डर की जंजीरें
डर की जंजीरें
"अरे नरेन ! तुम यहां, इस वक्त…. और तुमने अपना क्या हुलिया बना रखा है?"-- श्वेता दरवाजा खोलते हुए चौंक पड़ी।
नरेन श्वेता का मंगेतर था। मई में दोनों की शादी होने वाली थी। बचपन के प्रेम को जब दोनों के माता-पिता ने एक रिश्ते में बांधने का फैसला लिया तो श्वेता और नरेन की खुशी का ठिकाना न रहा। नरेंद्र दिल्ली में एक कपड़े की मिल में मजदूरी करता था तथा वही अपने दोस्तों के साथ रहता था। होली में आया था तभी दोनों की सगाई हो गई। जाते जाते वह श्वेता से कह गया था कि अब वह अपने रहने का अलग इंतजाम कर लेगा क्योंकि श्वेता को गांव में छोड़कर जाना उसके लिए संभव नहीं। नरेन के जाने के बाद श्वेता भी अपने ख्वाबों के महल बनाने में लग गई थी। मगर अभी इस महल को संवानना बाकी ही था कि एक छोटे से अनदेखे जीव ने पूरी दुनिया पर कब्जा कर लिया, और इंसान लाशों में तब्दील होने लगा। मार्च के आखिरी सप्ताह में संपूर्ण भारत को लॉकडाउन की जंजीरों में जकड़ दिया गया। प्रशासन के द्वारा, जो जहां है वहीं कैद होकर रहने की अपील की गई। प्रशासन अपनी जगह सही था, मगर दिलों को कैद करना आसान नहीं होता।
श्वेता और नरेन जैसे ना जाने कितने ही युवा दिल अपनी धड़कनों को एक दूसरे तक पहुंचाने के लिए व्याकुल होने लगे। मगर जंजीरों की अवधि बढ़ती गई और साथ ही बढ़ता गया अधीरता का सैलाब। इस सैलाब का बांध टूटा तो जनसमूह सड़कों पर उतर आया। नंगे पैर, भूखे पेट मगर भरी हुई आंखें और भरा हुआ था उनके उम्मीद का कटोरा, जिसे लेकर वह अपनी अपनी मंजिल के लिए निकल पड़े। नरेन उनमें से एक था। दिल में श्वेता के लिए प्यार की आग ने उसकी भूख को जला डाला था। वह तो बस जल्द से जल्द श्वेता के पास पहुंचना चाहता था। वह उसकी बड़ी-बड़ी आंखों में डूब कर हीं इस आग को शांत करना चाहता था।
" म.. मैं बहुत थक गया हूं श्वेता.."-- नरेन की आवाज जैसे किसी गहरे कुएं से आ रही थी।
श्वेता चाहती तो थी कि नरेंद्र को वह आगे बढ़कर अपनी बाहों में समेट ले और उसके सारे दर्द को पी जाए, मगर दो महीने से रात दिन नसीहतों के तराने सुनते सुनते उसके दिल के तारों ने अब बजना बंद कर दिया था। अब तो उन तारों के ऊपर स्वच्छता, सैनिटाइजर, मास्क, सामाजिक दूरी, आइसोलेशन, क्वारंटीन जैसे भारी भरकम शब्दों की परत चढ़ गई थी। वह दौड़कर साबुन और पानी लेकर आई।
" जल्दी से हाथ पैर धो लो।"
" रहने दो श्वेता, अब इन सब की जरूरत नहीं।" --- नरेन ने रहस्यमयी तरीके से मुस्कुराते हुए कहा। श्वेता ने देखा कि उसकी और नरेन के बीच दो गज की दूरी है,और नरेन ने मास्क भी लगा रखा है तो वह आश्वस्त हो गई।
