पनी का पतन शुरू हुआ। सिपाहियों की थकान और डर, अंडर-ऑफ़िसर्स की बेवजह की निर्दयता, सेवा के प्रति अफ़सरों का हृदयहीन, रोज़मर्रा जैसा और लापरवाह रवैया – ये सब बड़ी स्पष्टता से, मगर शर्मनाक ढंग से परेड़ के दौरान दिखाई दिया। दूसरी रेजिमेंट में लोगों को ‘हमारे पिता’ मालूम नहीं था, तीसरी में ख़ुद अफ़सर ही गड़बड़ा गए, ढीली ढाली हो गई संरचना से, चौथी रेजिमेंट में राईफ़लों के करतब दिखाते समय एक सिपाही की तबियत बिगड़ गई। और ख़ास बात ये – कि एक रेजिमेंट में तो घुड़सवारों के आकस्मिक हमले से बचने के तरीक़ों के बारे में किसी को मालूम ही नहीं था, हाँलाकि उनकी तैयारी की गई थी और उनका महत्व भी सबको ज्ञात था। ख़ास बात यह थी कि इन तरीक़ों को इसी कोर कमांडर ने ईजाद किया था और उन्हें प्रायोगिक शिक्षा में भी वही लाया था। इन तरीक़ों के अंतर्गत आता था फुर्ती से पुनः संरचना करना, जिसमें अधिकारियों से हर बार चतुराई की, फ़ौरन निर्णय क्षमता की और बड़े पैमाने पर व्यक्तिगत पहल की मांग की जाती थी। इसमें भी एक के बाद एक सारी रेजिमेंट्स असफ़ल रहीं, पाँचवीं रेजिमेंट को छोड़कर।

रेजिमेंट का निरीक्षण करने के बाद जनरल ने सभी ऑफ़िसर्स तथा अंडर-ऑफ़िसर्स को संरचना से बाहर भेजा और लोगों से पूछा कि वे हर बात से संतुष्ट तो हैं, अपने ओहदे के मुताबिक़ उन्हें हर चीज़ मिलती तो है, कोई शिकायत, कोई असंतोष तो नहीं है ? मगर सिपाही बड़े दोस्ताना अंदाज़ में गरजे कि ‘वे हर चीज़ से एकदम ख़ुश हैं।’ जब पहली रेजिमेंट से पूछा जा रहा था तो रमाशोव ने सुना कि कैसे उसके पीछे उसकी रेजिमेंट का सीनियर अंडर ऑफ़िसर रीन्दा फुसफुसाकर, धमकाते हुए सुर में कह रहा था, “कोई मेरे ख़िलाफ़ शिकायत तो करे! बाद में मैं उसकी ऐसी शिकायत करूंगा!”

मगर पाँचवीं रेजिमेंट ने इसमें भी बढ़िया प्रदर्शन किया। नौजवान, ताज़ा-तरीन लोग रेजिमेंट में सिखाए गए करतब भी इतनी आसानी से, जोश से और ज़िन्दादिली से कर रहे थे, इतनी फ़ुर्ती से और आज़ादी से कर रहे थे कि, ऐसा प्रतीत हो रहा था कि ये इन्स्पेक्शन उनके लिए भयानक इम्तिहान नहीं था, बल्कि कोई ख़ुशनुमा और बहुत आसान मनोरंजन था। जनरल अभी भी नाक-भौंह चढ़ाए था, मगर फिर भी उसने उन्हें मुबारकबाद दे ही दी : “बहुत अच्छे, जवानों!” पूरे इन्स्पेक्शन के दौरान उसने यह पहली बार कहा था।

घुड़सवारों के आकस्मिक हमलों के विरुद्ध इस्तेमाल किए जाने वाले तरीक़ों से तो स्तेल्कोव्स्की ने कोर-कमांडर को पूरी तरह जीत लिया। स्वयँ जनरल आकस्मिक, फ़ुर्तीले वाक्यों से आक्रमणकारी की ओर इशारा कर रहा था: “घुड़सवार दस्ता दाहिनी ओर, आठ सौ क़दम,” और स्तेल्कोव्स्की ने एक भी पल खोए बिना, फ़ौरन, सही ढंग से और सुकून से रेजिमेंट को रोकते हुए, उसे काल्पनिक दुश्मन की ओर मोड़कर, जो सरपट दौड़ा आ रहा था; समय की बचत करते हुए प्लैटून का घेरा बन्द किया – सामने वाली – घुटनों से; दूसरी – खड़े खड़े, निशाना बताया, दो या तीन काल्पनिक फ़ायर किए और उसके बाद आदेश दिया : ‘क्विक फ़ायर!’ “ “शाबाश, भाईयों! धन्यवाद, बहादुरों!” जनरल ने प्रशंसा की।

