Qais Jaunpuri

Drama Abstract

3.9  

Qais Jaunpuri

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चोखा-पूड़ी

चोखा-पूड़ी

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मैं एक वेटर हूँ. चालीस साल से लोगों को खाना परोसता हूँ, बिना कुछ सोचे-समझे. क्योंकि आमतौर पर इसकी कोई ज़रुरत भी नहीं पड़ती है. लोग आते हैं, खाना खाते हैं, और चले जाते हैं. हम भी ऑर्डर लेते हैं, खाना परोसते हैं, बिल देते हैं, और पैसा ले लेते हैं, बस. इसमें सोचने-समझने की कभी ज़रुरत ही नहीं पड़ती.

लेकिन आज एक ऐसा ग्राहक आया, जिसने मुझे कुछ सोचने पर मजबूर कर दिया. मैंने नियम के मुताबिक़, उसे सबसे पहले एक गिलास पानी दिया. उसने दो घूँट पीने के बाद पानी का गिलास एक तरफ़ सरका दिया. वो हमारे रेस्टोरेण्ट को घूरकर देख रहा था. मैंने भी उसे पहले कभी नहीं देखा था. शायद अभी नया आया है इस शहर में. फिर मैंने उसके सामने होटल का मेन्यू बुक रख दिया. उसने दो-चार पन्ने पलटने के बाद, इशारे से मुझे अपनी ओर बुलाया.

“ये, पूड़ी-सब्ज़ी में कितनी पूड़ी रहेगी?” उसके हाव-भाव से ऐसा लग रहा था, जैसे वो सब्ज़ी खरीदने निकला हो, और सारी सब्ज़ियाँ देखने के बाद पूछ रहा हो कि ‘एक किलो में कितनी चढ़ेगी?’ लेकिन वो यहाँ सब्ज़ी खरीदने नहीं आया था. वो आया था, खाना खाने. और उसने मुझसे पूछा था, ‘कितनी पूड़ियाँ रहेंगी एक प्लेट में?’ 

“पाँच.” मैंने उसे बताया.

“ठीक है, फिर पूड़ी-सब्ज़ी ले आइए.” उसने ऑर्डर दिया. उसने आर्डर देने में इतनी जल्दी दिखायी, जैसे उसे लगा हो कि कोई उसे कहेगा कि ‘ये सब्ज़ी मत खाओ, ये ख़राब है.’ मगर किसी के टोकने से पहले ही उसने ऑर्डर दे दिया था.

“कुछ और लेंगे साब?” मैंने उससे पूछा.

“नहीं.” उसने जवाब दिया. ऐसा लगा, जैसे वो पैसे गिनकर घर से निकला था, और उसके पास सिर्फ़ पाँच पूड़ी खाने भर के पैसे थे. मैं बेमन से अपने मालिक के पास आया.

“एक पूड़ी-सब्ज़ी.” मैंने अपने मालिक को बताया. मालिक ने मुँह सिकोड़ते हुए उस ग्राहक को देखा, और टोकन फाड़कर मुझे दिया. मेरे मालिक को इतने छोटे ऑर्डर के लिए टोकन फाड़ना भी ठीक नहीं लग रहा था. उसने मुझे भी घूरकर देखा. अब वो ग्राहक कम पैसे ख़र्च कर रहा था तो मैं क्या करता? मगर मेरा मालिक तो मुझे ही ज़िम्मेदार समझ रहा था.

मेरे होटल में पूड़ी-सब्ज़ी सुबह का नाश्ता है. लेकिन वो ग्राहक रात में खाना चाह रहा था. तब मेरे मालिक ने कहा था, “दे दो. रात को पूड़ी-सब्ज़ी माँग रहा है. यूपी-बिहार से आया होगा.” उस ग्राहक ने पूड़ी-सब्जी का ऑर्डर क्या दिया, मेरे मालिक ने उस ग्राहक का पता भी बता दिया. लेकिन एक ग्राहक था, दूसरा मालिक. और मुझे दोनों की बात सुननी थी.

“लेकिन मालिक! इस समय तो बनाना पड़ेगा.” मैंने अपने मालिक से कहा.

“देखो, सुबह का बचा होगा, दे दो. अब चालीस रुपए में आटा थोड़ी खराब करूँगा.” मेरे मालिक ने इतनी ही देर में पूरा अर्थशास्‍त्र इस्तेमाल कर दिया था. लेकिन मैं एक ग्राहक के साथ ऐसा नहीं करना चाह रहा था. मैंने अपने मालिक का मुँह देखा. मेरे मालिक ने मुझे देखा.

“क्या?” मेरे मालिक ने मुझसे ऐसे पूछा, जैसे वो हर सवाल का जवाब दे देगा, और जैसा मैं बोलूँगा, वैसा ही मान लेगा. मैं समझ गया. ये मेरे मालिक का ‘ना’ कहने का पुराना तरीक़ा था.  