" मगर तुम यहां आए कैसे ? बाहर से आने वालों को तो सरकार क्वारंटीन सेंटर में रख रही है। और फिर भला तुम्हें आने की क्या जरूरत थी। हमारी शादी की तारीख तो वैसे भी आगे बढ़ हीं गई थी। तुम्हें वहीं रुकना चाहिए था जब लॉकडाउन खुलता तब आते आराम से।" -- श्वेता ने एक कुशल नागरिक की तरह रटा-रटाया शब्द बोला।
" मैं अभी चला जाऊंगा श्वेता। मैं तो बस तुम्हारे लिए शादी का जोड़ा लेकर आया था। यह देखो, तुम्हें गुलाबी रंग पसंद है ना !"-- नरेंद्र ने पीठ पर रखे अपने छोटे से बैग से एक सुंदर सा गुलाबी रंग का लहंगा निकालते हुए कहा।
"... और यह देखो, मैचिंग की चूड़ियां भी है दरवाजे के पास रोशनी कम थी मगर लहंगे और चूड़ियों के दिल में चाहत ने वहां एक प्रकाश फैला दिया जिसमें नरेन का पीला पड़ा चेहरा भी चमक उठा।
" एक बार इसे पहनकर दिखला दो श्वेता…"--- नरेंद्र का आग्रह नहीं गिड़गिड़ाता हुआ आहत स्वर था।
" चाहती तो श्वेता भी यही थी, मगर बाहर से आए हुए किसी भी चीज को छूने संबंधी जो गाइडलाइन वह निरंतर सुन रही थी, उस आवाज ने उसके बदन को सून्न कर दिया और उसने अपने दोनों हाथों को आपस में जकड़ लिया ; बिल्कुल लॉकडाउन की तरह।
" तुम यह सब यहीं रहने दो, मैं बाद में पहन लूंगी"---- नरेंद्र सब कुछ ऐसे ही छोड़ कर उठ खड़ा हुआ।
" तुमने खाना तो खाया है ना ?"--- श्वेता ने औपचारिकता वश पूछा।
"हां, कुछ रोटियां है मेरे पास... अभी खा लूंगा।"-- नरेंद्र ने जवाब दिया।
"मैं जा रहा हूं,फिर मिलोगी ना"
" हां नरेन हम जरूर मिलेंगे, तुम अभी थाने पर जाकर अपने आने की सूचना दे दो।"-- श्वेता ने कहा तो नरेंद्र मुस्कुरा उठा।
"श्वेता तो चाहती थी कि वह स्वयं ही हेल्पलाइन नंबर पर फोन कर दे, मगर वह बिलावजह अपने पूरे परिवार को क्वॉरेंटाइन में नहीं डालना चाहती थी।
नरेंद्र धीरे-धीरे भोर के अंधेरे में कहीं गुम हो गया। 5:30 बज रहा था, मगर श्वेता की आंखें नींद से बोझिल हो रही थी। उसने दरवाजे पर रखे नरेन के बैग की ओर देखा और दरवाजा बंद कर दिया।
" अभी नहीं उठा सकती इसे, कम से कम 24 घंटे से यही रहने दे रही हूं, फिर सैनिटाइज करके ही अंदर ले जाऊंगी"-- बुदबुदाते हुए श्वेता फिर नींद के आगोश में चली गई।
अचानक किसी के रोने की आवाज सुनकर श्वेता की आंख खुल गई। खिड़की से बाहर देखा तो सूरज सर पर चढ़ाया था। उसका सिर भारी लग रहा था। कल रात की बात और नरेन का चेहरा उसकी आंखों के सामने घूमने लगा और जैसे ही उसे नरेंद्र के उस बैग की याद आई वह दरवाजे की तरफ दौड़ पड़ी।
" कहीं किसी ने उसे उठाकर अंदर ना रख लिया हो…"--- वह घबराते हुए अपने कमरे से बाहर निकल ही थी कि उसे सामने में नरेंद्र के माता-पिता दिख गए, जो श्वेता के माता-पिता के साथ आंगन में बैठे थे।
" बिटिया ….." -- इतना कहकर श्वेता की मां फफक कर रो पड़ी।