सवाल पूछे जाने के बाद रेजिमेंट फिर से फैल कर खड़ी हो गई, मगर जनरल ने उसे जल्दी नहीं छोड़ा। ख़ामोशी से फ्रंट लाईन के निकट से गुज़रते हुए उसने ताड़ती हुई नज़रों से, विशेष दिलचस्पी से सिपाहियों के चेहरों की ओर देखा, और एक हल्की सी, प्रसन्न मुस्कुराहट, चश्मे की ओट से भारी भारी सूजी पलकों की ओट से ढंकी उसकी बुद्धिमान आँखों में चमकने लगी। उसने अचानक घोड़े को रोका और पीछे मुड़ा, अपने स्टाफ़ के अधिकारी की ओर, “ नहीं, आप देखिए तखिलाते हैं ? सुनो, ऐ तुम, मोटे थोबड़े,” अपनी ठोढ़ी घुमाकर उसने एक सिपाही को इशारा किया, “क्या तेरा नाम कोवाल है ?”

 “सई है, महामहिम, मिखाईला बरीचुक!” प्रसन्नता से और बच्चों जैसी ख़ुशनुमा मुस्कुराहट से

सिपाही चिल्लाया।

 “ऐह तूऊ, और मैंने सोचा-कोवाल। तो, मतलब, मैंने ग़लती की,” जनरल ने मज़ाक़ किया। “कुछ नहीं किया जा सकता। नहीं हो सका।।।” उसने एक प्रसन्न, सनकी फ़ब्ती जोड़ी।

सिपाही के चेहरे पर बेवकूफ़ी भरी, ख़ुशनुमा मुस्कुराहट छा गई।

 “बिल्कुल नहीं, महामहिम!” वह और भी ज़्यादा ज़ोर से चिल्लाया। “मैं अपने गाँव में लुहारगिरी करत था।”

 “हाँ, देखा!” जनरल ने दोस्ताना अंदाज़ में सिर हिलाया। उसे सिपाही के बारे में अपने ज्ञान पर गर्व था। “तो, कैप्टेन, क्या यह अच्छा सिपाही है ?”

 “बहुत अच्छा है। मेरे सभी सिपाही बड़े अच्छे हैं,” स्तेल्कोव्स्की ने अपने रोज़मर्रा के, आत्मविश्वासयुक्त लहज़े में जवाब दिया।

जनरल की भौंहे नाराज़ी से थरथराईं, मगर होंठ मुस्कुरा रहे थे, और इससे उसका चेहरा दयालु और बूढ़े लोगों जैसा प्यारा हो गया।

 “तो, आप, कैप्टेन, ऐसा लगता है, वो।।।कोई ऐसा है, जिस पर जुर्माना लगाया गया हो ?”

 “एक भी नहीं, महामहिम। यह लगातार पाँचवाँ साल है जब एक पर भी जुर्माना नहीं लगा है।”

जनरल भारीपन से घोड़े की काठी पर झुका और उसने स्तेल्कोव्स्की की ओर सफ़ेद खुले दस्ताने में अपना फूला फूला हाथ बढ़ा दिया।

 “बहुत बहुत धन्यवाद, आपको, मेरे प्यारे,” उसने कँपकँपाती आवाज़ में कहा और अचानक उसकी आँखों में।

पाई – भरवाँ गोलाकार पकवान

* कोवाल शब्द का अर्थ है धातु गला कर, ठोंक पीट कर मनचाहा आकार देने वाला।

आँसू तैर गए। उसे, अन्य अनेक लाजवाब लड़ाकू जनरलों की भाँति कभी कभी रोना अच्छा लगता था। “धन्यवाद, इस बूढ़े के दिल को सुकून से भर दिया। धन्यवाद, बहादुरों!” उसने रेजिमेंट से बड़े जोश में चिल्लाकर कहा।

स्तेल्कोव्स्की द्वारा डाले गए अच्छे प्रभाव के कारण छठी रेजिमेंट का इन्स्पेक्शन तुलनात्मक रूप से काफ़ी ठीक ठाक हो गया। जनरल ने न तो उनकी तारीफ़ की, न ही उन्हें बुरा भला कहा। मगर छठी रेजिमेंट को अपमानित होना पड़ा, जब सिपाहियों ने लकड़ी की चौख़टों में फ़िट भूसे के पुतलों को भोंकना प्रारंभ किया।

