Chapter 1 : स्वप्न अखंड भारत का !
Chapter 1 : स्वप्न अखंड भारत का !
Chapter 1 : स्वप्न अखंड भारत का !
आचार्य चाणक्य भारतीय इतिहास का वो अमर नाम है जिन्होंने अपने राजनीति ज्ञान और कुटिल नीति से देशवासियों के मन में एक अमिट छाप छोड़ी है। वही थे जिन्होंने खंड खंड पड़े भारत को अखंड बनाने का स्वप्न दिखाया। उन्होंने अपनी कुटिलता से धनानंद जैसे क्रूर और अत्याचारी राजा को मात दी और उनके कारण चन्द्रगुप्त जैसे पराक्रमी सम्राट का मगध में उदय हुआ।
आज हम उनकी ही कहानियों से रूबरू होने वाले हैं। उनके बारे में पर्याप्त साक्ष्य उपलब्ध नहीं होने के कारण हमें थोड़ी कल्पनाओं का सहारा लेना पड़ रहा है लेकिन हम विश्वास दिलाते हैं कि उनकी कहानियां उपलब्ध सत्य के करीब होंगी। आइए हम साथ मिलकर आचार्य चाणक्य के अखंड भारत की यात्रा का आनंद लेते हैं।
स्थान : तक्षशिला का गुरुकुल
आचार्य चाणक्य अपने आश्रम में अपने शिष्यों के साथ एक पेड़ के नीचे बैठे थे। वो उन्हें राजनीति का पाठ पढ़ा रहे थे। एक शिष्य ने आचार्य से प्रश्न किया, “आचार्य, एक उत्तम अधिपति बनने के लिए क्या करना चाहिए ?”
तब आचार्य चाणक्य ने पेड़ की तरफ इशारा करते हुए कहा, “पुत्र इस पेड़ को देख रहे हो। इस पेड़ को बनने में जड़, तना, शाखाएं, टहनियां और पत्तियों ने एकसमान भागीदारी निभाई है। उसी प्रकार एक उत्तम अधिपति को अपनी प्रजा का उतना ही ख्याल रखना चाहिए जितना अपने परिवार का। और अपने मंत्रिमंडल का उतना ही ध्यान रखना चाहिए, जितना कि स्वयं का। उन्हें भी इस पेड़ की तरफ एकसमान व्यवहार करना चाहिए तभी एक राज्य सुखी रह सकता है। और उसका अधिपति उत्तम कहला सकता है।”
तभी एक दुसरे शिष्य ने प्रश्न किया, “आचार्य, अधिपति अपने विश्वासपात्रों का चयन कैसे करे ?”
तब आचार्य चाणक्य ने अपने पुस्तक की तरफ इशारा करते हुए कहा, “अगर तुमलोगों को ये पुस्तक दे दी जाए तो तुमलोग क्या करोगे ?”
“हम इसे पढ़ेंगे आचार्य !!”
“आचार्य हम इसे कंठस्थ कर लेंगे।”
“हम इसमें लिखे मन्त्रों का मर्म समझेंगे आचार्य। उसकी वास्तविक जीवन में सत्यता की जाँच करेंगे।”
“सत्य कहा। हम इसके मंत्रों का मर्म समझेंगे। उसी प्रकार अधिपति को सर्वप्रथम विश्वासपात्रों को परखना होगा। उसके विश्वास को परखने के लिए उन्हें कठिन परिस्थिति में डालना होगा, उनकी पृष्ठभूमि को खंगालना होगा, परन्तु अधिपति को एक बात स्मरण रहे, स्वयं से बड़ा विश्वासपात्र कोई नहीं होता।”
राजनीति पर विचार विमर्श जारी था। उसी समय चाणक्य का एक शिष्य हांफता हुआ वहां आया और पुकारता हुआ बोला, “आचार्य, आचार्य।”
वो आचार्य के पास घुटनों के बल बैठ गया।
“क्या हुआ सोमगुप्त ? तुम हांफ क्यों रहे हो ?”
“एक गंभीर सुचना प्राप्त हुई है आचार्य।” सोमगुप्त हांफता हुआ बोला। तब चाणक्य बोले, “पहले गहरी साँस लो और फिर बताओ कि क्या सुचना है ?”
