दूरियों का खूंटा
दूरियों का खूंटा
रक्षाबंधन पर अपने बड़े भाई को राखी बांध का शाहदरा से शकुंतला ने रोहिणी जाने के लिए मेट्रो से जाना ज्यादा ठीक समझा।
भीड़ कम होने पर आसानी से मेट्रो में जगह मिल गई, बैठने के लिए जिम्मेदारियों में शकुंतला को कुमार और वक्त से पहले ही थका दिया है सीख मिलते ही मैं आंखें बंद कर अपने को कुछ आराम देने की कोशिश करने लगी।
अगले स्टेशन पर दो छोटे बच्चों के साथ पति पत्नी चढ़े, दोनों बच्चों ने एक से ही कपड़े पैंट शर्ट पहन रखी थी, और एक दूसरे का कसकर हाथ पकड़ रक्खा था।
शकुंतला आज भी, अपने भाइयों के लिए राखी खरीदने जाने की तैयारियां करती हैं हमेशा बचपन में पहुंच जाती है।
किस तरह सारे भाई बहन मिलकर त्यौहार पर उधम कांटा करते थे, त्योहारों पर बच्चों को डांटने की किसी की भी हिम्मत नहीं होती, बाबा दादी के सामने बच्चों को डांटने की बड़ों बड़ों की हिम्मत जवाब दे जाती।
हर बच्चे को वही चीज चाहिए होती, जिस पर दूसरा बच्चा हाथ रख देता। वैसे वही खिलौना कोने में पड़ा रहता, तब कोई उसको पूछता भी नहीं।
सबका एक साथ मुस्कुराने वाले दिन कितने प्यारे प्यारे दिन थे। राखी बांधने का इंतजार हर भाई बड़े प्यार से करता और राखी के प्रति भी थोड़ा सा झंझट हो ही जाता है यह बड़ी वाली मेरी, ऐसा हर बार होता, फिर भी राखियों को बहुत ही प्यार से बनवाते दोनों भाई।
वह भी क्या दिन थे, जब मां दोनों को कुछ पैसे देती, ले अपनी बहन को दे। और बहन बड़े प्यार से अपने भाइयों का मुंह मीठा करवाती।
इसी तरीके से हर दीवाली पर पहले से ही घर को सजाने की, साफ-सुथरा कराने की सफाई में पहनने का घर को संवारने में लग जाते बाबा दादी ने बच्चों के मन में ऐसी बात बता रखी थी, कि जिस घर के कोने कोने में सफाई होती है, उसी घर में मां लक्ष्मी अपनी कृपा बरसाने को दीवाली की रात आती है।
और दादी बाबा की बातों का पूरा ख्याल सम्मान देते हुए रखा जाता। और कोने-कोने की सफाई की जाती, और उसको इसी तरीके से होली में एक दूसरे पर इतना रंग बिखेरा जाता खुशियों का, कि एक दूसरे की शक्ल लोग पहचानने के लिए व्याकुल रहते। सबका चेहरा सतरंगी और खुशियों से सराबोर होता।
बाबा दादी के सामने हर तीज त्यौहार की परंपराओं का पूरा पूरा पालन किया जाता।
धीरे-धीरे परंपराएं हमारे परिवार के हाथ से छिटकने लगीं। हम बड़े होने लगे, और और किस घड़ी हमको इस तरीके से मिलना मिलना बचपना नजर आने लगा, याद ही नहीं आता।
पर वह दिन शकुंतला को आज भी बहुत याद आते हैं। अचानक उन बच्चों को छोटी सी बात पर लड़ते झगड़ते देख, शकुंतला की यादों की भंवर में एक कंकड़ सा पड़ा, शकुंतला की आंखें अनायास उन बच्चों की शरारतों पर पहुंच गई कभी एक साथ उनको एक ही कुर्सी पर बैठना होता, कभी एक साथ ही कूदकर नीचे आना होता।
शकुन्तला ने बच्चों की मां से पूछा, क्या बात हो गई, बच्चों की मां बोल पड़ी अरे आंटी , इनका क्या है एक ही बात पर लड़ते हैं। एक दूसरे के बिना चैन भी नहीं है दोनों को। अभी याद भी नहीं रहेगा इनको किस बात पर झगड़ रहे थे।
शकुंतला मां की बातों को सुनकर सोचने लगी, इन दोनों बच्चों का बचपना बड़प्पन में भी बना रहे जिसमें झगड़ा हो पर वह पल भर में ही सुलझ जाए और एक दूसरे के बिना दोनों भाइयों को चैन ना आए, दोनों भाइयों के बीच दूरियों का खूंटा भगवान इतना मजबूत ना करना कभी भागकर एक दूसरे के पास आने की कोशिश करें तो कोशिशें बेजार हो जाए।
