Tanishka Dutt

Drama

3.9  

Tanishka Dutt

Drama

धर्म युद्ध

धर्म युद्ध

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"अरे भाई! यह सब सामान लेकर अपने परिवार के साथ कहां जा रहे हो, छुट्टियां मनाने?" श्यामू ने हंसते हुए पूछा। " क्या भाई इस समय में भी तुम्हें मजाक सूझ रहा है? इतना सब होने के बाद आखिर यहां रखा ही क्या है!" गिरधर यह कहते हुए स्टेशन की ओर चल दिया।

 श्यामू उस नगर में सिर्फ 3 साल से रह रहा था, लेकिन फिर भी उस नगर को छोड़ने वाले छोटे-मोटे व्यापारियों को वहां रुकने की सलाह दे रहा था।

"अब यहां रुक कर शायद ही किसी का कारोबार सफल हो।" हां तुम सही कहते हो।" बिरजू ने सरजू को पंचायत में जवाब दिया।

" पर हम सब मिलकर कुछ ना कुछ तो कर ही लेंगे।" श्यामू ने बीच में अपना मत रखा। 

"तुम्हारा वह कबाड़ पुस्तकालय तो वहां वैसा ही खड़ा है जैसा वह 40 साल पहले खड़ा था।" बिरजू ने श्याम को टोका। 

"उस पुस्तकालय को कुछ होता भी तो किसे फर्क पड़ता? वहां की कहानियों को "सरजू ने व्यंग्य किया वह कबाड़ पुस्तकालय उस रेवती नगर में तब से था, जब से रेवती नगर, नगर नहीं रेवत गांव हुआ करता था।

 'असीम पुस्तकालय' श्यामू को अपने दादाजी से विरासत में मिला था। पिताजी चाहते थे कि श्यामू डॉक्टर बने लेकिन श्यामू की रुचि साहित्य में थी, जिसकी वजह से उनके घर में तीसरा विश्व युद्ध हुआ जो भारत के हर दूसरे घर में आम था।

अब श्यामू नगर के स्कूल में एक अध्यापक की तरह नियुक्त था। तनख्वाह भी अच्छी-खासी थी, लेकिन साहित्य और किताबों के प्रेम के कारण वह अक्सर छुट्टियों में इस 'असीम पुस्तकालय' की रखवाली करने आ जाता। 

उस पुस्तकालय में किताबें तो अनेक थी, लेकिन उन किताबों को पढ़ने वाले 1-2।

"अरे विद्या! यह देखो।" पूनम ने विद्या को जगाते हुए कहा।

"अब कौन सा तूफान आ गया तेरी जिंदगी में?" " तूफान नहीं विद्या बाढ़! बाढ़! वह भी मेरी जिंदगी में नहीं, रेवती नगर में।" 

"हाँ पूनम, वहां के मौसम का समाचार मैंने ही तो दिया था"

"अरे तू वह छोड़! यह देख - बाढ़ आने से पूरा नगर उजड़ गया, वहां की बस्तियां चली गई, लेकिन यह 'असीम पुस्तकालय' वहां वैसा का वैसा ही खड़ा है।"

"बात तो तेरी सही है, सोच अगर इस पुस्तकालय का राज़ पता चल गया तो हमारा न्यूज़ चैनल क्या ऊंचाई पर पहुंच जाएगा। और अगर मैंने इस राज़ का पता लगाया तो फिर!" कहते हुए विद्या अपने पलंग से कूदी।

 विद्या 'सचेत रहो' अखबार की एक सफल महिला पत्रकार थी। जो कई महीनों से सिर्फ मौसम विभाग की सूचना दे रही थी या यूं कहो तो उसका धंधा थोड़ा मंदा चल रहा था।

 यही मौका था विद्या के लिए जोखिम उठाकर कुछ अलग करने का।

' असीम पुस्तकालय 'विद्या ने पुस्तकालय के बोर्ड पर पढ़ा।

"यह पुस्तकालय यहां पर कितने सालों से है?"

" करीब 40 साल से मेमसाहब।

"और इस पुस्तकालय का मालिक कौन है?"