 “ऐसे नहीं, ऐसे नहीं, ऐसे नहीं, ऐसे नहीं,!” घोड़े की काठी पर थरथराते हुए कोर कमांडर गर्म हो गया। “ऐसे बिल्कुल नहीं! भाईयों, सुनो मेरी बात। अगर दिल लगा के करोगे तो, ठीक दिल पर, अन्दर तक, भाले की नोक पूरी अन्दर तक, ग़ुस्सा करो! तुम डबल रोटी भट्टी में नहीं सरका रहे हो, बल्कि दुश्मन का सीना भोंक रहे हो।।।”

दूसरी रेजिमेंट्स एक के बाद एक नाकामयाब होती गईं। कोर-कमांडर ने अब उत्तेजित होना और अपनी विशिष्ट, चाबुक की मार जैसी टिप्पणियाँ करना बन्द कर दिया था और वह चुपचाप घोड़े पर बैठा रहा, झुका हुआ, उकताए हुए चेहरे से। पन्द्रहवीं और सोलहवीं रेजिमेंट्स का इन्स्पेक्शन तो उसने किया ही नहीं, सिर्फ़ घृणा से, थकावट से हाथ झटकते हुए कहा, “ओह, यह।।।असमय जन्मे बच्चों जैसे हैं।”

सेरेमोनियल परेड़ बाकी थी। पूरी कम्पनी की आधी आधी रेजिमेंट्स को एक तंग, एक दूसरे से सटाते हुए, कॉलम के रूप में ठूँसा गया। फिर से ध्वजवाहक उछल कर सामने आए और गति की सीमा रेखा को प्रदर्शित करते हुए दाहिने भाग के सामने बिखर गए। असहनीय गर्मी होने लगी। उमस के मारे और अपने शरीरों से, जिन्हें इस छोटी सी जगह में ठूँसा गया था, जूतों की, तंबाकू की, गन्दी मानवीय चमड़ी की और अपने पेट में हज़म हो रही काली डबल रोटी की बदबू से लोग बेहाल हो गए।

मगर सेरेमोनियल परेड से पहले सब उत्साहित हो गए। अफ़सर सिपाहियों से लगभग प्रार्थना कर रहे थे: “भाईयों, आप लोग कोर-कमांडर के सामने से जोश से गुज़रना। हमें शर्मिन्दा न करना।” अफ़सरों द्वारा अपने मातहतों को किए गए इस संबोधन में अब एक चापलूसी का, आत्मविश्वास की कमी का और एक अपराधीपन का भाव था। जैसे कोर-कमांडर जैसी अप्राप्य, ऊँची हस्ती के क्रोध ने अचानक अफ़सर और सिपाही, दोनों को एक जैसे बोझ से कुचल दिया था, उन्हें व्यक्तित्वहीन करके एक दूसरे के समान बना दिया था और एक जैसा भयभीत, परेशान और दयनीय बना दिया था।

 “कम्पनी, अटे-न्श—न।।।बैण्ड, लाई-ईन पर!” दूर से शूल्गविच का आदेश सुनाई दिया।

और सभी डेढ़ हज़ार लोग एक सेकंद में ख़ामोश, जल्द, भगदड़ में सरसराए और अचानक सावधानी से और मानसिक तनाव से खिंचकर निश्चलता से शांत हो गए।

शूल्गविच दिखाई नहीं दे रहा था। उसकी गरजती हुई आवाज़ मानो बहने लगी:

 “कम्पनी, कंधे-ए-ए-ए पर !”

चार बटालियन कमांडर्स घोड़ों पर अपनी अपनी बटालियन की ओर मुड़कर आदेश देने लगे,

“ बटालियन, कं--” और तनावपूर्ण आँखों से कम्पनी कमांडर का सूक्ष्म निरीक्षण करते रहे।

दूर, कहीं, कम्पनी के सामने वाले भाग में तलवार हवा में चमकी और नीचे गिरी। यह इशारा था पूरी कमांड के लिए, और चारों बटालियन कमांडर्स एक साथ चिल्लाए, “----धे-ए-ए पर !”

