निर्णय की ताकत

निर्णय की ताकत

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मेरा और उस का टांका भिड़ गया था । 

जवानी का सुरूर था । और मेरा शाप और उस का घर आमने सामने था ।  

उस शहर में मैं नया ही आया था।मेरी जिन्दगी शहरों में गुजरने की वजह से, मेरे कपड़े आधुनिक होते थे,और बलदण्ड शरीर होने की वजह से चार जनो में अच्छा दिखता था ।


वो अपनी सहलियों के साथ,उस के घर के बाहर गप्पें हांकती रहती थी और उस की एक भतीजी जो बालिका थी, मेरे दुकान के सामने खेलती रहती थी । 

अभी मैनें दुकान पर कोई आदमी नहीं रखा हुआ था ।


जब भी मुझे बैंक और कोई विशेष काम से बाहर जाना होता था,मैं उन छोटी लड़कियों को ध्यान रखने बोल जाता था और बदले में उन को चाकलेट दिया करता था,इसलिये वे भी तत्परता से ध्यान देती थी।


जैसे दिन बीतते गये,हम एक दूसरे के दर्शन पाने को लालायित रहते थे ।

वो उन के घर के तीसरे मंज़िल पर स्टडी करती थी । वहाँ एक खिड़की थी,और वो बराबर मेरे काऊंटर पर से दिखती थी ।


वो खिड़की खुलने के बाद ही,वो वहाँ होने का मुझे मालुमात होती थी।

यहाँ काऊंटर पर से मैं और खिड़की में से वो एक दूसरे का इन्तजार करते रहते थे ।

वो कालेज में पढ़ती थी और ग्रजुएशन के बाद मैं अपना ये शाप चलाता था ।

रोज सुबह मेरे गाँव से लगभग बाईस तेईस किलोमीटर रोज मुझे उस गाँव में आना पड़ता था ।

मैं अकेला ही अपने फैमिली से था,इसलिये आने के बाद दुकान छोड़ने या बन्द करने का सवाल ही नही आता था ।


कभी वो उन के घर के आँगन में रही तो,मैं अपने टेपरेकॉर्डर पर वो "मेरे सामनेवाली खिड़की में" वाला गीत लगाता था । इशारा समझके वो स्माईल देती थी ।

इतना कुछ होने के बावजूद , हम दोनो कभी नहीं मिले थे ।

उस के पिताजी वृद्ध हो चुके थे ,पर माताजी हँसमुख औरत थी । उस का सगा भाई भरी जवानी में अपनी ,बिबी और तीन बच्चों को छोडकर चल बसे थे ।


बडी तीन बहनों की शादी हो गयी थी । 

जैसा समय बितता गया,उन के घरवालों की इस की भनक लग गयी थी । हम दोनो एक ही जात थे,और मेरे परिवार का, समाज में अच्छा खासा रूतबा था । इसलिये उन की तरफ से लगभग हाँ ही थी । 

उन के घर में मेरा आना जाना बढ़ने लगा । मेरा रोज का अप डाऊन होने से,मेरे गाँव से उस के पिताजी जो बिमारी से जूझ रहे थे,उन की दवाई तत्सम सामान मैं ले आता था ।


एक दिन मेरे घर में ये बात पहुँच गयी । माँ ने मुझे पूछा," क्या तुझे वो लडकी पसन्द है" । अचानक माँ के सवाल से मैं बौखला सा गया,जैसी मेरी चोरी पकडी़ गयी थी। मैं मुस्कुराते हुए वहाँ से चला गया ।

माँ ने एक दिन पिताजी को ये बात बतायी । पिताजी ने अपने सोर्सेस से उस की सब जानकारी निकाली थी। 

एक रात मै,गैलरी में लेटा था,तब पिताजी और माँ मेरे बारे में बोल रहे थे । पिताजी बोल रहे थे,ये शादी नहीं हो सकती,पर माँ मेरी तरफदारी कर रही थी । पिताजी बहुत गुस्सा हो गये थे। 

इधर मेरी नीन्द हवा हो गयी थी,कोई उपाय नहीं दिखता था ।

दूसरे दिन माँ ने मुझे बताया "सगोत्र होने के कारण ये रिश्ता नहीं हो सकता था । और अपने घरवाले कोई इस की इजाजत नहीं देनेवाले । तुम्हें उस लडकी को भूलना होगा,उस से भी कई अच्छे रिश्ते तुझे आयेंगे बेटा".