सोमगुप्त ने एक गहरी साँस ली और फिर कहा, “आचार्य यूनान का शासक सिकंदर एक विशाल सेना के साथ झेलम के तट की तरफ बढ़ रहा है। उनकी योजना पुरु राष्ट्र पर आक्रमण करने की है।”
ये सूचना सुन आचार्य चाणक्य के माथे पर चिंता की लकीरें उभर आई। वो अपने सामने बैठे शिष्यों से बोले, “बालकों आज का पाठ समाप्त होता है।”
“प्रणिपात आचार्य !” सभी शिष्य आचार्य चाणक्य को प्रणाम कर अपने अपने कक्ष में चले गए।
उसके बाद आचार्य सोमगुप्त की तरफ देखते हुए बोले, “पुरु राष्ट्र भारत की एक महत्वपूर्ण सीमा है सोमगुप्त। अगर उस सीमा को तोड़कर सिकंदर भारत में प्रवेश कर गया तो उसके साथ साथ भारत में पश्चिमी सभ्यता का आगमन हो जाएगा। हमारी धार्मिक मान्यताओं, संस्कृति, नैतिक मूल्यों, पारम्परिक रिवाज, राजनैतिक प्रणाली, विरासतों सभी पर उसका गहरा दुष्प्रभाव होगा।”
“आचार्य फिर तो देशवासियों के साथ गलत होगा।”
“यही नहीं सोमगुप्त। सिकंदर के साथ साथ भारत में आक्रान्ताओं के प्रवेश का द्वार खुल जाएगा। वो भारत की धन संपदा को लूटकर हमारे देश को खोखला कर देंगे। इन आक्रान्ताओं का लक्ष्य ही होता है धन संपदा लूटना, अपनी संस्कृती को बढ़ावा देना, अपने विचारों को थोपकर अगली पीढ़ी को बर्बाद करना। और हम ऐसा नहीं होने दे सकते। हमें माँ भारती की रक्षा करनी ही होगी।”
“परन्तु आचार्य, क्या पुरु राष्ट्र इसमें सक्षम नहीं है ?”
“सोमगुप्त, निसंदेह पुरु राष्ट्र एक वीर राष्ट्र है। वहां वीरों ने जन्म लिया है। वहां की नसों में वीरता दौड़ती है, स्वयं अधिपति पोरस भी महान पराक्रमी है, परन्तु हमें दुशमन को कम नहीं आंकना चाहिए। हमें उनकी शक्तियों का अंदाजा नहीं है। पुरु राष्ट्र हमेशा से हमारा सहयोगी रहा है और पोरस हमारा मित्र। हमें उसकी सहायता करनी होगी।”
“हम कैसे एक राष्ट्र की सहायता कर पाएंगे आचार्य ? हम ना ही सम्राट हैं और ना ही साम्राज्य।”
तब चाणक्य अपनी जगह से उठे और सोमगुप्त को एक ऐसी जगह ले गए जहाँ पूरे भारतवर्ष का नक्शा बना हुआ था। उसमें हरेक जनपद, साम्राज्य और सभी की सीमाओं को दर्शाया गया था।
चाणक्य नक़्शे की तरफ इशारा करते हुए बोले, “अवश्य ही हम सम्राट नहीं हैं परन्तु हैं तो इसी देश के नागरिक। हमारा कर्तव्य है कि हम इसकी सीमाओं की रक्षा करें। मुझे अब खंड खंड पड़े इस भारत को एकत्र करना होगा सोमगुप्त। इन सभी साम्राज्यों और जनपदों को अवगत कराना होगा कि अगर सीमाओं को सुरक्षित करने का प्रयास नहीं किया गया तो जल्द ही सिकंदर भारत पर एकक्षत्र राज करेगा।”
सोमगुप्त ने अपनी चिंता प्रकट करते हुए कहा, “आचार्य कोई भी साम्राज्य क्यों हमारा साथ देगा ? सभी तो आपस में ही जमीन के छोटे छोटे टुकड़ों को पाने के लिए लड़ मरते हैं।”
“जानता हूँ सोमगुप्त। परन्तु एक शिक्षक और माँ भारती की संतान होने के नाते हमारा ये भी कर्तव्य है कि सभी राज्यों में जाकर अलख जगाएं। अगर फिर भी किसी के कान खड़े नहीं होगे तो हम स्वयं सीमाओं की रक्षा करने जाएंगे परन्तु अंतिम साँस तक आक्रान्ताओं को प्रवेश करने से रोकेंगे।”
सोमगुप्त चाणक्य की बातो से सहमत होता हुआ बोला, “आज्ञा करें आचार्य ! हमें क्या करना होगा ?”
