Vandana Singh

Drama Horror

2.8  

Vandana Singh

Drama Horror

डर और मैं

डर और मैं

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कल रात मैं बहुत विचलित था, बेबस और अकेला। बिल्कुल भी अकेला। मैं कौन ? मैं अजित। इंडिया के नामी इंजीनियरिंग कॉलेज के बी. टेक. अंतिम वर्ष का छात्र। पिता बैंक के बड़े बाबू के यहाँ ड्राईवर है। माँ, गृहणी और तीन बहनें हैं, जिनमें एक बड़ी बहन प्राइवेट स्कूल में टीचर है और दो छोटी बहनें अभी पढ़ाई कर रही है।

इन सबके बीच मैं माता-पिता का इकलौता बेटा और बहनों का इकलौता भाई तो मेरा पालन-पोषण बड़े ही लाड़-प्यार से हुआ।

सारी इच्छाओं को जरुरत समझ के पूरा किया गया। बहनों की पढ़ाई सरकारी स्कूल में और मेरी प्राइवेट में हुई। बचपन से ही हर बार हर मोड़ पर ये ही एहसास कराया गया कि मैं उन सबका एकमात्र सहारा हूँ। पढ़-लिख जाऊँ तो घर के अच्छे दिन आयेंगे। पिता के कुछ कर्जे टूटेंगे, बहनों की शादी अच्छे जगह होगी और माता-पिता के बुढ़ापे का सहारा बनूँगा। मैं भी दबाव में आकर दिन-रात मेहनत कर अच्छे अंक लाता रहा और सबकी ख़ुशी का तो ठिकाना ना रहा जब इंजीनियरिंग का एंट्रेंस एग्जाम मैंने अच्छे अंको से पास कर लिया।

बड़े बाबू से सिफारिश कर, लोन का भी इंतजाम हो गया। बस, तब से चल पड़ी एक नयी यात्रा। हाँ, यात्रा ही तो थी वो जो मुझे मंजिल तक ले जाती। मुझ पर पूरे परिवार के साथ-साथ अब लोन चुकाने की भी जिम्मेदारी आ गयी पर मैं बहुत आशावादी, उर्जा से लबालब भरा हुआ था क्यूँकि मैं जानता था कि यहाँ से निकलने पर मेरे हाथ में एक अच्छी नौकरी होगी जिससे मैं सारी जिम्मेदारियाँ आसानी से पूरी कर पाऊँगा तो मैं लग गया।

अपना सर्वस्व निकाल कर दे दिया इन तीन वर्षो में। फाइनल यीअर के एग्जाम के पहले ही कंपनियाँ आने लगी और छात्रों का चयन कर उपयुक्त पद देने लगी।

ये वक़्त था अपनी दिन-रात की मेहनत के फल पाने का। मैं भी कई तरह से तैयारियों में लग गया पर एक के बाद एक अवसर पर निराशा ही हाथ लगी। थोड़ी-थोड़ी कमियों की वजह से मैं चूक गया। कही अंग्रेजी ने साथ छोड़ा तो कही मेरे सेल्फ-कॉन्फिडेंस ने।

परसों अंतिम कंपनी आई और मेरा चयन किये बगैर चली गयी। सारे विद्यार्थियों में मैं अकेला खाली हाथ रह गया। डिप्रेशन होना लाज़मी था। मैंने सिगरेट का सहारा लिया। रात भर जगता और पूरे कमरे को सिगरेट के धुएँ से भर देता और उस घुटन में मेरे भीतर की घुटन को आराम मिलता। घर के फ़ोन को अनदेखा करने लगा। एक ही बात का जवाब देते थक गया था। माँ का रोना, पिता के सवाल मुझे काटने को दौड़ते थे। मैं भागने लगा, हर चीज से, दोस्तों, रिश्तेदारों और अपने आप से भी। कभी लगता रोऊँ तो कभी लगता खूब हँसूँ। मैं हार गया था। जिंदगी के दौड़ में मैं केवल अकेला हार गया था और किस से कहता ये सब ?