" जी मेरे दादाजी थे लेकिन, यहां अब रखवाली के लिए मैं बैठता हूं। श्यामू इतने महीनों बाद उस पुस्तकालय में किसी को इतनी रुचि ले लेते देख चौक- सा गया।

विद्या बिना कोई और सवाल किए उस पुस्तकालय में आगे बढ़ने लगी। विद्या ने पुस्तकालय में आते ही थोड़ा इधर-उधर देखा, वहां की किताबों और दीवारों पर गौर किया।

 एक घंटा बीत गया, विद्या ने जो किताब चालू की थी वह आधी खत्म हो चुकी थी।

"अरे कितनी गर्मी है!" विद्या ने पसीना पहुंचते हुए कहा। पानी की प्यास में विद्या उस पुस्तकालय के किसी कोने में पहुंची।

उस कोने में एक कमरा था, जो काफी छोटा दिखाई पड़ रहा था।

 उस कमरे के दरवाजे पर एक ताला था।" इस कमरे में क्या हो सकता है?क्या कोई जादुई किताब तो नहीं!"

वह ताला पुराना दिखने वाला और काले रंग का था, जिस पर अब शायद जंग लग गई थी।

विद्या ने उस ताले को हाथ लगाया और यह क्या! ताला अपने आप खुल गया।

 विद्या ने उस कमरे का दरवाज़ा खोला और वह पुराने दरवाज़े की खुलने की आवाज़ कानों को को चुभने लगी। उस कमरे में बिल्कुल अंधेरा था लेकिन एक सफेद रंग का पर्दा, जो काफी साफ दिखाई पड़ रहा था। विद्या ने उस पर्दे को हाथ लगाया।

 वह सफेद पर्दा कोमल मखमल का था," आखिर क्या होगा इस पर्दे के पीछे?" विद्या ने खुद से सवाल किया।

 विद्या ने वह पर्दा हटाया और यह क्या! एक आईना। "किसी पुस्तकालय में एक आईने का क्या लाभ है?" विद्या सोच ही रही थी कि अचानक से उस आईने में से एक तेज रोशनी निकली, कुछ पल के लिए विद्या की आंखों के आगे से सिर्फ वो रोशनी थी।

"शीतल! ओ शीतल!"

शीतल ने अपनी बाईं ओर देखा मीनल उसकी तरफ अपना हाथ ऊँचे किए खड़ी थी। टन 

'टन -टन -टन' शीतल ने अपनी दाई और घंटी की तरफ देखा। शीतल ने खुद को देखा उसने खुद को दो चोटियों में रिबन और एक नीले रंग की स्कर्ट में पाया। अब उसने अपने चारों और नज़रे घुमाई और करीब अपनी उम्र के बच्चों को मस्ती-हड़कंप मचाते हुए देखा और बच्चों की भीड़ में था-राजेश!

थोड़ा चंचल और थोड़ा अपने उपन्यास में घूम। शीतल ने उसे एक नजर देखा और फिर उसकी देखते ही नजरें घूमा ली। (अब तो आप समझ ही गए होंगे? मुझे शायद बताने की आवश्यकता नहीं।) मीनल अक्सर राजेश से वही उपन्यास मांगती थी, जो वह पढ़ चुकी होती थी। 

राजेश से लिए हुए उपन्यास को वह अपने घर की खिड़की पर रात में पढ़ती। उपन्यास के पन्नों में अक्सर राजेश के इत्र की खुशबू घुली हुई होती जो मीनल को बार-बार वह उपन्यास पढ़ने को मजबूर करती।

"अच्छा अब तू और कब तक उससे नज़रें चुराती रहेगी? देख शीतल! मुझे पता है कि तू क्लास में किसी को पसंद करती है,अब नाम तो बता दे।"मीनल ने शीतल को चिढ़ाया।

"सही समय पर तुझे नाम बता ही दूंगी मैं।" " ठीक है आगे तेरी मर्जी।"

" जल्दी बाहर आ नहीं हम आज फिर से लेट हो जाएंगे" "तुझे कुछ बताती हूं" मीनल ने शीतल का हाथ पकड़ा और दोनों बस में चढ़ गई।

" देख तुझे कुछ लिखना है।" " क्या! मैं फिर से तेरा होमवर्क नहीं लिखने वाली।"

"अरे! बुद्धू होमवर्क नहीं, एक प्रेम पत्र यानी की एक लव लेटर लिखना है।"मीनल ने फुसफुसाया।" क्या तू कल घर जाते वक्त रास्ते में गिर गई थी या तुझे सिर पर चोट तो नहीं आई?"