आचार्य नक़्शे में विभन्न ग्राम को चिन्हित करते हुए बोले, “तुम शिष्यों की एक मंडली लेकर सभी जनपद और ग्राम में जाओ और वहां के मुखिया से मिलो, उन्हें सिकंदर से अवगत कराओ। अधिपति से मिलो, उन्हें एकजुट करने का प्रयास करो। तब तक मैं मगध जाता हूँ और वहां के महाराज धनानंद से सीमाओं के सुरक्षा की भीख मांगता हूँ। अगर वो पोरस का साथ देने को तैयार हो जाए तो पोरस की जीत सुनिश्चित हो जाएगी।”
मगध का नाम सुनते ही सोमगुप्त के चेहरे पर एक भय छा गया। वो तुरंत बोला, “आचार्य आप मगध जाएंगे ? वहां की स्थिति और भी दयनीय है आचार्य। सुना है धनानंद भोग विलास में डूबा रहता है। वो आपकी बात कदापि नहीं मानेंगे आचार्य। अगर उन्होंने आपको अपमानित कर दिया तो....”
तब चाणक्य मुस्कुराए और बोले, “अखंड भारत और माँ भारती के सम्मान के लिए माँ भारती का ये पुत्र चाणक्य अपना अपमान भी सहन कर लेगा।”
आचार्य चाणक्य के विचार जानकर सोमगुप्त का सीना गर्व से चौड़ा हो गया। वो मन ही मन बोला, “मैं धन्य हुआ कि आप मेरे आचार्य हैं। माँ भारती धन्य हुई कि उन्होंने आप जैसे लाल को जना।”
वो तुरंत चाणक्य के चरणों में झुक गया - “आचार्य हमें आशीर्वाद दें कि हम अखंड भारत के स्वप्प्न को सफल कर सकें।”
चाणक्य ने उसे आशीर्वाद दिया - “माँ भारती तुम्हें विजयी करे।”
सोमगुप्त वहां से प्रस्थान कर गया। वहीं आचार्य चाणक्य भी मगध प्रस्थान करने के लिए अपनी पोटली बाँधने लगे। उनके चेहरे पर ख़ुशी और चिंता के मिश्रित भाव थे। आज लगभग पच्चीस वर्षों बाद वो मगध वापस लौट रहे थे। वो मगध जो उनकी मातृभूमि थी, उन्हें वहीं से महाराज धनानंद के सैनिकों से बचकर भागना पड़ा था और आज वो उसी धनानंद से कुछ मांगने जा रहे थे।
उन्होंने एक भिक्षा पात्र को पोटली में भरने से पहले ध्यान से देखा और फिर उसे चूमते हुए उनकी आँखें चमक उठी। वो खुद से बोले, “माँ पता नहीं इतने वर्षों में तुम कैसी होगी ? तुम मगध में होगी भी या नहीं परन्तु तुम्हारी यादें हमेशा मेरे साथ रहेगी माँ!”
वो भिक्षा पात्र उन्हें माँ ने ही दिया था जब वो पहली बार भिक्षाटन के लिए निकले थे। उन्हें माँ की बहुत याद आ रही थी। उन्हें याद आ रहा था कि जब वो करीब सात साल के रहे होंगे, तभी उनके घर एक ज्योतिषी आया था।
उनकी माँ ने ज्योतिषी को चाणक्य का भविष्य देखने को कहा। तभी बालक चाणक्य समझाते हुए बोला, “माँ, भविष्य हाथों की लकीरों से नहीं, कर्म से खिंची लकीरों से बनता है। आप व्यर्थ ही चिंता करती हैं।”
तब माँ उसे डांटती हुई बोली, “तू चुप कर। तू मूढ़ बालक है अभी। ज्योतिषी को भविष्य देखने दे।”
लेकिन ज्योतिषी की नज़र अचानक चाणक्य के दांतों पर चली गयी थी। उन्होंने देखा कि उसके मुंह से एक ऐसा दांत है जिसे ज्ञान का दांत कहा जाता है। तब वो उनकी माँ से बोले, “माता, चाणक्य के मुंह में ज्ञान का दांत होने का अर्थ है आपका पुत्र बड़ा होकर राजा बनेगा।”
ये सुनते ही उसकी माँ के चेहरे पर उदासी छा गयी। उन्हें अचानक उदास देखकर चाणक्य बोले, “माँ क्या हुआ ? आप उदास क्यों हो गयी ?”