इन सब का जिम्मेदार मैं खुद था। कहाँ तक मैं परिवार वालों का सहारा बनता कि अब बोझ बन गया था। फिर मेरे मन में विचार आया। नहीं, मैं किसी पर बोझ नहीं बनूँगा। मुझसे सबका दर्द देखा ना जायगा। हाँ मैं मर जाऊँगा। मेरे मरने में ही सबकी भलाई है। बस, ये ख्याल आते ही मैं पागलों की तरह छत की तरफ दौड़ा और अपने हॉस्टल के चार मंजिलें छत से कूद पड़ा।

देखते ही देखते जमीन पर गिरकर धराशाई हो गया। आवाज़ सुनकर आस-पास के कमरों से छात्र दौड़ पड़े। मुझे उठाकर कॉलेज के हॉस्पिटल में भर्ती कराया पर डॉक्टर ने देखते ही कहा "सॉरी, ही इस नो मोर" कॉलेज में हड़कंप मच गया।

आप सोच रहे होंगे, अजित मर गया तो ये कौन कहानी सुना रहा है ? तो मैं हूँ अजित की आत्मा। सरल शब्दों में अजित का भूत। उसी छत के मुंडेर पर बैठा मैं सब कुछ देख-सुन पा रहा हूँ। जगह, बॉडी का मुआयना हो रहा था। सभी आपस में बातें कर रहे थे कि तभी मेरे परिवार वाले भीड़ को हटाते पहुँच गए। मैं भावुक हो उठा हूँ। मरने के बाद भी उनका सामना करने की मुझमें हिम्मत ना थी। माँ मेरा शव देख गिर के बेहोश हो गयी, पिताजी छाती पीटने लगे, बहने लिपट कर विलाप करने लगी। मुझे उन्हें ऐसे रोते देख ज़रा भी अच्छा ना लगा। मैं, उन्हें चुप कराने लगा। आवाज़ लगाई पर किसी ने मेरी आवाज़ ना सुनी। मैं, पिताजी से लिपट गया पर उन्हें कुछ महसूस ना हुआ।

ये कैसी अवस्था थी कि मैं सबको देख-सुन पा रहा था पर वो मुझे महसूस तक नहीं कर पा रहे थे क्या फायदा हुआ मेरे मरने का ? मैं तो अब भी उनके कष्ट देख रहा था पर अब कुछ कर नहीं सकता,शायद जीवित रहता तो कम से कम कुछ भी कर तो पाता। मेरे प्रोफेसर पिताजी को सांत्वना दे रहे थे कि एकाएक पिताजी बोल पड़े, "बेटा नहीं निर्मोही था, कायर। अपने माता-पिता को बीच मंझधार में छोड़ गया। एक बार कह के तो देखता पूरी जिंदगी उसे बैठा के मैं खिलाता और उसे कभी जताता भी नहीं। कम से कम आँख के सामने तो होता।" कहकर वो फूट-फूट कर रोने लगे। मुझे लगा मेरे सामने दुनिया गोल-गोल घूमने लगी।

मैं रोने लगा कि पिताजी मैं कायर नहीं था बस डर गया था पर अब मैं कुछ नहीं कर सकता। गयी हुई जान लौटकर वापिस नहीं आती। ये कोई ग़लती नहीं जो सुधार ली जाय ये जो मैंने किया वो पाप था और पाप की सज़ा होती है। मेरी सज़ा यही थी कि मैं भटकूँ और निःसहाय होकर अपनों को रोज़ मरता हुआ देखूँ।

परिवार जन मेरा मृत शरीर ले कर रोते-बिलखते जा रहे थे और मैं वही खड़ा बेबस उन्हें देख रहा था। अचानक अलार्म बजा और मेरी नींद खुल गयी। गाल आँसुओं से भीगे हुए थे और कलेजा जोरों से धड़क रहा था। ओह ! तो ये सब सपना था ? कितना भयानक सपना था। ईश्वर ! घड़ी की तरफ देखा तो सुबह के आठ बज रहे थे। आज अंतिम कंपनी में इंटरव्यू है मेरा।

मैं जल्दी से उठकर तैयार होने लगा कि फ़ोन की घंटी बजी और उधर से माँ बोली, "बेटा तू अच्छे से अपना इंटरव्यू देना। किसी भी बात की चिंता मत करना। हमारे लिये तू ज़रुरी है तेरा काम नहीं। तो दिल पर कोई बोझ ना रखना और हाँ हम सब हमेशा तेरे साथ है।"

मैं, आँखों में आँसू और होठों पर मुस्कान लिये उनकी बात सुनता रहा।।


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