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Motivational Stories by Jaya Sharma

Others

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खेल खिलौने और हम

खेल खिलौने और हम

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अभी थोड़े दिनों की ही तो बात लगती है, जब हमारे खेलों में पिट्ठू गर्म, कंचे, गिल्ली डंडा और गली क्रिकेट शामिल होता था।

 गली-गली में इन खेलों का जोश, इन से मिलने वाली खुशी और जीतने का जज्बा हर चेहरे पर उत्साह झलकता था, गलियां आज भी वही है पर खेल का उत्साह कुछ फीका फीका सा है ।

 पुराने लोग बताते हैं खेलने के लिए उस समय संसाधनों की बिल्कुल भी जरूरत नहीं होती थी ।

 बस दोस्तों का जज्बा हो तो जो मिलता था उसी से खेल लेते थे ।

 आज भी पुराने दिनों को याद कर चेहरे पर बाल सुलभ चंचलता पुराने लोग के चेहरे पर खिलखिला उठती है ।

 पहले क्रिकेट में खेलने में जो मजा आता था आज वह आईपीएल या विश्व कप देखने में भी नहीं आता ।

 घरों से दोस्तों की टोली बगैर मोबाइल के भी तय समय पर बगैर किसी सूचना के लोकेशन पर अपने आप पहुंच जाती थी ।

 हर घर की दीवार विकेट के तौर पर देखी जाती थी ।

 लकड़ी का एक टुकड़ा बैट बन कर और कपड़ों को इकट्ठा करके बाल भी तैयार हो जाती थी ।

 उस समय खेल को लेकर जितना उत्साह और आनंद आता था, आजकल की पीढ़ी उसको महसूस भी नहीं कर सकती। पहले गांव में या शहर के मध्यमवर्गीय परिवारों में बाजारों में मिलने वाले खिलौने उनकी पहुंच से बहुत दूर हुआ करते थे ऐसे में बच्चे मां की शरण में जाते हैं उनसे गुड्डे गुड़िया बनवाते गेंदबंद बातें उसी से खेलकर चरम सुख का आनंद लेते और उन खिलौनों को भी बहुत संभाल कर सहेज कर रखते महानगरों की आम जनता लकड़ी के खिलौने बनाकर और उनसे खेल कर खुश हो जाया करती थी ।

 गांव गांव क्या बड़े-बड़े शहरों की गलियों में तो टायरों और खराब पहियों के साथ बच्चों की टोलियां जब उधम मचाते हुए निकलती, तो उनकी हंसी की गूंज से बड़ी बड़ी हवेलियों और बंगलो के अंदर भी उत्साह पैदा हो जाता।


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