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Anil Chandak

Drama

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Anil Chandak

Drama

दादी माँ

दादी माँ

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बहुत दिन हो गये मेरे दादी के इस दुनिया से गुजर जाने को, पर अभी भी उन की याद, मेरे दिलो दिमागपर छायी हुई है !

 मेरे दादाजी कठोर शिस्त नियम के, पालन करनेवाले व्यक्ती थे ! खुद मेहनत करने में विश्वास रखते थे ! उन के पिताजी ने उन्हे बचपन में ही दत्तक दिया था, पर जिन को दिया, वो बचपन में ही गुजर गये थे ! मदत करनेवाले कोई हात, सहारा नही था ! मेहनत मजदुरी कर के अपना पेट उन्होने पाला, अपने आप को खड़ा किया था ! पर भुल से भी, अपने, माँ बाप के पास नही लौट के गये, पर जब वो अच्छी तरह से सेटल हो गये, अपने भाई बहनों को घर लाकर उन का भी पालन पोषण किया था! पहले सायकिल पे तमाखु बेचते थे ! फिर एक दिन उन्होने बिडी का कारखाना निर्माण किया ! 

उन का बात बर्ताव देखकर, दादीजी के पिताजी ने उन् को दादी से ब्याहा था !

ऐसी हमारी दादी सुशील शान्त स्वभाव की थी !

संसार चालु हुआ, बच्चे भी होते गये ! फिर बच्चे जैसे जैसे काम में बोझ उठाने लगे, वैसा दादाजी के सर का बोझ हलका होता गया !

दादीजी में धार्मिकता कुट कुटकर भरी थी ! एक दिन उन्होने दादाजी के हातो उन के पैतृक सत्यनारायण भगवान के मन्दीर का जिर्णोध्दार भी करवाया था !

ये बात 60 या 70 के बीच दिनों की है !

अब बेटों के पिछे बहु ये भी आ गयी तो वे,  पुजा अर्चना में दिन व्यतित करती थी ! 

चातुर्मास के चार महिनो में प्याज और लहसुन घर में भी लाने देती थी !

चम्पा षष्टी से ही बैंगण, कांदा लहसून हम खा सकते थे ! 

बाद में भी जब कभी घर में आलु प्याज की सब्जी बनती तो, वो घर के बाहर आंगन में जा बैठती थी !

छुआछूत उसे बिल्कुल नही चलता था !

पर ये हुई उपर उपर की बाते, अंदर से वो एक कोमल दिलवाली औरत थी ! उस के इस मुखवटे के पीछे ये कारण था की घर में छ: बहुओं को एक साथ बांधे रखने के लिये, उस ने ऐसा रूप धारण किया था !

मुझे याद है, एकबार मैं बिमार पडा था, उस वक्त दादी की तब्येत अच्छी नही थी, पर मेरे लिये अपने एक पोते के लिये दौडीदौडी आती थी, और मुझे खाना खिलाती थी !

सामुहीक कुटुम्ब पध्दती होने से, मेरे मम्मी को बहुत काम करना पडता था !

मेरे पिताजी के छ: भाई थे, सो परिवार भी पचास सदस्य का था ! आज आप को हँसी आयेगी, पर उस वक्त ये आम बात थी !

दादी को लगबग चौदा बच्चे हुए थे, इसलिये दादीजी बहुत कमजोर थी ! दादी के आधे से उपर बच्चे तो मर गये थे, अलग अलग कारणों से !

एक ही बेटी थी, सो बेटी से बहुत जादा लगाव था !

दादीजी के भाई भी, हमारे मोहल्ले में ही रहते थे, उन का लब्ज हमारे घर में प्रमाण होता था !

