Chapter 2 : चणक पुत्र चाणक्य
Chapter 2 : चणक पुत्र चाणक्य
Chapter 2 : चणक पुत्र चाणक्य
आचार्य चाणक्य पानी पीने सरोवर के किनारे बैठे थे। उन्होंने जैसे ही जल में पानी पीने के लिए अपना हाथ आगे बढ़ाया, तभी उनके कानों में एक आवाज गूंजी - “चाणक्य क्या तुम्हें अपने बचपन की प्रतिज्ञा याद नहीं ? क्या तुम भूल गए कि धनानंद ने क्या किया था हमारे साथ ? क्या तुम उस नीच, दुष्ट और पापी व्यक्ति से सहायता मांगोगे ?”
आवाज सुनते ही वो चौंके, वो आवाज उन्हें वर्षों बाद सुनाई पड़ रही थी। उन्होंने अपने आस पास देखा तो वो आवाज शांत हो गयी। उन्होंने एक बार फिर पानी पीने के लिए सरोवर की तरफ जैसे ही अपना हाथ बढ़ाया, सरोवर के जल में एक आकृति चमकी और वो क्रोध में चाणक्य को देखते हुए बोले, “चाणक्य क्या तुम्हारी प्रतिज्ञा झूठी थी ? क्या तुम्हारे पास क्षणिक भी लज्जा शेष नहीं बची है ?”
चाणक्य ने जब उस आकृति पर ध्यान दिया तो उनके आश्चर्य की सीमा नहीं रही। वो आकृति किसी और की नहीं बल्कि उनके पिता आचार्य चणक की थी। वो आश्चर्य करते हुए बोले, “पिता।।।”
तब चणक बोले, “पुत्र, क्या तुम्हें प्रतिज्ञा का तनिक भी भान नहीं रहा ? मेरी शिक्षा, मेरा पालन, क्या तुम्हें धनानंद के सामने हाथ फ़ैलाने से भी नहीं रोक पाएगा ? क्या मेरा अखंड भारत का स्वप्न तुम इस प्रकार पूरा करोगे ?”
उनकी बातों पर चाणक्य बोले, “आप पिता हैं मेरे और आपकी शिक्षा, आपका खून अब भी मेरे रगों में है। मैं कोई भी ऐसा कार्य नहीं करूँगा जिससे आपको कलंक का सहभागी बनना पड़े। परन्तु यह आपकी ही शिक्षा का परिणाम है आचार्य चणक कि मैं अखंड भारत के स्वप्न को जिन्दा रखने के लिए दुश्मन के सामने हाथ फ़ैलाने जा रहा हूँ।”
वो आगे बोले, “आचार्य एक बार आपने हमें बताया था कि अगर आपके पास राष्ट्रहित और स्वयंहित का विकल्प बचे तो हमेशा राष्ट्रहित के विकल्प का चयन करना। और मैं आपकी ही आज्ञा का पालन कर रहा हूँ आचार्य। आपने भी तो यही किया था।”
“मुझे तुमसे ऐसी ही अपेक्षा थी पुत्र। मैं धन्य हुआ कि तुम हमारे घर पैदा हुआ थे। मुझे गर्व है तुम पर और मुझे उम्मीद है कि एक दिन तुम राष्ट्र फलक पर अपना नाम लिखोगे।”
अचानक चाणक्य के घोड़े ने हिनहिनाकर अपना आगे का दोनों पैर जमीन पर पटका। जिससे जमीन पर पड़े कुछ पत्थरों में कम्पन्न हुई और वो सरोवर के पानी में जा गिरे। पत्थर से सरोवर के ठहरे पानी में भी कम्पन्न हुई और आचार्य चाणक्य के पिता चणक भी उस कम्पन्न में कहीं समा गए।
चणक का चेहरा सामने से हटते ही चाणक्य जैसे नींद से जागे। वो समझ गए थे कि वहां उन्हें पिता के पास होने का भ्रम हुआ था। उन्होंने सरोवर का पानी पिया और वापस अपने घोड़े के पास आ गए। उन्होंने घोड़े की गर्दन पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहा, “क्या हुआ अश्वराज ? भूख भी लग आई है क्या ?”