“कुछ नहीं.” मैंने जवाब दिया और वापस किचन में आ गया. आज उस ग्राहक की क़िस्मत ख़राब थी, और मेरे मालिक की क़िस्मत में चालीस रुपए ज़्यादा लिखे थे. हमने पूड़ियों को दुबारा गरम किया, जिससे ये पता न चले कि ये ठण्डी और सुबह की बची हुई पूड़ियाँ हैं. सब्ज़ी को हम गरम कर ही नहीं सकते थे, क्योंकि सब्ज़ी बची ही नहीं थी, इसलिए मालिक के कहे मुताबिक़ हमने थोड़ा सा चोखा साथ में रख दिया.

 

लेकिन ये क्या? ग्राहक तो देखके ख़ुश हो गया. उसने बड़े मन से खाया. मुझे बड़ा अफ़सोस हो रहा था. जब उसने पाँचों पूड़ियाँ ख़त्म कर लीं, तब मैंने अपनी ड्यूटी के मुताबिक़ उससे एक बार फिर पूछा, “कुछ और लाऊँ साब?”

“नहीं, अब बिल लाइए.”

मैं अपने मालिक के पास बिल लेने गया. मालिक बोला, “अच्छा! तो साहब को चालीस रुपए का बिल भी चाहिए?” मैं चुपचाप रहा. मालिक ने बिल फाड़कर दिया. मैंने बिल को सौंफ़ की प्याली में रखकर ग्राहक की टेबल पर रख दिया. ग्राहक ने पचास का नोट बिल के साथ रख दिया. मैंने बिल और नोट लेकर मालिक को दे दिया. मालिक ने दस रुपए का नोट लौटाया, जिसे मैंने वापस टेबल पर रख दिया. ग्राहक तब तक बचा हुआ चोखा ख़त्म कर रहा था. मुझे टिप की उम्मीद नहीं थी, इसलिए मैं अपने काम में लग गया.

ग्राहक ने टिशू पेपर से अपना हाथ पोंछा. मेरे मालिक को यहाँ भी तकलीफ़ हुई, “अच्छा! तो टिशू पेपर भी चाहिए?”

वो ग्राहक उठा, और हाथ धोने के लिए वॉश-बेसिन की ओर बढ़ा, जहाँ उसे हाथ धोने के लिए साबुन भी नहीं मिला, क्योंकि साबुन कई दिनों से ख़त्म हो चुका था, और मालिक आजकल-आजकल कर रहा था.

ख़ैर... ग्राहक ने पानी से ही हाथ धोया, और वापस आते हुए बीच में उसे मैं मिल गया.

“चोखा बहुत अच्छा बना था. इसका नाम ‘सब्ज़ी-पूड़ी’ नहीं, ‘चोखा-पूड़ी’ रखिए.” ये बात उस ग्राहक ने कही थी, और उसने मेरी पीठ पर अपना हाथ रखकर ये बात कही थी. ये उसकी प्रतिक्रिया थी, हमारे खाने के लिए. लेकिन उसकी इस प्रतिक्रिया ने हम सबको, मेरे मालिक को भी हैरान कर दिया. शिकायत के बजाए उस ग्राहक ने तारीफ़ की थी.

वो दस रुपए अभी भी टेबल पर पड़े थे. हम सबने सोचा, “अभी हाथ धोकर आने के बाद वो ग्राहक उसे उठा लेगा.”

मगर उस ग्राहक ने वो दस रुपए नहीं उठाए, और सीधा होटल से बाहर निकल गया. उसने हमें उस दस रुपए की टिप दी थी. हम सबने आपस में कहा, “क्या आदमी है यार! ऐसे आदमी रोज़ क्यों नहीं आते!”

मेरे मालिक ने कहा, “है कोई दिलदार आदमी.”

अपने मालिक के मुँह से ऐसी बात, उस ग्राहक के लिए सुनकर मैं हैरान हो गया. अभी थोड़ी देर पहले ही, जब वो ग्राहक हमारे रेस्टोरेण्ट में आया था, और जब उसने खाने का ऑर्डर दिया था, तब यही मालिक कह रहा था, “दे दो, रात को पूड़ी-सब्ज़ी माँग रहा है. यूपी-बिहार से आया होगा.”

तो यहाँ बात पूड़ी-सब्ज़ी की नहीं थी. बात थी क़ीमत की. वो ग्राहक जब आया तो हम सबने उसे एक साधारण ग्राहक ही समझा था, जैसा कि हम समझते हैं, और इसके अलावा कुछ और समझने की हमारे पास कोई वजह भी नहीं होती है. लेकिन उस ग्राहक ने मुझे पूरे पच्चीस प्रतिशत की टिप दी थी. ये मेरी ज़िन्दगी में अब तक का सबसे महँगी टिप था.

उस ग्राहक ने हमारे साथ जो किया, उसकी क्या वजह रही होगी?

***


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