" क्या हुआ मां आप रो क्यों रही हैं"
" बिटिया, तेरी गृहस्थी बसने से पहले ही उजड गई... नरेन अब इस दुनिया में नहीं रहा"-- मां ने रोते-रोते श्वेता को सीने से लगा लिया।
" क्या बोले जा रही हो आप ,कुछ भी…. अभी कल रात वह मुझसे मिलने आया था। अरे रात क्या... सुबह सुबह लगभग 5:00 बजे मेरे लिए गुलाबी रंग का लहंगे का जोड़ा और गुलाबी चूड़ियां भी लाया था वह…. अभी रुको मैं दिखाती हूं.. दरवाजे पर ही उसका बैग रखा हुआ है।"--- श्वेता ने दौड़कर आंगन पार किया और मुख्य दरवाजा खोला, मगर दरवाजे पर कुछ भी नहीं था।
" मां ….मां.. यहां नरेन का बैग रखा था। किसी ने अंदर तो नहीं किया। श्वेता के माथे पर पसीने की बूंदे आ गई।
" वहां कोई बैग नहीं था बिटिया! तुमने जरूर कोई सपना देखा है। नरेश अपने साथियों के साथ पैदल ही रेल की पटरी पर चलते हुए गांव आ रहा था। सुबह के 5:00 बजे वह सब सुस्ताने के लिए वही पटरियों पर बैठ गए। रात भर चलते-चलते थकान से आंखें बोझिल हो गई थी और वह सब वही सो गए। यही नींद उनकी चिर निद्रा बन गई। तेज गति से आती एक मालगाड़ी ने सब को मांस के लोथड़ों में तब्दील कर दिया। हमारा नरेंद्र भी उस में से एक था।"
" नहीं मां ,नहीं…. ऐसा नहीं हो सकता.. "--- श्वेता वहीं जमीन पर बैठकर रोने लगी।
" हां बिटिया यही सच है। उसके एक दो साथी जो दिशा मैदान के लिए इधर-उधर गए हुए थे, उन्होंने अपनी आंखों से यह भयानक मंजर देखा है और उन्होंने ही हमें फोन करके नरेन के बारे में बताया।"---- नरेन की माँ ने रोते हुए कहा।
"दीदी…. दीदी.. अंदर आकर देखो, टीवी में ट्रेन से कटकर मरने वालों के बारे में खबर दिखाई जा रहे हैं।"--- श्वेता का सबसे छोटा भाई चिल्लाते हुए आंगन में आया।
इतना सुनते ही श्वेता दौड़कर कमरे में गई. न्यूज़ चैनल वाले उस जगह को दिखा रहे थे जहां हादसा हुआ था. तभी श्वेता को कुछ ऐसा दिखा कि उसकी आत्मा तक कराह उठी। रेल की पटरियों पर मानव देह के टुकड़ों के साथ रोटियां भी बिखरी पड़ी थी, मानो वह भी अपने हाल पर रो रही थी और कह रही थी कि तुम मुझे ही पाने के लिए इतनी दूर आए हो और अब मुझे ही अकेला छोड़ दिया। सूखी रोटियों के बगल में एक बैग भी था जिसमें से गुलाबी रंग का कुछ चमक रहा था और वही बिखड़ी हुई थी गुलाबी चूड़ियां। चित्कार उठी श्वेता--
" नरेन, मैंने तुम्हें खाने के लिए भी नहीं पूछा और तुम मर कर भी मेरे पास आए थे। तुम मौत की जंजीरों को तोड़ कर मेरे पास आए और मैं अपने डर की जंजीरों को न खोल सकी। मैं तुम्हें लहंगा पहन कर दिखा भी ना सकी और ना हीं तुम्हेंं छू सकी। मुझे माफ कर दो नरेन….. मुझे माफ कर दो…..। " --- श्वेता की यह चीत्कार अब वातावरण को डरावना बनाने के लिए काफी था।