शीतल ने मीनल का हाथ पकड़ते हुए पूछा।

 "अरे देख तू एक प्रेम पत्र लिख उसके लिए जिसे तू पसंद करती है, मैं उसे देकर आ जाऊंगी।"

 "अरे यार यह तू क्या बोल रही है?"

"हम एक बार कोशिश तो कर ही सकते हैं?" "अच्छा ठीक है। लेकिन मैं उस पत्र में अपना नाम नहीं लिखूंगी।"

 "तो फिर मैं उस लड़के को दूंगी कैसे? वह फिर यही समझेगा ना कि मैंने लिखा है!" 

"तो मेरे पास एक आईडिया है, मैं वह खत उसकी किसी किताब में रख दूंगी।"

शीतल और मीनल ने हाथ मिलाया।" "मीनल देख! मैंने ये खत लिखा है और कल मैं उसकी किताब में इस खत को रख दूंगी।" ओहो! इतनी जल्दी, क्या बात है!"

 "राजेश!"

"हां बोलो मीनल क्या हुआ?" मीनल ने एक बार फिर से वही पुरानी इत्र की खुशबू का अहसास लेने के लिए उसकी किताब मांगनी चाही लेकिन..

 "मैं तुम्हारी किताब 'धर्म युद्ध' पढ़ना चाहती थी तो?"

"अरे! वह किताब तो शीतल ने मुझसे ले ली है, तुम उस से ले लेना।" कहकर राजेश स्कूल के गेट से मानो हवा हो गया। मीनल अगले दिन यानी रविवार को शीतल के घर पहुंची। "आंटी! शीतल घर पर है क्या?" " नहीं बेटा वह बाजार से सब्जी लाने गई है, तुम चाहो तो उसके कमरे में उसका इंतजार कर सकती हो।"

मीनल ने सोचा कि क्यों ना जो सुझाव उसने अपनी सहेली को दिया है, वह एक बार खुद अमल करें तो मीनल आ गई अपना प्रेम पत्र लेकर शीतल के पास जिसे वह उसे राजेश तक पहुंचा दे।"शीतल यह देख!" " अब यह क्या है?"

 शीतल ने सब्जियों का थैला नीचे रखते हुए पूछा। "यह तू उसे पहुंचा देना जिसका नाम इस खत के आखिर में लिखा है।"

 मीनल शीतल की मेज पर पड़ी 'धर्म युद्ध' को उठाकर पढ़ने लगी, उसमें से एक कागज़ गिरा। "राजेश!" दोनों एक साथ चिल्लाई जब उन्होंने एक दूसरे का खत पढ़ा। "तो क्या तू भी?" फिर से दोनों ने एक साथ एक ही बात कहीं।

 "नहीं-नहीं हमारी क्लास में शायद दो राजेश है।"

"नहीं शीतल हमारी क्लास में एक ही राजेश है।" मीनल ने शीतल के सिर पर मारते हुए कहा। करीब एक घंटा बीत गया कमरे में एकदम सन्नाटा- सा था। दोनों ने एक-दूसरे को देखा और दोनों उठकर शीतल के कमरे की खिड़की पर आई, दोनों ने एक-दूसरे को फिर से देखा और देखते ही दोनों खत टुकड़ों में बदल दिए। शीतल ने मीनल को गले लगा लिया।

 यह क्या! यह तो उस दृश्य से बिल्कुल अलग था जो विद्या ने अपने उपन्यास में पढ़ा था, 'दोस्ती -एक झूठ' यह किताब विद्या की पसंदीदा थी, जिसमें दोस्ती के कुछ अटपटे किस्से थे। यह किताब आखिर एक लेखक ने लिखी है क्यों? शायद दोस्ती का एक अलग रूप दिखाने के लिए। कुछ भी हो लेकिन विद्या ने उस किताब का एक किस्सा तो बदल दिया। किताब के अनुसार शायद शीतल मीनल से कभी फिर ना मिलती पर उसी शीतल ने मीनल को गले से लगा लिया। क्यों? क्योंकि यही तो दोस्ती है, एक-दूसरे के लिए कुछ भी करने की ताकत, मुसीबत में एक साथ फँसना, लेकिन कभी एक-दूसरे को अकेला ना छोड़ना,एक-दूसरे के अच्छे-बुरे हर किस्से और हर हिस्से में साथ देना। दोस्ती आखिर यही तो होती है,एक- दूसरे को बिना कहे पढ़ना और समझना आखिर इश्क से ज्यादा मुकम्मल यह दोस्ती ही तो होती है।



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