कम्पनी ने ख़ामोश खड़खड़ाहट से असंगठित ढंग से बन्दूकें ऊपर उठाईं। कहीं से उनकी नोकों की टनटनाहट सुनाई दी।

तब शूल्गोविच ने, अपने शब्दों को अनावश्यक रूप से लंबा खींचते हुए, समारोह पूर्वक, गंभीरता से, प्रसन्नता से, और ज़ोर से, अपने भारी भरकम फ़ेफ़ड़ों की पूरी ताक़त से आदेश दिया, “से-रे-मो-नि-य-ल मा—र्च-!”

अब सभी सोलह रेजिमेंट्स के कमांडर्स अलग अलग समय पर कृत्रिमता से, विभिन्न आवाज़ों में गा उठे, “सेरेमोनियल मार्च!”

और कहीं, इस कॉलम के अंत में, एक बचा हुआ रेजिमेंट कमांडर सबसे अंत में, तुतलाती, शर्माती आवाज़ में पूरी कमांड भी न दे पाया, “ सेरिआल।।।” और फ़ौरन चुप हो गया।

 “आ-धी आधी-धी-रेजिमेंट !” शूल्गविच गरजा।

 “आधी आधी रेजिमेंट !” रेजिमेंट कमांडर्स ने फ़ौरन उसकी बात दुहराई।

 “दो नॉ---च की दूरी !” शूल्गविच की आवाज़ आई।

 “दो नॉच की दूरी !”

 “ड्रे-सिंग राईट ! क़तार बनाएगा दाईं ओर!”

 “क़तार दाईं ओर !” अनेक आवाज़ों की तीखी गूंज ने दुहराया।

शूल्गविच ने दो-तीन सेकंड तक इंतज़ार किया और टूटी-फूटी आवाज़ में चीखा, “पहली रेजिमेंट – मार्च !”

ठसाठस भरी पंक्तियों से गहरी, नीची, लगभग ज़मीन को छूती आवाज़ में सामने से असाद्ची की बेआवाज़ कमांड सुनाई दी, “पहली आधी रेजिमेंट, दाईं ओर फालिन। मा--र्च !”

कम्पनी के बैण्ड़ वादक सामने दोस्ताना अंदाज़ में ढमढम बजाने लगे।

पीछे से दिखाई दे रहा था कि कैसे झुकी हुई संगीनों के जंगल से एक करीने से सजी हुई लंबी पंक्ति अलग हुई और एक ताल में हवा में डोलने लगी।

 “दूसरी आधी रेजिमेंट, सीधे !” रमाशोव ने सुनी अर्चाकोव्स्की की ऊँची, औरतों जैसी आवाज़।

और संगीनों की दूसरी पंक्ति, जाते हुए गड़बड़ा गई। ड्रमों की आवाज़ भोंथरी और ख़ामोश होती जा रही है, जैसे वह नीचे की ओर जा रही हो, ज़मीन के भीतर, और अचानक उसके कानों से टकराई, उसे दबोचते और उस पर बरसते हुए, खुशनुमा, चमकती हुई, बेहद खूबसूरत ऑर्केस्ट्रा की लहर। ये कम्पनी का संगीत था जिसने गति पकड़ ली थी, और पूरी कम्पनी अचानक जी उठी और तन गई: सिर और ऊपर उठ गए, सुगठित शरीर सीधे हो गए, भूरे, थके हुए चेहरे दमकने लगे।

एक के बाद एक आधी आधी रेजिमेंट्स दूर जाती रहीं और हर बार कम्पनी मार्च की आवाज़ें अधिक चमकदार, अधिक उत्तेजित और अधिकाधिक प्रसन्न होती रहीं। ये पहली बटालियन की अंतिम आधी रेजिमेंट झटके से आगे बढ़ी। लेफ्टिनेंट कर्नल लेख अपने हड़ीले, कौए जैसे काले घोड़े पर आगे बढ़ा, अलिज़ार के साथ। दोनों की तलवारें हाथों की कलाईयों में चेहरे की ‘ऊँचाई’ तक उठी थीं। स्तेल्कोव्स्की की शांत और, हमेशा की तरह बेपरवाह कमांड सुनाई दे रही थी। संगीनों के ऊपर ध्वज का डंडा धीमी गति से नीचे की ओर जा रहा था। कैप्टेन स्लीवा आगे आया – लंबे हाथों वाला, एक बूढ़े, बड़े, उकताए हुए बंदर की तरह, झुका हुआ, पिलपिला, क़तार को पनीली, फूली फूली आँखों से देखते हुए, “ प-पहली आधी रेजिमेंट सी-सीधे !”


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