तभी घोड़ा एक बार फिर हिनहिनाया। चाणक्य ने उसकी गर्दन पर हाथ रखा था। उन्हें घोड़े के अन्दर कुछ बेचैनी महसूस हुई, मानो वो किसी खतरे का संकेत दे रहा हो। चाणक्य समझ गए थे कि आस पास ही कोई खतरा उन पर मंडरा रहा है और उनका वहां से निकल जाना ही बेहतर होगा।
उन्होंने तुरंत घोड़े के लगाम को पेड़ के तना से अलग किया और घोड़े पर बैठ गए। उन्होंने अभी वहां से जाने का सोचा ही था कि तभी अचानक कुछ घुड़सवार ने आगे और पीछे से आकर उन्हें घेर लिया। सभी ने अपने चेहरे पर काला नकाब डाल रखा था और किसी के हाथ तलवार थी तो किसी के हाथ में तीर-कमान।
वो सभी चाणक्य के चारों तरफ चक्कर काटने लगे और फिर कुछ क्षण बाद स्थिर हुए। तब उनमें से उनका एक सरदार आगे आया और कड़क आवाज में बोला, “कहाँ भागने की सोच रहा था ब्राह्मण ?”
तब चाणक्य मुस्कुराते हुए बोले, “कोई अपनी जन्मभूमि और कर्मभूमि से भला कहाँ भाग सकता है।”
“अच्छा। तो ये प्रान्त तुम्हारी जन्मभूमि है ?”
“नहीं !!”
“अच्छा तो कर्मभूमि होगी। भिक्षा मांगते होगे यहाँ। क्यों ब्राह्मण ?” कहते हुए वो सभी ठहाका मारकर हंस पड़े।
तब चाणक्य मुस्कुराए और बोले, “नहीं !! मेरी जन्मभूमि मगध है और मेरी कर्मभूमि ये पूरा भारत।”
उनके चेहरे पर बिलकुल भी भय दिखाई नहीं पड़ रहा था। ये देखकर लुटेरे का सरदार अचंभित था। वो कड़क आवाज में बोला, “अच्छा तो तुम मगध हो। सुना है कि मागधों के पास बहुत सारा धन होता है। चलो जल्दी से सारे धन निकाल कर जमीन पर रख दो।”
चाणक्य मुस्कुराए और बोले, “मागधों के पास धन के साथ साथ ज्ञान भी होता है। मुझे लगता है तुम लोगों को धन से ज्यादा ज्ञान की जरूरत है।”
वो सरदार कड़क आवाज में बोला, “ज्ञान से पेट नहीं भरता ब्राहमण। अपना ज्ञान किसी ऐसे व्यक्ति को देना जो पेट से तृप्त हो। चलो अपनी पोटली हमें दो।”
चाणक्य ने आगे कुछ भी नहीं कहा और पोटली को सरदार की तरफ फेंक दिया। सरदार और भी अचंभित हो गया ये देखकर कि बिना डरे, बिना गिड़गिड़ाए इस आदमी ने कैसे आसानी से पोटली उसे दे दी।
उन्होंने धन की आस में पोटली को खोला लेकिन उसमें कुछ कपड़े, माँ का दिया हुआ भिक्षा पात्र, एक जोड़ी खड़ाऊं, थोड़ी जड़ी-बूटी और कुछ ताम्रपत्र के अलावा कुछ भी नहीं था। वो हैरान होता हुआ चाणक्य से बोला, “ब्राह्मण इस पोटली में तो कुछ भी नहीं है। कहीं तुमने अपने पास तो नहीं छुपा कर रखा है। साथियों, इस ब्राह्मण की तलाशी लो।”
तभी सरदार को अचानक पोटली में से एक परिचय पत्र प्राप्त हुआ। उन्होंने जैसे ही परिचय पत्र में नाम देखा तो अगले ही पल अपने साथियों पर चिल्लाया, “छोड़ दो उन्हें !! कोई उन्हें हाथ नहीं लगाएगा।”
सभी साथी तुरंत पीछे हट गए। तब वो सरदार अपने घोड़े से उतरा और चाणक्य के पैरों में पड़ता हुआ बोला, “आचार्य विष्णुगुप्त, हम क्षमाप्रार्थी है। हमसे बहुत बड़ी भूल हो गयी। हम आपको पहचान नहीं पाए।”
दरअसल आचार्य चाणक्य का ही दूसरा नाम विष्णुगुप्त था और वो आचार्य विष्णुगुप्त के नाम से सिर्फ तक्षशिला ही नहीं बल्कि आस पास के सभी प्रान्तों में प्रसिद्ध था। उनका नाम और ख्याति धीरे धीरे भारत के हरेक कोनों में पहुंचनी शुरु हो चुकी थी।
सरदार आचार्य चाणक्य के पैरों में गिरकर रोने लगा था। उसके सभी साथी भी नाम जानकर उनके पैरों में गिर पड़े। तब आचार्य ने उन्हें उठाते हुए कहा - “पुत्रों यह विलाप करने का समय नहीं है। उठो और सत्कर्म करके माँ भारती को गौरवान्वित करो।”
तब सरदार बोला, “आचार्य हम वर्षों से राहगीरों को लुटने का कार्य ही कर रहे हैं। हम सभी धनसेठों से सताए हुए हैं। हमारे पास और कोई विकल्प नहीं है। हमारा घर, हमारी जमीन छिनी जा चुकी है। हम और क्या कर सकते हैं आचार्य ?”