तब माँ रुआंसा होती हुई बोली, “चाणक्य, तू राजा बनने के बाद कहीं अपनी माँ को तो नहीं भूल जाएगा ?”
ये सुनते ही चाणक्य क्रोध में बोला, “माँ ये आप कैसी बातें कर रही हैं ? चाणक्य अपनी माँ और मातृभूमि से कभी अलग नहीं रह सकता। अगर आपको ऐसा संदेह है कि मैं राजा बनूँगा और आपसे अलग हो जाऊँगा तो लीजिए, मैं स्वयं ही इस सम्भावना को खत्म करता हूँ।”
इतना कहकर उन्होंने अपने ज्ञान के दांत को तोड़ दिया। उसका ऐसा कठोर और प्रतिज्ञापूर्ण स्वभाव देख उसकी माँ दंग रह गयी। चाणक्य ने दांत को दूर फेंकते हुए कहा, “माँ तू चिंता मत कर, मैं आपको वचन देता हूँ कि आप कभी मुझसे अलग नहीं होंगी। आप मेरी एक हिस्सा हैं और हमेशा रहेंगी।”
चाणक्य माँ से जुड़ी उस भिक्षापात्र को देखकर उनके ही ख्यालों में खो गया था। उसी समय उनका एक शिष्य आया और द्वार पर खड़े रहकर बोला, “आचार्य आपका घोड़ा तैयार है।”
शिष्य की आवाज सुनने के बाद उनकी तन्द्रा भंग हुई और उन्होंने भिक्षा पात्र को अपनी पोटली में डाला। उसके बाद वो पोटली को लेकर आश्रम से बाहर निकल गए। वो घोड़े पर सवार हुए, एक नज़र तक्षशिला को देखकर प्रणाम किया और फिर मगध के लिए प्रस्थान कर गए।
वो जंगल से, खेतों की पगडंडियों से, ग्रामों और कस्बों से गुजरते हुए मगध की तरफ बढ़ते जा रहे थे। सुबह से दोपहर हो गयी और उन्हें अब प्यास भी लगने लगी थी। तभी उनकी नज़र एक सरोवर पर गयी जिसका जल स्वच्छ और शीतल प्रतीत हो रहा था।
उन्होंने अपने घोड़े से बात करते हुए कहा, “अश्वराज प्यास तो तुम्हें भी लगी होगी। थक भी गए होगे। चलो पहले सरोवर के ठन्डे पानी से अपनी प्यास बुझाते हैं फिर पेड़ की शीतल छाया में लघु विश्राम भी कर लेंगे।”
घोड़े ने हिनहिनाकर अपनी सहमती दी। तब चाणक्य घोड़े से उतरे और उसका लगाम पकड़ कर उसे सरोवर का जल पिलाया और फिर उसे पेड़ के तने में बांधकर स्वयं पानी पीने सरोवर के किनारे बैठे।
उन्होंने जैसे ही जल में पानी पीने के लिए अपना हाथ आगे बढ़ाया, तभी उनके कानों में एक आवाज गूंजी - “चाणक्य क्या तुम्हें अपनी बचपन की प्रतिज्ञा याद नहीं ? क्या तुम भूल गए कि धनानंद ने क्या किया था हमारे साथ ? क्या तुम उस नीच, दुष्ट और पापी व्यक्ति से सहायता मांगोगे ?”
आवाज सुनते ही चाणक्य चौंककर उठ खड़े हुए। ये आवाज उन्हें जानी पहचानी सी लगी।
कौन है जिसकी आवाज चाणक्य के कानों में गूंज रही है ? क्या है चाणक्य की बचपन की प्रतिज्ञा ? क्या चाणक्य को महाराज धनानंद की सहायता मिलेगी या मिलेगा अपमान ?
