बस की पिछली सीट
बस की पिछली सीट
बस की पिछली सीट पर बैठी सोचती हूं...
कैसी औरतप्र धान बस है ये! भांति भांति की औरतों से खच्चा खच भरी हुई। कुछ हँसती, कुछ हँसाती औरतें, कुछ बातें करती कुछ शांत खुद में ही मग्न औरतें। कुछ शाम के ताने बाने बुनती, कुछ घर जा के क्या पकेगा की उधेड़ बुन में ही फंसी औरतें। कुछ थकी, कुछ अधनिंद्रा में खोई औरते। पर हर सीट एक जीवंतता का एहसास कराती। एक एक औरत किसी सुगढ़ रची उपन्यास सी खुद में संसार समेटे, नित नई चुनौतियों का सामना करती, घर- परिवार - चाकरी सबको संभालती बिना शिकायत किए कितनी आसानी से सबकुछ कर जाती है। जैसे उन्हें बनाया ही इसीलिए गया हो। थोड़ा आपस में हँस बोल लेती हैं, और आपस में ही शिकायते कर आंखें भींगो लेती है। फिर लौट जाती है अपने कर्तव्य पथ पर, एक योद्धा की भांति। अपने शस्त्र लेकर भिड़ जाती है, अपने अस्तित्व, अपने सम्मान के लिए। और ये लड़ाई किसी मनुष्य मात्र से नहीं है। ये लड़ाई खुद से है। नकारात्मक सोच से है। उस समाज से है जिसने स्त्री को मूर्ख समझकर उसका उपहास किया है। बस शायद यहीं सोच कर ये सब रोज अनगिनत काम लिए घर और घर से काम पर आती है। और उसी तन्मयता से, लगन से खुद को खुद से रोज एक कदम ऊंचा पाती हैं।
फिर एक एक कर सब बस से उतर अपने रास्तों को चली जाती है। फिर मेरी भी बारी आती है और सबको खुद सा ही देख हर्षोल्लास के साथ मैं भी जीवन के कुछ अच्छे संदेश लिए उतर कर अपने रास्ते चली जाती हूं। एक अच्छे कल के सपने लिए। एक अच्छे माहौल की कल्पना लिए और निरंतर बढ़ते रहने का जज्बा लिए फिर से जीवन गीत गुनगुनाने को अग्रसर।