एक बार मेरा एक दोस्त मुझे मिलने के लिये घर में आया था, मुझे मिलने के बाद उसने मुझसे पानी माँगा मैं उसे पानी पिलाने किचन में लाया, और मैं ल पितल के लोटे से उसे पानी देने लगा तो उसे रोका और बोली, जा् पहले हात पाँव धो कर हात लगावो मटके को ! दादी को किचन में छुआछुत नही चलती थी ! हाथ पाँव धोये बगैर वो हमे भी, छूने नही देती थी !

मुझे उस बात का बहुत बुरा लगा था ! सो मैंने मित्र के सामने दादी को उलटा सीधा कह दिया था ! घर में दादी को कोई बोले ये बात घर में पहली बार हो रही थी ! पिताजी ने तो गुस्से से मुझे वहाँ पर ही दो चप्पत लगाई थी !

बहुत देर तक मैं रौता रहा, दादी को भी रहा नही गया ! वो समझाते हुए मुझे बोली"ये बात पहले से होती आयी है, मैं कौन इसे बन्द करनेवाली औरत, और स्वच्छता का खयाल रखना चाहिये की नही ! आगे से तुम्हारे दोस्त को मैं कुछ नही बोलुंगी, कसम खाती हूँ!"

हम सारे सगे चचेरे, सारे भाई बहन, बुवा के भी बच्चे, दादा दादी के पास ही सोते थे ! रात को दादी हमे, रामायण, महाभारत की धार्मिक कथाए सुनाती थी ! हिन्दी भजनों के साथ साथ मराठी भजन भी अच्छी तरह गा लेती थी! कुछ भजन आज भी मैं कभी कभी गुनगुनाता हुँ ! विशेषकर जब वो गोपाल कृष्ण जी को नहलाती तो, श्री हरीला प्रेमाने तुळशीपत्र वाहते..

दादी के माने हुए भाई भी बहुत थे ! एक आयुर्वेदीक वैद्य गुणेजी हमारे घर रोज आते थे! हमारे छोटी बडी बिमारी के लिये उन के पास ईलाज होता था ! 

बडी बिमारी में उन की सलाह हमारे यहाँ महत्वपुर्ण होती थी !

दादी की वजह से हमारा घर शाकाहारी, कर्मठ हिन्दु रिती का पालन करनेवाला था, पर मोहल्लेवाले खुले दिल से हमारे घर आते थे! हमारे घर की बनी हुई हर चीज सब को बराबर परोसी जाती थी !

धार्मिक अनुष्ठान, दानधर्म भी बहोत होता था ! जवानी के दिनो में मैं बोलता भी था दादी को, दादी तुम इन पण्डितों को बहुत सर पे बिठाया है ! " चुप बैठ, अभी एक एक पैसा भी कमा के नही ला रहा, उपर से तुम्हारे ये तेवर !"

" तुम्हारा ब्याह होगा, तब तुम्हारी जोरू से बहुत काम कराऊंगी !"

मेरे पिताजी को जब चालीसी में ही हार्ट अँटक आया, तो उनका और हमारा बहुत खयाल रखती थी !

पर असल में मेरी शादी तो क्या, ग्रँज्युएट हुआ देखने को भी वो नही रही थी !

 उन के आखरी दिनो में, मैं जब उन को मिलने जाता, तब मेरे कान के बाल पकड़ के बाल कटवाने को कहती थी ! और हम अमिताभ के इतने दिवाने थे की लम्बे बाल और बेलबाँटम पँट तब फेशन थी !

वो जबान से नही बोल पाती, पर हम इशारे से ही समज जाते और कोने में जा के अपने आँसु छिपाते थे !

आज भी मुझे दादी की याद आती है तो विव्हल हो जाती थी ! सचमुच दादी और माँ दो नाम है, पर वो एक ईश्वर का रूप ही होता है !

इसलिये तो दादी माँ को याद कर के गुनगुनाते है, "उस को नही देखा हमने कभी, पर उस की जरूरत क्या होगी ! ऐ माँ तेरी सुरत से अलग, भगवान की सुरत क्या होगी !"


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