डरा हुआ बचपन
डरा हुआ बचपन
बालपन में अगर कोई इच्छा या आकांक्षा दबाई जाए और बात ना कि जाए तो एक गंभीर रोग बन जाता है, आइए एक कहानी ऐसी ही है।
विभोर माननीय अवचेतन जी के पुत्र थे जिनका विवाह उन्होंने अपने पार्टी के ही सम्मानीय सदस्य की पुत्री सांची से करवाया था। बहुत मान था अवचेतन जी का समाज में और विभोर को सब उनका प्रतिरूप बताते थे, धीर गम्भीर शांत स्वभाव, पर कुछ गुण अलग भी थे जिन्हें अवचेतन जी नहीं देख पाते डरा हुआ सा , भीड़ भाड़ पसंद नहीं थी। सांची खुल के जीने वाली लड़की मनोविज्ञान की छात्रा थी।
शादी के बाद दर्शन के लिए जब मंदिर को निकले तो आते समय सांची ने गाड़ी एक पार्क के सामने रोकने को कहा। "पिताजी को मालूम पड़ेगा तो नाराज़ होंगे, उनकी प्रतिष्ठा जाएगी अगर हम खुले में घूमेंगे।"
विभोर घबरा के बोला। "अच्छा! मुझे ऐसा नहीं लगता हम इंसान ही तो है." हँसते हुए सांची बच्चों के साथ खेलने लगी। एक बॉल विभोर के पास आके रुकी, इशारा करने पर उसने बच्चों के तरफ बॉल दे दी। सांची ने कहा," विभोर! आप मुझसे बात कर सकते हैं, क्या हुआ, खेलना आपको भी नहीं पसंद? विभोर के दिमाग में एक बच्चा अभी भी अतृप्त बैठा था, पूरा बचपन घूम गया आंखों के सामने कैसे पिताजी और बच्चों के साथ खेलने, कूदने नहीं देते।घूमना फिरना,
पिकनिक जाना कुछ भी नहीं। फुटबाल पसंद था पर पिताजी को आवारागर्दी लगती और उनका प्रतिरूप बनते हुए अपना बचपन डर कर छुप गया। विभोर को बहुत हल्का सा लगा, सांची से सब बता कर।
सांची ने कहा,"अभी देर नहीं हुई है, मैं साथ दूंगी, आपको अपने अंदर दबे हुए व्यक्तिव को बाहर आने देना होगा वर्ना वो आपके मस्तिष्क का रोग बन जाएगा, आप वो करिए जो आप करना चाहते हैं हमेशा से। विभोर ने एक गहरी साँस ली और जोर से फुटबाल को किक मारी। उसके दिमाग से वो बच्चा जो सिर्फ झांकता था, बाहर आने को बेचैन था।