चाणक्य समझाते हुए बोले, “नदी का प्रवाह बाँध बनाकर रोक सकते हैं, उन्हें मोड़ नहीं सकते। वह अपना रास्ता स्वयं ढूँढती है। तुम लोगों को भी अपना जिविकोपार्जन का रास्ता स्वयं ही ढूँढना होगा। अत्याचार को अत्याचार करके खत्म नहीं किया जा सकता। इसलिए अगर जिविकोपार्जन करना है तो धनसेठों का सामना करो, निरीह पर अत्याचार ना करो और ना ही उसे लूटो।”
सरदार अपना हाथ जोड़ता हुआ बोला, “आपने हमारी आँखें खोल दी आचार्य। अब हम धनसेठों का सामना करने के लिए तैयार हैं।”
तब चाणक्य कुछ सोचते हुए बोले, “क्या तुम हमारा एक कार्य करोगे ?”
“अवश्य आचार्य, आज्ञा करें।”
उसके बाद आचार्य ने सिकंदर की कहानी बताई और उन लोगों को उसके महत्वाकांक्षाओं से अवगत कराया। साथ ही कहा कि उन्हें अब अखंड भारत की यात्रा में उनका साथ देना होगा और आस पास के सभी जनपदों को सिकंदर से अवगत कराकर उन्हें एकजुट करना होगा।
सरदार ने उनकी बात मान ली और कहा, “आचार्य आप निश्चित रहें। मैं आपकी सहायता के लिए हमेशा तत्पर हूँ। मैं आपके लिए जनमत जुटाऊंगा। आप निःसंदेह अपनी यात्रा में आगे प्रस्थान कर सकते हैं।”
“माँ भारती तुम लोगों की रक्षा करे।” चाणक्य ने उन लोगों को आशीर्वाद दिया और अपने रास्ते आगे बढ़ गए। वो रास्ते में जहाँ भी रुकते, वहां आस पास की जनपदों और ग्रामों को एकत्र करने का प्रयास करते। कुछ उनकी बातों से सहमत होकर आश्वासन देते तो कुछ अपनी असहमति जताते।
आचार्य चाणक्य ने बिना समय व्यर्थ किए अपनी मगध पहुँचने की यात्रा अनवरत जारी रखी। कुछ दिनों के पश्चात उन्होंने मगध की सीमा पर कदम रख दिया। वो वहां अपने घोड़े से उतरे और घुटनों के बल जमीन पर बैठ गए।
उन्होंने मगध की माटी को अपनी मुट्ठी में भरा और उसे अपने ललाट पर लगाते हुए बोले, “मेरी जननी, मेरी जन्मभूमि, तुम्हें कोटि कोटि प्रणाम। जननी, तुम्हारी यादों को सीने से लगाए वर्षों तड़पता रहा हूँ। अब तुम्हारा पुत्र, तुम्हारा लाल चाणक्य, तुम्हारे कर्ज को लौटाने वापस आ चूका है। ये चाणक्य तुम्हें पीड़ा मुक्त करेगा। यह वचन है मेरा।”
उसके बाद उन्होंने अपना शीश नवाया और फिर पैदल ही सीमा के अन्दर प्रवेश कर गए।
कैसा होगा चाणक्य का मागधी जीवन ? क्या चाणक्य को महाराज धनानंद की सहायता मिलेगी या मिलेगा अपमान ? क्या चाणक्य का अखंड भारत का स्वप्न होगा पूर्ण ? क्या है चाणक्य की बचपन की प्रतिज्ञा ?