उन दिनो में मेरा ध्यान कहीं नहीं लगता था । वैसे और भी दूर दूर के रिश्ते आ रहे थे,पर मैं पसन्द नहीं बोल के टाल देता था ।


दोस्त मुझे भाग के शादी करने की सलाह देते थे । पर वो मुझे मंजूर नही था।

एक दिन मेरे मम्मी के भाई,मेरे मामाजी हमारे घर पे पधारे और मुझे बोले," देख बेटा,अपने गोत्र की दूर की लड़की को हम अपनी बेटी या बहन मानते आये हैं ,तो शादी कैसे कर सकते हैं । एक रिश्ते के लिये तू,इतने सारे रिश्ते कैसे ठुकरा सकता है । तुम सब से बड़े हो,तुम्हारी तीन तीन बहनें हैं ,उन की शादी में रूकावट आ सकती है । और तुम्हारे पिताजी को पहले ही ,दो बार हार्टअटैक आ चुका है । तुम्हारे गलत कदम उन के लिये घातक हो सकता है । सिर्फ खुद का मत सोचो,अपने परिवार का हित ध्यान में रखो। फिल्मी कहानियों से जिन्दगी नहीं कटती है । अब तुम बड़े हो गये हो,इस घर की जिम्मेदारी आगे तुम को ही सम्भालनी है। बाकी और क्या बोलूं मैं समझदार को इशारा काफी है।"

इतना बोल के वो चले गये थे।


मुझे उन की बात नहीं समझ आती थी,ऐसा नहीं था,पर ये दिल का मामला था और दिवाने कब किसी की सुनते हैं कभी ।

तनाव बहुत ही बढ़ता गया था । टेन्शन से पिताजी भी बीमार पड़ गये थे । मुझे पिताजी की फिकर हो रही थी।मुझे क्या करना ,समझ नहीं आता था ।

ऐसे में एक दिन ,मेरे परिचित व्यक्ती की मौत हो गयी थी,और मैं शमशान में गया था,वहाँ मेरे समवयस्क दोस्त में मुझे बोला," आजकल बहुत मजे उड़ा रहे हो" मैंने कहाँ " मैं समझा नहीं" । फिर उस के हमारे प्रेम के बारे में,चार जनों के बीच उलटा सुलटा कह दिया था। उस की बदनामी सुन के मेरे तो तन मन में आग लग गई ।


हम ने एक दूसरे के साथ प्यार जरूर किया था । पर चार जनों के बीच ही मिले थे । और हमारा प्यार अछूता और पवित्र था ।


वैसे ही मैं मेरे दुकान पर आया,अब कुछ ठोस निर्णय लेने की बहुत जरूरी थी । मुझे किसी भी हालत में उस की बदनामी मंजूर नहीं थी । मैंने तुरन्त उस की माँ को बुलवाया वहाँ। और मेरे घर की स्थिति बतायी और दिल पे पत्थर रख के, मन में संकल्प कर के बोला," मेरे घरवाले तैय्यार नहीं हैं ,और पिताजी की तंदरूस्ती की मेरे उपर जिम्मेदारी है,चाहे तो मैं आप की बेटी से राखी बँधवा सकता हूँ।" इस पर वे बोली," मैनें भी उस को यही कहा था,आग से मत खेलो तुम,पर मेरी बात कोई नहीं मानता था " ।

वो वहाँ से चली गयी,पर मेरे सिर का बोझ जरूर हल्का हुआ था ।

एक निर्णय की ताकत मैं पहचान गया था।क्यों कि छोटी सी" हां" और छोटी सी " ना" पूरी जिन्दगी ही बदल देती है।


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